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कोरोना के दिन हैं। कच्ची उबासी लेने की भी इजाजत नहीं है
नवनीत गुर्जर का कॉलम:
कोरोना के दिन हैं। कच्ची उबासी लेने की भी इजाजत नहीं है। लगता है- हर आदमी सड़क के आर-पार चल रहा है। उस तरफ से वो कुछ कहता है तो रास्ते के शोरगुल में गुम हो जाता है। इस पार वाला सोचता है ये कहीं वो तो नहीं जो मुझसे छिपता फिर रहा है! खैर, कोरोना पर पहले की तरह अब भी भारी है चुनाव। कोरोना का तीसरा चरण है जबकि चुनाव के सात। कौन भारी है और कौन हल्का, अंदाजा लगाना आसान है।
उधर मौसम सब पर भारी है। पहाड़ों पर बर्फ की चादर बिछा रहा है। मैदान में कहीं ओले, कहीं बारिश का कहर। फसलें चौपट हो रही हैं और आदमी ठिठुर रहा है। भला हो कोरोना का, कि मास्क में चेहरे के हाव-भाव पता नहीं चलते वर्ना इस ठिठुरन में अच्छा भला माणस चिम्पांजी लगने लगता है। लेकिन इस कड़ी ठंड में भी राजनीतिक गर्मी कायम है। उत्तर प्रदेश में राजनीतिक जंग छिड़ी है। भाई लोग मान नहीं रहे हैं।
बाकी प्रदेशों में अब तक जो कुछ भारतीय जनता पार्टी करती आई है, इस बार सबसे बड़े प्रदेश में दूसरी पार्टियां उसे उसकी ही भाषा में उत्तर देने को तुली हुई हैं। मंत्री, विधायक भाजपा छोड़कर सपाई होने जा रहे हैं। कोई उन्हें रोक नहीं रहा। कोई टोक नहीं रहा। कोई कौमी झगड़ा भी नहीं है। जाने वालों में ब्राह्मण भी हैं और राजपूत भी। सुना जा रहा है कि भाजपा छोड़ कर जाने वालों में वे सब शामिल हैं जिनके पार्टी में टिकट के लाले पड़ने वाले थे।
सब, माया-मोह से दूर रहने वाले योगी की माया है। भाजपा सोच रही है- भला हुआ जो कचरा साफ हो गया और सपा सोच रही है- मावठे के इस सीजन में उसके आँंगन में हीरे बरस रहे हैं। देखना यह है कि दस मार्च को क्या होगा? उत्तर प्रदेश के साथ पांच राज्यों के चुनाव परिणाम इसी दिन आने वाले हैं। चुनाव से याद आया- इस चुनावी मौसम में जीना भी एक जादू है।
ख्वाब पैरों पर चलते हैं और उमंगें फूटती रहती हैं जैसे पानी में रखे मूंग चटखते हैं। एक मशहूर लेखक ने परदेस जाते समय अपने नाना की संपत्ति में से मिला गहनों और अशर्फियों से भरा एक ट्रंक अपने गांव गुजरांवाला की एक भक्त महिला के पास धरोहर के रूप में रखा था। लेखक को जीवन की सबसे बड़ी हैरानी तब हुई जब लौटकर धरोहर मांगने पर उस महिला ने एक ही जवाब दिया था- कैसा ट्रंक?
प्रचार के दौरान नेता भी बड़े-बड़े वादे करते फिरते हैं लेकिन चुनाव बाद हमें भी एक ही जवाब मिलता है, जैसा उस भक्त महिला ने दिया था- कैसे वादे? खैर, यह वर्षों पुरानी परंपरा है। कुछ बदलने वाला नहीं है। चुनाव ऐसे ही चलते रहेंगे। हम ऐसे ही ठगे जाते रहेंगे। बहरहाल, गहरी ठिठुरन के इन दिनों में, जाड़ों के इस धुने हुए मौसम में, सूरज भी दुबका फिर रहा है।
शाम का सूरज जाते-जाते दरवाजे के नीचे से धूप का एक छोटा -सा पुर्जा फेंक जाता है। यह कहते हुए कि कल आऊंगा, यह तय तो नहीं, लेकिन आज का दिन तुम जी पाए, इसीलिए यह पर्ची छोड़े जा रहा हूं। ताकि सनद रहे। चुनाव से याद आया- इस चुनावी मौसम में जीना भी एक जादू है। ख्वाब पैरों पर चलते हैं और उमंगें फूटती रहती हैं जैसे पानी में रखे मूंग चटखते हैं।
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