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कोरोना वायरस
कोरोना की दूसरी लहर के बीच अमेरिकी मदद की पहली खेप तीन दिन पहले भारत पहुंच गई थी और रविवार को रूसी वैक्सीन स्पूतनिक-वी की पहली खेप हैदराबाद पहुंच गई है। इसका इस्तेमाल अब टीकाकरण के तीसरे फेज में किया जा सकता है। रूस से मई माह में 30 लाख और जून में 50 लाख खुरान और ली जाएगी। इसके अलावा जर्मनी द्वारा 120 वेंटिलेटर भेजे जा चुके हैं। इसके अलावा जर्मनी अब एक मोबाइल आक्सीजन प्लांट भी भेज रहा है। जर्मनी के 13 तकनीकी कर्मचारी भारत आए हैं जो प्लांट लगाने में मदद कर रहे हैं और भारतीय तकनीकी कर्मचारियों को प्रशिक्षण दे रहे हैं। अमेरिका से एक हजार से अधिक आक्सीजन सिलैंडर और अन्य चिकित्सा उपकरण भी पहुंच गए हैं। ब्रिटेन, फ्रांस, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर समेत 40 से अधिक देशों की ओर से सहायता सामग्री देश में पहुंच रही है और यह प्रक्रिया जारी है।
अमेरिका ने जरूरी दवाएं और एस्ट्राजेनेका-आक्सफोर्ड की वैक्सीन कोविशील्ड और इसे बनाने के लिए कच्चा माल भी भिजवाया है। पहले तो अमेरिकी प्रशासन ने भारत की मदद करने में कुछ हिचकिचाहट दिखाई थी लेकिन राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भारत की मदद करने का फैसला किया। इतनी विकराल महामारी से जूझने के लिए भारत के पास न तो मजबूत हैल्थ सैक्टर है और न ही पर्याप्त संसाधन। यही कारण है कि अस्पतालों को आक्सीन सही समय पर नहीं मिलने से मरीजों की दुखद मौत हो रही है। विदेशों से अब आक्सीजन कंटेनर भी मिल रहे हैं और भारतीय वायुसेना इन कंटेनरों को एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचा रही है। कई देशों और कम्पनियों ने भारत की मदद करने के लिए अपने उत्पादन में बढ़ौतरी कर दी है और आपातकालीन सहायता पहुंचाना शुरू कर दिया है। अब तो विदेशों में रह रहे लोग और अप्रवासी भारतीय भी सोशल मीडिया पर संदेश दे रहे हैं कि वे भी व्यक्तिगत रूप से हर सम्भव सहायता देने को तैयार हैं। भारत ने मैत्री के तहत नेपाल, भूटान, बंगलादेश, म्यांमार, अफगानिस्तान, श्रीलंका, मालद्वीप, मारिशस जैसे देशों को वैक्सीन की सप्लाई की थी, बल्कि भारत विश्व स्वास्थ्य संगठन की कोवैक्स पहल में भी योगदान कर रहा है। कोवैक्स नाम की पहल विकासशील और गरीब देशों को वैक्सीन दिलाने के लिए शुरू की गई थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी तरफ से मदद का हाथ बढ़ा कर 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना को पुख्ता बनाया। अगर पूरा विश्व हमारी मदद के लिए आगे आ रहा है तो यह भारत द्वारा दिखाई गई सद्भावना का ही परिणाम है। यह सही है कि महामारी के समय पूरा देश स्तब्ध खड़ा है। इतना निसहाय हम पहले कभी नहीं थे। जब इस बीमारी ने दस्तक दी थी तब हमारे पास कोई तैयारी नहीं थी। पिछले वर्ष हमने लम्बी यात्रा तय की। देश नए-नए प्रयोगों के दौर से भी गुजरा। एक के बाद एक लॉकडाउन देखे हैं। अपने बीमार पिता को 1200 किलोमीटर साइकिल चलाकर बिहार ले जाने वाली युवती को देखा। अपने गांवों को पैदल लौटते लाखों मजदूरों को देखा, फिर भी हम असहाय नहीं थे। अब हमारे पास वैक्सीन भी है, वेंटीलेटर भी है। अब तक 15 करोड़ लोगों को वैक्सीन मिल चुकी है, फिर भी हम असहाय हैं। दरअसल महामारी की मार इतनी तेज है कि हमारे संसाधन कम पड़ रहे हैं। दरअसल शुरूआती कामयाबी के बाद हम लापरवाह हो चुके थे। नेतागण चुनावों में धड़ल्ले से कूदे और रैलियों में खुलेआम बचाव के उपायों की धज्जियां उड़ीं। विशाल जनसमूह को आमंत्रित करने वाले धार्मिक आयोजन भी होने लगे। कोरोना का दूसरा महाविस्फोट होने के बाद सब कुछ नियंत्रण से बाहर होने लगा तो इसके लिए कोई एक दोषी नहीं, हम सब दोषी हैं। कोरोना से महायुद्ध में दलाल उभर आए। आक्सीजन, दवाइयों की ब्लैक होने लगी। हालात ऐसे हो गए कि सुप्रीम कोर्ट को भी हस्तक्षेप करना पड़ा।
इस मुश्किल घड़ी में अब पूरी दुनिया हमारी मदद को खड़ी है इससे पता चलता है कि अलग-अलग सरहदों में बंटी दुनिया में इंसानियत के धागे कितने मजबूत हैं। कोरोना ने पूरी दुनिया को इंसानियत के धागे से जोड़ दिया है और सीमाएं भी छोटी पड़ चुकी हैं लेकिन भारत के भीतर ऐसे तत्व मौजूद हैं जो इंसानियत को तार-तार कर रहे हैं। कोरोना से जंग जीतनी है, अगर हमने कामयाब होना है तो हमें अपने घर में इंसानियत को जगाना होगा। यह समय आलोचना का नहीं बल्कि सद्भाव से जमीनी स्तर पर सुविधाओं को बहाल करने का है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना पर बैठक में कई अहम फैसले लिए हैं, जिसमें एमबीबीएस के फाइनल वर्ष के छात्रों की सेवाएं ली जा सकती हैं। कोरोना के खिलाफ जंग में मैडिकल छात्रों को भी बड़ी भूमिका निभानी होगी। अंततः हम जंग जीत जाएंगे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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