सम्पादकीय

शव संवाद-5

Rani Sahu
13 Aug 2023 7:05 PM GMT
शव संवाद-5
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कवि और कहानीकार के शव ढोने के बाद भी बुद्धिजीवी के मन में यह विचार तंग कर रहा था कि साहित्य इतना रूखा सा क्यों रहता है। उसने तय किया कि इस बार वह ऐसा शव ढूंढेगा जो साहित्य का नायाब चेहरा होगा। उसने हंसते हुए लोग नहीं देखे थे, फिर भी आशा कर रहा था कि शायद कहीं कोई हंसते हंसते मरा हो या हंसने की वजह से शव बना हो। उसे अचानक कुछ लोग हंसते हुए मिल गए। वे दरअसल वहां व्यंग्यकारों के शव देख कर ही हंस रहे थे। कुछ दिन पहले तक ये तमाम व्यंग्यकार तीखी-तल्ख टिप्पणियां करते इन्हीं लोगों की बोलती बंद करते रहे थे, लेकिन व्यवस्था में आई बाढ़ ने इन्हें डुबो-डुबो कर मुर्दा बना दिया था। फिर भी यहां मुर्दे मुस्करा रहे थे, लेकिन देश का व्यंग्य यह तय नहीं कर पा रहा था कि किसे शव माना जाए, किसे छोड़ दिया जाए। पहली बार व्यंग्य ने मुर्दों को भी जीना सिखा दिया था। अब तक अंतिम बुद्धिजीवी ने स्वीकार कर लिया था कि एक न एक दिन कविता ही कवि को शव बना देने की महारत हासिल कर लेगी। इसी तरह मरने की कहानियों ने कई कहानीकार पैदा होने से पहले ही मुर्दा घोषित कर दिए।
उसने शवों को सुनना शुरू किया था और इतना यकीन उसे हो गया था कि जहां मुर्दे भी बोलने लगें, वहां जरूर कोई तो व्यंग्यकार पैदा हुआ होगा। कितनी विचित्र परिस्थिति है कि व्यंग्यकार केवल उस समाज में पैदा होता है जहां अधिकांश लोग मुर्दा होते हैं। खैर उसने लोगों की भीड़ हटाकर एक मुस्कराते हुए मुर्दे को व्यंग्यकार के रूप में स्वीकार कर लिया। बुद्धिजीवी ने जैसे ही व्यंग्यकार का शव कंधे पर रखा, वह खुजली करने लग पड़ा। पहली बार शव बिना नहाए खुद को खुजला कर राहत महसूस कर रहा था। उसके खुजलाने से बुद्धिजीवी ने पहली बार जाना कि खुद को खुजलाने के कितने फायदे हो सकते हैं। अगर ढंग से कोई खुद को खुजला सके तो वह व्यंग्यकार भी बन सकता है। बुद्धिजीवी को व्यंग्यकार की लाश रास आ गई, क्योंकि व्यंग्यकार की खुजली उसे भी लुभाने लगी थी। उसने शव से पूछा, ‘क्या व्यंग्यकार खुजलाने के अलावा भी कुछ और जानता है।’ व्यंग्यकार का शव इस प्रश्न से आहत दिखा, लेकिन कहने लगा, ‘खुजलाना सबसे कठिन कार्य है।
ये देखो व्यंग्यकार ने खुजलाने से अपनी अंगुलियों और शरीर को किस हद तक जख्मी किया है। अपनी खुजली से खुद को अगर कोई घायल कर सके तो वही व्यंग्यकार हो सकता है, वरना देश के पास घायल होने और करने के कई तरीके और अवसर हैं।’ यकायक बुद्धिजीवी को लगा कि व्यंग्यकार का शव उसके ऊपर भारी पडऩे लगा है। बुद्धिजीवी यूं तो जीवन की हर मुसीबत को ढोने में पारंगत था, लेकिन व्यंग्यकार का शव ढोना कठिन हो रहा था। व्यंग्यों से आहत रहे बुद्धिजीवी ने अंतत: व्यंग्यकार के शव से पूछ ही लिया कि वर्तमान दौर में जब देश के कायदे-कानून तक पढ़े बिना फैसले हो जाते हैं, तो उसके लेखन का क्या औचित्य रहा होगा। शव भावुक होकर कहने लगा, ‘व्यंग्य यूं तो आसानी से पढ़ा या सुना जा सकता है, लेकिन इसे उठाकर चलना मुश्किल है। इसे न तो साहित्य, न समाज और न ही देश उठा पा रहा है।’ शमशानघाट पहुंचते-पहुंचते व्यंग्यकार के शव ने बुद्धिजीवी के कंधे बुरी तरह घायल कर दिए। उसने व्यंग्यकार के शव को लगभग पटकते हुए जमीन पर रखा, तो बुद्धिजीवी की हालत देख रहे प्रत्यक्षदर्शियों की चीख निकल गई। पहली बार आम लोगों की समझ में आया कि देश मेें व्यंग्य और व्यंग्यकार कितना घातक हो सकता है। भीड़ में से कोई चीखा, ‘शमशानघाट में व्यंग्यकार की लाश जलाने की अनुमति नहीं है।’ इतने में शमशानघाट की प्रबंधन समिति ने बुद्धिजीवी को पकड़ा और उसके घायल कंधे पर पुन: व्यंग्यकार का शव चढ़ा दिया। बुद्धिजीवी को इसलिए सजा मिल चुकी थी क्योंकि एक वही था जिसने इस व्यंग्यकार को पहचान दिलाई थी और हर व्यंग्य को गंभीरता से लिया था। अंतत: अब बुद्धिजीवी को व्यंग्यकार की लाश उठाकर अपने ही घाव का दर्द और ताप महसूस हो रहा था।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal

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