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- शव संवाद-8
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बुद्धिजीवी सुकून के लिए शमशानघाट में ही ज्यादा समय व्यतीत करने लगा था। वहां लाशों के बहाने लोग बतियाते, तो उसे सुकून मिलता। हर दिन किसी न किसी शव के मार्फत बुद्धिजीवी शमशानघाट पहुंच जाता। उसने देखा कि हर शव नेताओं की ही शिकायत करता है, तो उसकी दिली ख्वाहिश हुई कि किसी नेता के शव को खोजा जाए। उसने कंधों पर बैठे नेता देखे थे, बल्कि नेता वही बना जिसे लोगों के कंधों पर बैठना आ गया। नेता और बुद्धिजीवी के बीच टकराव में हमेशा नेता ही जीतता रहा था, लेकिन उसे उम्मीद थी कि किसी दिन जब इसका शव वह उठाएगा, तो पता चलेगा कि नेता को ढोने के लिए फिर बुद्धिजीवी ही काम आया। वह देवी-देवताओं से मन्नत यह मांगता रहा था कि उसके रास्ते में कोई नेता न आए, लेकिन जैसे-जैसे वह संघर्ष करता रहा, नेताओं का चरित्र दखल देता रहा। जनता के बीच नेता बनाम बुद्धिजीवी की पहचान में हारा तो हमेशा वही। दरअसल वह आखिरी बुद्धिजीवी इसीलिए बना क्योंकि समाज के बाकी सभी लोगों ने नेता के अस्तित्व में संसार के प्राण देख लिए थे। वे जान चुके थे कि बुद्धिजीवी बने रहकर देश और देश के समाज में कुछ पाने का ख्वाब भी मिट जाएगा। देश तो अब नेताओं की आंखों में सपने देखता है।
समाज अपनी नजरों से कहीं अधिक नेताओं की निगाहों पर भरोसा करता है। उसकी इल्तिजा बस यही है कि उम्र के किसी भी पड़ाव में एक बार किसी नेता की नजर उसके ऊपर पड़ जाए। उधर नेता जमीन को देखता नहीं। नेता आकाश पर और धरती पर जनता, एक-दूसरे की आंखों में वर्षों से झांक रहे हैं। बुद्धिजीवी आश्वस्त था कि नेता का शव उठाने में जिस तरह उसकी पांत ने सदैव कर्ज अदा किया, वह भी कर देगा। शहर में उसे कई शव मिले, लेकिन ये सभी नेताओं के कारण ही जगह-जगह गिरे थे। तरह-तरह के शव। जनता की उम्मीदों के शव, भावनाओं के शव और भारत में पैदा होकर भारत में मरने के लिए कृतज्ञ शव- जैसे किसी न किसी नेता की याद में खामोश शव। शवों में नेताओं का प्रचार चरम पर था। हाथों में सियासी पोस्टर की तरह शवों को जैसे गोंद से धरती पर चिपका दिया हो। बुद्धिजीवी आगे बढ़ गया, तो देखा शहर के प्रमुख चौक पर छायादार इंतजाम में एक शव पड़ा मिला। जिस देश के नेता कपड़ों से लोगों के धर्म, खाने की प्लेट से जाति और मरने की परिपाटी से राष्ट्र भावना तक को जान लेते हैं, वहां बुद्धिजीवी को शव में नेता का एक पूरा इतिहास नजर आया। नेताओं को उठाने वाले कम नहीं हैं इस देश में और उसे यकीन था कि इस शव को जल्दी से नहीं उठाया, तो देश में हाहाकार मच सकता है। दंगे हो सकते हैं या राष्ट्रीय शोक की लहर में अवकाश और अंतिम दर्शनों का तांता लग सकता है। पहली बार नेता के शव के कारण देश को बचाने के लिए बुद्धिजीवी ने कंधे हाजिर कर दिए।
उसे मालूम था कि शव जब नेता था, तो उसने देश को सही से चलने नहीं दिया था, इसलिए वह चाहता था कि शीघ्रता से इसे शमशानघाट पहुंचा दे ताकि देश आगे आसानी से चला जा सके। विचारशीलता में खोए बुद्धिजीवी को एहसास हुआ कि कंधे पर शव उसके साथ शरारत कर रहा है। इतने में उसने सुना शव कह रहा था, ‘आया मजा। नेता का शव इतनी आसानी से कोई बुद्धिजीवी उठा ले, मंजूर नहीं।’ बुद्धिजीवी ने कहा, ‘मैं तेरी सद्गति के लिए प्रयास कर रहा हूं। तेरे लिए अब भी काम कर रहा हूं।’ नेता का शव फिर बोला, ‘नेता जिन कंधों पर सवार होकर आज तक देश के शव ढोता रहा, उसके शव को तू पहचान नहीं पाया। शवों से जहां राजनीति होती हो, वहां नेता का शव बिना सियासत के शमशानघाट नहीं पहुंचेगा।’ बुद्धिजीवी को शव के पक्ष में दूर से नजदीक आती हुई आवाजें सुनाई दे रही थीं। इस समूह में वे सभी लोग थे जिनके कारण आज तक कितने ही शव शमशान पहुंचे थे, लेकिन पहली बार वे शव को शमशानघाट परिसर से छीन रहे थे। बुद्धिजीवी फिर देश की राजनीति का शव ढो तो सका, लेकिन इसे जला नहीं सका। नेता के समर्थकों ने जलने से पहले शव छीन लिया। अब उसे सलीके से जलाने के लिए मंत्रिमंडल विचार कर रहा है। यह शव अगले चुनाव में काम आएगा, इस नीयत से बुद्धिजीवी से किनारा करके उसकी अर्थी सज रही थी।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
-क्रमश:
By: divyahimachal
Rani Sahu
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