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कोरोना महामारी और भारत
रोहित श्रीवास्तव।
देश ने कोरोना की दूसरी लहर में जो मंजर देखा उसे भुलाया नहीं जा सकता। बात चाहे ऑक्सीजन की कमी हो या फिर इलाज के अभाव में गई लोगों की जानों की, कोरोना की इस घातक लहर में बनी इन विषम परिस्थितियों ने भारत के स्वास्थ्य सेवा तंत्र की विसंगतियों को उजागर करने का काम किया। ऐसे में समाज के हर वर्ग से इस मौजूदा स्वास्थ्य सेवा तंत्र को मजबूत करने की मांग उठने लगी।
देश का आम नागरिक भी ऐसी जरूरत महसूस कर रहा है। राजनीतिक और सामाजिक संगठन भी ऐसी मांग करने लगे हैं। इसी क्रम में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने केंद्र की मोदी सरकार से स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार का दर्जा दिए जाने की मांग की है। उन्होंने इस संबंध में राजस्थान में विधेयक लाने की भी बात कही है।
खास बात यह है कि नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी ने कोरोनाकाल के दौरान सबसे पहले स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाने की मांग की थी।
अपनी इस मांग का आधार बताते हुए सत्यार्थी ने कहा था-
कोरोना महामारी के दौरान हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्गति उजागर हो गई। ग़रीब, वंचित और आम आदमी को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मिल पाएं, इसके लिए स्वास्थ्य तंत्र को मज़बूत बनाना होगा। इसके लिए स्वास्थ्य को संवैधानिक अधिकार का दर्जा दिया जाए।
गौरतलब है कि सामाजिक कार्यकर्ता सत्यार्थी ने शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 2001 में सत्यार्थी ने इस विषय को केंद्र में लाने के उद्देश्य से कन्याकुमारी से कश्मीर होते हुए दिल्ली तक की 20 राज्यों की 15 हजार किलोमीटर लंबी शिक्षा यात्रा का आयोजन किया था। इस जनजागरण यात्रा की समाप्ति पर उन्होंने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और प्रतिपक्ष के नेताओं से मुलाकात की थी। उनके प्रयासों का ही नतीजा था कि शिक्षा का अधिकार कानून अस्तित्व में आया, जिससे आज करोड़ों बच्चे लाभान्वित हो रहे हैं।
क्यों जरूरी है स्वास्थ्य का अधिकार?
संविधान में बेशक स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा न मिला हो, परंतु भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की तथ्यात्मक व्याख्या करें तो यह अप्रत्यक्ष रूप में इसमें शामिल है। अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को सुनिश्चित करता है। जीवन और स्वास्थ्य एक दूसरे के पूरक हैं। एक अच्छे स्वास्थ्य के बिना जीवन का अस्तित्व खतरे में रहता है और बिना जीवन के स्वास्थ्य के अस्तित्व का सवाल ही नहीं है। अगर देश का संविधान हमें जीवन जीने का अधिकार दे सकता है तो वही संविधान हमें स्वास्थ्य का अधिकार क्यों नहीं दे सकता?
स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार में शामिल किए जाने से अनुच्छेद 21 के जीने के अधिकार को और मजबूती मिलेगी। ऐसे गरीब और वंचित लोगों को लाभ मिलेगा जो इलाज के अभाव में अपनी जान गंवा बैठते हैं। सरकार अपने नागरिकों को उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सेवा तंत्र को बहाल करने के लिए बाध्य होगी।
अगर वो ऐसा करने में असफल रहती है तो इसके लिए सरकार की जवाबदेही तय होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के महानिदेशक डॉ. टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस ने 2017 में मानवाधिकार दिवस के अवसर पर कहा था-
"सभी लोगों के लिए स्वास्थ्य के अधिकार का मतलब है कि हर किसी की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच होनी चाहिए, जब और जहां उन्हें इसकी आवश्यकता हो बिना आर्थिक तंगी झेले।" डब्लूएचओ के मुखिया का यह कथन महत्वपूर्ण है। यह स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार दिए जाने की कैलाश सत्यार्थी की मांग को रेखांकित करता है।
एक आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति अपना या अपने परिजन का इलाज किसी निजी अस्पताल में कराने के लिए सक्षम नहीं होता और सरकारी अस्पतालों में लगने वाली लंबी तारीखों और लाइनों से हम अपरिचित नहीं हैं। सरकारी अस्पतालों में आज भी बेड्स की संख्या सीमित हैं। लेकिन इसकी आस में जीने वाले लोगों की संख्या बेड्स की तुलना में असीमित हैं।
हमें हमारे स्वास्थ्य तंत्र सेवा में ऐसे हालात भविष्य में न बनें इसके लिए कुछ करना होगा। इसकी शुरुआत स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार में शामिल किए जाने से की जा सकती है जो समाज के हर वर्ग के व्यक्ति को बेहतर स्वास्थ्य सेवा देने की गारंटी देगा।
बिहार के रक्सौल के एक प्राइवेट हॉस्पिटल की छत से कूदकर 36 साल के एक कोरोना मरीज ने केवल इसलिए जान दे दी, क्योंकि वह कथित रूप से निजी अस्पताल के बढ़ रहे बिल को लेकर परेशान था।
आज भी देश के ग्रामीण इलाकों से अच्छे इलाज के लिए शहर की तरफ रुख करना पड़ता है। स्वास्थ्य की गारंटी इस खोखले स्वास्थ्य सेवा तंत्र को भरने के लिए मील का पत्थर साबित होगी, जहां वंचित वर्ग को इलाज के लिए दर-दर भटकना पड़ता है और अपनी जान देनी पड़ती है।
बच्चों की बात करें तो दुनिया में बच्चों की मौत के मामले में भारत नाइजीरिया के बाद दूसरे नंबर पर है। आंकड़ें बताते हैं कि भारत में वैश्विक स्तर पर हर पांच बच्चों में (5 साल से कम उम्र के) से एक की मौत होती है। यह भी एक तथ्य है कि भारत में एक वर्ष से कम आयु के (शिशु )बच्चों की दो तिहाई से अधिक और लगभग आधे बच्चों (5 वर्ष से कम आयु) की नवजात अवधि (28 दिनों से कम आयु) में मृत्यु होती है।
भारत में शिशु मृत्यु के प्राथमिक कारण समय से पहले जन्म, जन्म के समय कम वजन, निमोनिया, जन्म आघात, दस्त रोग, और तीव्र जीवाणु सेप्सिस और गंभीर संक्रमण हैं। इनमें से अधिकांश समस्याओं को एक सुसज्जित सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के साथ प्रबंधित किया जा सकता है। उचित स्वास्थ्य देखभाल बुनियादी ढांचे, वितरण देखभाल, उपकरण और दवाओं के अभाव में हर साल हजारों बच्चे दम तोड़ देते हैं।
कोरोना महामारी की भयावहता और सरकारें
वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य की दिशा में कई कदम उठाएं गए हैं। 2018 की अस्ताना घोषणा सरकारों को सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए एक आवश्यक मार्ग के रूप में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की दिशा में काम करने के लिए प्रतिबद्ध करती है। यूनिवर्सल हेल्थ केयर सिस्टम कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, स्कैंडिनेवियाई देशों और पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसे फ्रांस, जर्मनी और नीदरलैंड में मौजूद हैं। इन देशों में, सार्वजनिक और निजी स्वास्थ्य देखभाल को सार्वजनिक रूप से प्रबंधित किया जाता है, जिससे सभी लोगों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच प्राप्त होती है।
दक्षिण एशिया में, श्रीलंका सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के माध्यम से सभी निवासियों के लिए मुफ्त दवाओं सहित मुफ्त प्राथमिक और माध्यमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करता है। हमें अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए दूसरे देशों से सीखना चाहिए।
नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने एक बार कहा था-
भारत की स्वास्थ्य देखभाल को दुनिया भर के उन देशों (खासकर थाईलैंड और ब्राजील) से बहुत कुछ सीखना है जो स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हैं।
थाईलैंड में राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिनियम, 2007 के तहत स्थापित एक 'स्वास्थ्य सभा' है, जिसमें नागरिकों और सार्वजनिक अधिकारियों के बीच निरंतर बातचीत के माध्यम से सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल की दिशा में स्थिर कदम उठाए गए हैं। थाईलैंड ने दो साल से भी कम समय में अपनी 76 प्रतिशत आबादी को कवर करते हुए एक स्वास्थ्य सुरक्षा योजना लागू की है।
1988 में, ब्राजील के संविधान ने स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच को एक सार्वभौमिक अधिकार बना दिया, और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं और कुछ निजी अस्पतालों सहित एक राष्ट्रीय 'एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली' बनाई। उपर्युक्त स्वास्थ्य सुविधाएं, जैसा कि कुछ देशों द्वारा प्रदान की जाती हैं, अपने नागरिकों की सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल को सक्षम बनाती हैं और व्यय सहित पीड़ा को कम करती हैं।यह भी इंगित करने की आवश्यकता है कि गैर-भेदभाव मानव अधिकारों के प्रमुख सिद्धांतों में से एक है और अधिकार के आनंद के लिए महत्वपूर्ण है।
भारत जैसे विशाल देश की स्वास्थ्य सेवा तंत्र को मजबूत करना है तो इसके लिए जरुरी कदम उठाने होंगे। पहला कदम यह होना चाहिए कि संविधान में संशोधन करके स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया जाए।
दूसरा यह कि स्वास्थ्य सेवा तंत्र के बजटीय आवंटन को जीडीपी के तीन प्रतिशत तक बढ़ाया जाए। अंत में स्वास्थ्य देखभाल विनियमन, निगरानी, जवाबदेही, मानक सेटिंग और सूचना विषमताओं को कम करने के लिए एक निकाय का निर्माण हो। अगर मौजूदा सरकार द्वारा यह तीन कदम उठाएं जाए तो देश के हर वर्ग के व्यक्ति के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा की व्यवस्था को सुनिश्चित किया जा सकता है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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