सम्पादकीय

शव संवाद-10

Rani Sahu
17 Sep 2023 6:51 PM GMT
शव संवाद-10
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बुद्धिजीवी अब शमशानघाट की शान था। एक यही स्थान बचा था जहां वह प्रासंगिक बना दिखाई देता था। उसने धीरे-धीरे लाशों से संवाद की अपनी जरूरत विकसित कर ली थी, क्योंकि बुद्धिजीवी के आसपास व्यावहारिक जीवंतता तो एक तरह से खत्म हो चुकी थी। सरकार बदलते ही सत्तापक्ष का कब्जा शमशानघाट प्रबंधन समिति पर हो चुका था। यह बदलती हुई परिस्थिति थी जिसके कारण बुद्धिजीवी को यह समझ नहीं आ रहा था कि अब वह शवों से संवाद कैसे करेगा। वहां अब शवों के साथ-साथ राजनीति भी आनी शुरू हो गई। जब कोई शव जलता, सियासत उसी की चिता में खुद को गर्म कर लेती। सियासत के कारण शमशानघाट कभी वीआईपी हो जाता, कभी फकीर दिखाई देता, तो कभी सत्ता विरोधी ताकतों का छोर हो जाता। राजनीति के कारण शहर में कई शमशानघाट बन गए।
हर शमशानघाट के निर्माण की जरूरत में सियासी परिपक्वता भी दिखाई दी, वरना शहर के वारिस क्यों यहां याद किए जाते। बुद्धिजीवी हमेशा राजनीति से दूर खुद को बचाने की जुगत में लगा रहता, लेकिन उसकी मजबूरी यह रही कि उसके अकेलेपन में भी सियासत को कहने का अवसर मिल जाता। वह अपनी तरह के मरे हुए लोगों में भी सियासत के चलते ऐसे नागरिक देख रहा था, जिन्हें ढोकर देश की जरूरतें पूरी हो रही हैं। बुद्धिजीवी रोज के समाचारों में कई नेताओं, मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों के बयानों में खुद को ही मरता हुआ देखने लगा था। वह नेताओं के श्रोताओं में शवों का चरित्र देखता। ये शव कभी संवाद नहीं करते और यह खासियत राजनीति की है कि वह किसी भी जिंदा इनसान को शव बना सकती है। एक दिन वह चौंक गया। शमशानघाट के पास ही सत्तारूढ़ दल से संबद्ध कुछ शव गुप्त रूप से बतिया रहे थे। एक-दूसरे पर और एक-दूसरे से गिरे हुए शव अपनी ही सत्ता के विरोधी थे, क्योंकि वे सरकार के कफन ओढक़र लेटे थे। वे राजनीति में रहते हुए भी राजनीति के लावारिस थे, इसलिए उन्होंने बुद्धिजीवी को अपने बीच दबोच लिया। पहली बार बुद्धिजीवी को लगा कि एक साथ इतने शवों को वह कब तक ढोता रहेगा। पहली बार उसे शव और स्वार्थ पास-पास दिखाई दिए। सोचा कि इन विरोधी शवों की चिता जला देगा, तो सरकार बुद्धिजीवी संरक्षण का शायद कोई ऐलान कर देगी, मगर नेताओं के शव उठाना भी कहां आसान था। उस जमावड़े में महत्त्वाकांक्षी कार्यकर्ता, विधायक, पूर्व विधायक, पूर्व मंत्री और हारे हुए विधायकों के शव अपना-अपना भला सोच रहे थे। बावजूद इसके कि उनकी पार्टी सत्ता में थी, वे नाकारा घोषित हो गए थे।
बैठक में कोई शव बता रहा था कि वह कितना पार्टी का सगा और प्रतिभा से भरा था। बुद्धिजीवी के सामने हर नेता का शव अपनी-अपनी ख्वाहिश बता रहा था, लेकिन उसे पूर्व मंत्री के शव पर दया आ गई। किसी तरह उसने अनेक मुर्दों के बीच फंसी उसकी लाश खींची और उसे कंधा दे दिया। पूर्व मंत्री की लाश का स्पर्श बता रहा था कि इसके भीतर न जाने कितने लोग मरे होंगे। कितने वादे और कितने दावे मरे होंगे, तब कहीं जाकर यह लाश बना होगा। बुद्धिजीवी के कंधे पर पूर्व मंत्री का शव कभी सिकुड़ता, तो कभी फैल जाता। तभी बुद्धिजीवी ने देखा कि शव का एक हाथ उसकी जेब टटोल रहा है, तो दूसरा उसकी आंखें ढांप रहा था। शव अचानक कहने लगा, ‘बुरा मत देखो। मैंने कभी भी अपने हाथ की सफाई को अपनी आंखों से नहीं देखा और न ही आंखों को यह इजाजत दी कि वे जो देखें, उसे कबूल भी करें। राजनीति हमें अंधा होना सिखाती है, तो सत्ता हमें अंधा होकर चलना भी सिखाती है। कभी भी यह मत सोचना कि जिसे बुद्धिजीवी देख रहा या देख सकता है, उसे सरकार के प्रतिनिधि भी कभी देख पाएंगे।’ यह सुनकर बुद्धिजीवी को पहली बार अपनी आंखों पर यह भरोसा नहीं हो रहा था कि उसके कंधे किसी पूर्व मंत्री का शव उठा रहे हैं। तभी उसे जोरदार ठोकर लगी और देखते ही देखते पूर्व मंत्री का शव छिटक कर सामने जल रही आम आदमी की चिता पर सवार हो गया। बिना किसी औपचारिकता यहां भी पूर्व मंत्री की लाश ने आम आदमी की अंतिम यात्रा पर अतिक्रमण कर लिया। बुद्धिजीवी एक ओर ठोकर खाकर दर्द से कराह रहा था और लोग समझ रहे थे कि पूर्व मंत्री के लिए कोई किस शिद्दत से आंसू बहा रहा है। -क्रमश:
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal

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