सम्पादकीय

कोरोना महामारी: एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी से उलट एक नई पहचान बनाने से क्यों चूकी धारावी?

Gulabi
17 Aug 2021 6:53 AM GMT
कोरोना महामारी: एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी से उलट एक नई पहचान बनाने से क्यों चूकी धारावी?
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कोरोना महामारी

शिरीष खरे, लेखक व पत्रकार।

देश की आर्थिक राजधानी कही जाने वाली मुंबई में धारावी (Dharavi) का स्लम एरिया पिछले कुछ समय से अलग-अलग कारणों से चर्चा में रहा है. इस एरिया में कई तरह के छोटे-छोटे उद्योग-धंधे करोड़ों रुपए का कारोबार करते रहे हैं. इनमें सबसे अहम है चमड़ा उद्योग. दरअसल, यहां का चमड़ा उद्योग धारावी को एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी (slum) से उलट एक अलग पहचान दिलाने के लिए संघर्ष कर रहा था. लेकिन, इन दिनों कोरोना-काल में यह उद्योग संकट खुद इतने बुरे दौर से गुजर रहा है कि धारावी भले ही कोरोना जैसी विकट महामारी से उभरकर दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के खिलाफ 'धारावी मॉडल' के रुप में चर्चित हो, लेकिन यहां आजीविका का प्रमुख आधार कहे जाने वाला चमड़ा उद्योग टूट गया है, जिसके बारे में न के बराबर बात की जा रही है.


कोरोना महामारी (Corona Pandemic) ने मुंबई में धारावी के पूरे चमड़ा कारोबार (leather industry) की रौनक छीन ली है. वहीं, ग्राहकों की कमी के कारण इस उद्योग से रोजी रोटी चलाने वाले कारीगर भी त्रस्त हैं. इनकी माली हालत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है. इस उद्योग से जुड़े कारीगर बताते हैं कि कोरोना महामारी से पहले भी धारावी का चमड़ा कारोबार कुछ दूसरी वजहों से मुश्किल में चल रहा था, लेकिन कोरोना वैश्विक महामारी के बाद यह उद्योग इस समय अपने वजूद को बचाने के लिए जूझ रहा है. ऐसी विकट स्थिति की मुख्य वजह यह है कि कोरोना संक्रमण (Corona infection) के डर और लॉकडाउन (lockdown) के कारण बड़ी तादाद में यहां सामान खरीदने के लिए आने वाले ग्राहकों की संख्या सीमित हो गई है.

ग्राहक इस इलाके में सामान खरीदने के लिए नहीं आ रहे हैं. इसका नतीजा यह हुआ है कि यहां चमड़ा उद्योग से जुड़ी व्यवसायिक गतिविधियां लगभग रुक गई हैं. इसी तरह, चमड़ा उद्योग से जुड़े ज्यादातर कारोबारी फिलहाल व्यवसाय शुरू करने से कतरा रहे हैं.

सालाना करीब छह सौ करोड़ का कारोबार पर संकट

बता दें कि धारावी मुंबई में करीब ढाई सौ हेक्टेयर क्षेत्र में फैला स्लम एरिया है. यहां बीस हजार से अधिक छोटे व्यवसायी और उत्पादक हैं. यहां चमड़ा सहित वस्त्र और रि-साइकिलिंग से जुड़ी वस्तुओं का सालाना करीब छह सौ करोड़ रुपए का कारोबार है. मुंबई की धारावी एशिया में सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती के रूप में जानी जाती है. लेकिन, इस पहचान के समानांतर धारावी की एक पहचान इस रुप में भी उभर रही थी कि इसे कई उद्योग और व्यवसायों का घर भी कहा जाने लगा था. कारण यह कि यहां रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतों से लेकर कई देशों को निर्यात किए जाने वाले सामान तैयार किए जा रहे थे.


कोरोना महामारी से पहले कई तरह की चीजों को बनाने के लिए यहां दिन-रात काम चलता रहता था. खास तौर से चमड़ा उद्योग के कारण यह बड़ी संख्या में न सिर्फ ग्राहकों को आकर्षित करता रहा था, बल्कि चमड़ा उद्योग से जुड़ी अनेक कंपनियों और बड़े व्यवसायिकों को भी लुभा रहा था.

इस बारे में यहां चमड़ा उद्योग से जुड़े छोटे व्यवसायी शम्मी शेख बताते हैं, "चमड़ा का कारोबार यहां मुख्य है. धारावी चमड़े के सामानों से जुड़े कई नामी ब्रांडों का ठिकाना है और बड़े पैमाने पर वे यहां से तैयार चीजों को बनवाते हैं या उन्हें थोक के भाव खरीदते हैं. इसलिए कई अन्य राज्यों के ग्राहक और बड़ी कंपनियों के अधिकारियों की भीड़ ट्रेनों से धारावी के बाजार तक माल लेने के लिए आती है." पर, अब शम्मी शेख इस बात को लेकर चिंतित हैं कि कोरोना की दूसरी लहर के बाद भी इस समय बाजार में मंदी बनी हुई है.


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बेरोकटोक जारी था कामकाज

एक अन्य चमड़ा व्यवसायी राजेंद्र भोइटे बातचीत करते हुए बताते हैं, "यह सही है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण भी चमड़ा उद्योग प्रभावित हुआ था, लेकिन फिर भी कामकाज बेरोकटोक जारी था." वह बताते हैं कि कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन की घोषणा के बाद बड़ी संख्या में मजदूर मुंबई से पूरे परिवार के साथ गांव चले गए हैं, जिससे हालात पूरे तरह बदल गए. कोरोना की पहली लहर के दौरान घोषित लॉकडाउन में धारावी का चमड़ा उद्योग छह महीने बंद रहा. उसके बाद, कोरोना की दूसरी लहर से पहले कुछ मजदूर लौटे भी तो स्थिति यह थी कि मार्केट में मांग न होने के चलते उनके पास कुछ खास काम नहीं था.


चमड़े की चीजों के थोक विक्रेता गणेश दोईफोने बताते हैं कि वे 1988 से चमड़ा व्यवसाय से जुड़े हैं, इसलिए लॉकडाउन में भी अपनी बचत के पैसे से किसी तरह घर-गृहस्थी चलाने में समर्थ हैं. उन्होंने कहा, "असल समस्या कारीगरों की है, क्योंकि वे आमतौर पर इतना नहीं कमा सकते हैं कि अच्छा खासा बचत करके रख सकें और उससे कई महीनों तक बिना काम किए भी अपने परिवार वालों का पेट पाल सकें." धारावी के कई चमड़ा कारोबारी मानते हैं कि चमड़े की वस्तुएं जीवन के लिए अत्यावश्यक वस्तुओं की श्रेणी में नहीं आती हैं. इसलिए ऐसे वस्तुओं की मांग आपातकालीन स्थितियों में घट गई है.


इस क्षेत्र के कारोबारी सतीश खाडे कहते हैं, "खास तौर पर जब कोविड के समय लोगों की आमदनी घट गई है तो चमड़े की चीजों की मांग में कमी आनी स्वभाविक है. कारण यह है कि चमड़े की चीजें मंहगी होती हैं. इसलिए आम ग्राहक सस्ती चीजों के लिए चमड़े की बजाय अन्य विकल्प तलाश रहा है और उन्हें खरीद रहा है. इसलिए भी धारावी में चमड़े की चीजों को लेने के लिए आने वाले ग्राहकों की संख्या में कमी आती जा रही है. यही वजह है कि इस काम में सालों से लगे कई लोगों ने दूसरे काम तलाश लिए."

देखा जाए तो, यहां चमड़े का कारोबार करने वालों का मुनाफा बड़ी कंपनियों के साथ होने वाले समझौतों पर निर्भर रहता है. लेकिन, कोरोना लॉकडाउन में ऐसी कंपनियों का व्यवसाय भी प्रभावित हुआ. इन कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारियों की बड़े पैमाने पर छंटनी हुई. इसलिए ग्राहकों के साथ जब कई कंपनियां भी माल खरीदने के लिए यहां आनी बंद हो गईं तो पूरा चमड़ा उद्योग पटरी पर आ गया.

वहीं, कुछ कारोबारी बताते हैं कि कोरोना लॉकडाउन में ज्यादातर कारीगर अपने-अपने गांव चले गए थे और वे उनकी स्थानीय जगहों पर ही कुछ काम तलाश रहे हैं. ऐसे में यदि बड़े आर्डर आएं भी तो उन्हें पूरा करना मुश्किल इसलिए होगा कि पूरा क्षेत्र कारीगरों की कमी से भी जूझ रहा है.

कारोबार का माहौल नहीं रहा

धारावी के एक छोटे चमड़ा कारोबारी की परेशानी बताते हुए राजेंद्र भोइटे कहते हैं कि उसे अपनी वर्कशॉप के किराए और अन्य कार्यों के लिए हर महीने पचास हजार रुपए तक खर्च करना पड़ता है. यदि आमदनी बंद है तो इतना खर्च उठा पाना बहुत मुश्किल है. इसलिए लोगों ने किराए से लिए वर्कशॉप छोड़ दिए हैं. राजेंद्र के मुताबिक इसका मतलब यह है कि कारोबार के लिए जो माहौल चाहिए वह नहीं है और फिर से कारोबार के लिए माहौल बनाना आसान नहीं होता है. इसमें काफी समय लगता है.

इसी तरह, यहां एक अन्य छोटे चमड़ा कारोबारी बालासाहेब खरात बातचीत के दौरान बताते हैं, "हम तीस-बत्तीस सालों से इस धंधे में हैं. लेकिन, अभी जो हालत है वैसी कभी नहीं आई. इस धंधे में रहते हुए लगता नहीं है कि जिंदगी जी जा सकती है. हम जो आइटम बनाते हैं उसमें कारीगरी (art) चाहिए होती है. यदि कारीगर को उसकी मेहनत भी नहीं मिलेगी तो हमें क्या मुनाफा मिलेगा." बालासाहेब खरात और उनकी तरह अन्य छोटे चमड़ा कारोबारियों की परेशानी बालासाहेब की इस मजबूरी से भी लगाया जा सकता है, जिसमें वह आखिरी में कहते हैं, "कई महीनों से माल लेने के लिए आने वाले काफी कम हो गए हैं. हालत ऐसी है कि हम पैसे के किए थोड़ा नुकसान उठाकर भी माल बेच सकते हैं."

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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