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तरुण गुप्त। एक ऐसे दौर में जब कोविड महामारी का शिकंजा निरंतर और कड़ा होता जा रहा है तो देश के मिजाज को भांपना कठिन नहीं। इस मिजाज में उदासी और आक्रोश का मिश्रण है। चारों ओर उथल-पुथल मची है। दुख से भरी ऐसे तस्वीरें आ रही हैं, जिनका वर्णन भी संभव नहीं। वेदना की यह चीख-पुकार रोष में रूपांतरित होना आरंभ हो गई है। अभी हम हर प्रकार की किल्लत से जूझ रहे हैं। अस्पतालों में बेड, आइसीयू, वेंटिलेटर्स, जीवन रक्षक दवाएं और यहां तक कि आक्सीजन की आपूर्ति भी सीमित हो गई है। आम से लेकर खास और संसाधन संपन्न लोगों को भी इनकी कमी से दो-चार होना पड़ रहा है। विडंबना देखिए कि हम यही सुनते हुए बड़े हुए हैं कि संसार में केवल प्रेम और हवा ही मुफ्त उपलब्ध हैं। जीवन की डोर से जुड़ी ये सांसें इससे पहले कभी इतनी मूल्यवान और दुर्लभ नहीं लगीं। अगर बहादुर शाह जफर की मशहूर गजल में कुछ फेरबदल करें तो मौजूदा हालात को इन शब्दों में बयां किया जा सकता है-सांस लेनी मुझे मुश्किल कभी ऐसे तो न थी।