सम्पादकीय

कोरोना महामारी: लड़ाई वैकल्पिक नहीं, अनिवार्य है

Gulabi
11 May 2021 6:58 AM GMT
कोरोना महामारी: लड़ाई वैकल्पिक नहीं, अनिवार्य है
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हमारी क्षुद्रताएं सामने आ गई हैं। आस-पड़ोस में कोई बुजुर्ग मरता है, तो पड़ोसी अपने खिड़की-दरवाजे बंद कर लेते हैं

हमारी क्षुद्रताएं सामने आ गई हैं। आस-पड़ोस में कोई बुजुर्ग मरता है, तो पड़ोसी अपने खिड़की-दरवाजे बंद कर लेते हैं। घर वाले किसी तरह शव को एंबुलेंस तक पहुंचाते हैं। कोरोना इंसान को ही नहीं, रिश्तों को भी संक्रमित कर रहा है। आदमी के साथ रिश्तों की भी मौत हो रही है। संक्रमित होते ही अपने पराये हो जा रहे हैं। रिश्तों की परिभाषा ही बदल गई है। भयानक संकट के इस दौर में समाज की सारी विद्रूपताएं पूरी नंगई से चौतरफा उग आई हैं। जीवन के मायने बदल गए हैं। मौत सिर्फ अंकगणित हो गई है। हमारी संवेदनाएं मर गई हैं। लोगों का असमय जाना भी अब पथराये मन को परेशान नहीं करता। लगता है, कोरोना के बाद की दुनिया और भयावह होगी।

इस शताब्दी की शुरुआत से हम पानी के लिए लड़ रहे थे। अब हवा के लिए जंग हो रही है। हवा की भी कालाबाजारी हो रही है। कफन के चोर तो दिल्ली में पकड़े ही गए। दवाएं ब्लैक में मिल रही हैं। बूढ़े मां-बाप अगर इस महामारी से बच भी गए, तो बच्चे उन्हें घर ले जाने को तैयार नहीं हैं। मरने वालों के परिजन उनका शव लेने नहीं आ रहे। भरा-पूरा परिवार होने के वावजूद व्यक्ति का अंतिम संस्कार लावारिस की तरह हो रहा है। अस्पताल की जगह श्मशान का विस्तार हो रहा है। एक आत्मीय के जाने के आंसू रुकते नहीं, तब तक दूसरे की खबर आती है।
लग रहा है, हम एक बड़े श्मशान में बैठे हैं, जो इसके बाद हवा-पानी के लिए युद्धभूमि में तब्दील होगा। सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। तस्वीर भयावह है। हैदराबाद के एक अस्पताल के कोरोना वार्ड में पैंतीस मरीज ठीक हो गए। पर उनके परिजन-रिश्तेदार उन्हें लेने नहीं आए, क्योंकि घर में छोटे बच्चे हैं, परिवार जोखिम नहीं लेना चाहता। मथुरा के गोवर्धन में एक बेटी बुखार से मृत अपने पिता की अर्थी को कंधा देने के लिए गुहार लगाती रही, बिलखती रही, पर पड़ोसियों ने दरवाजे बंद कर लिए। अंतत: पुलिस ने अंतिम संस्कार कराया। देश के नामचीन पत्रकार रहे एसपी सिंह के भतीजे चंदन प्रताप सिंह की लखनऊ में कोरोना से मौत हुई।
गोमतीनगर के उनके घर में उनकी कोरोना से मृत देह बैकुंठ धाम में विलीन होने के लिए चार कंधों का इंतजार करती रही, पर कोई नहीं आया। आखिरकार पुलिस ने अंतिम संस्कार किया। समूची दुनिया को एक कुटुंब मानने वाले इस देश में रिश्तों पर कोरोना भारी पड़ रहा है। आज नहीं, तो कल कोरोना चला जाएगा। पर जो छोड़ जाएगा, उसमें हमारी प्रकृति बदल जाएगी। समाज बदल जाएगा। हमारी संवेदनाएं बदल जाएंगी। रिश्ते बदल जाएंगे। एक विचार है कि कोरोना के आगे सरकारें फेल हो गई हैं। सरकार और सिस्टम पर सवाल उठाना आपका हक है। पर यह भी सोचिए कि सरकार क्या कर लेगी, मंत्री क्या
कर लेंगे, मशीनरी क्या कर लेगी, जब समाज की संवेदनाएं ही मर गई हैं? इस कोविड काल में समाज नंगा हो गया है। कोई कोशिश नहीं होती कि सुरक्षित रहते हुए दुखी, लाचार, बेसहारा के साथ खड़े हुआ जाए। आखिर डॉक्टर और पुलिस वाले तो अपने काम को अंजाम दे ही रहे हैं। मत भूलिए, सरकार भी इसी समाज का हिस्सा है।
जितेंद्र सिंह शंटी कोरोना काल में दिल्ली में लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार कराने के अभियान में जुटे हैं। शंटी ने जो बताया, वह दंग करने वाला था। उनके मुताबिक, उन्होंने पिछले एक महीने में अब तक जिन 1,352 शवों का अंतिम संस्कार किया है, उनमें 153 ऐसे थे, जिन्हें लोग श्मशान घाट के दरवाजे पर छोड़ आए थे। यह है समाज के भीतर ध्वस्त हो चुकी संवेदनाओं की विचलित करने वाली तस्वीर। कोई कोविड होने पर अपने किरायेदार को घर से बाहर निकाल रहा है। कोई दवाएं और सिलिंडर ब्लैक कर रहा है। कोई बेटा अपने बाप के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो रहा। कितने ही बड़े लोग अपने परिजनों के बिना अंतिम गति को प्राप्त कर रहे हैं। क्या समाज की आत्मा मर गई है?
हम अपने इर्द-गिर्द ऐसे ही संवेदनहीन लोगों से घिरे हैं। जब समाज ऐसा अमानवीय व्यवहार कर रहा हो, तो उसे नियंत्रित करने वाला तंत्र कैसे मानवीय हो सकता है? कैसे तय होगी तंत्र की जवाबदेही? उस महान संस्कृति को याद रखिए, जिसके हम ध्वजवाहक हैं। मृत्यु के भय से निकलना होगा। वह तो आनी ही है। पर तब तक हम यह तो समझें कि इस दुनिया में हम क्यों आए थे? यह महामारी किसी एक के बस की नहीं। विषाणु रक्तबीज की तरह खुद को फैला रहा है। उससे लड़ने वाले तंत्र को भी उतना ही विशाल बनाना होगा। वह बनेगा हमारे आपके साथ खड़े होने से। एक दूसरे की मदद करने से। यह सही है कि सरकारें जिम्मेदार होती हैं। उनसे उस वक्त बात करिएगा, जब वोट देने का समय आए। अभी इसी सरकार और इसी तंत्र की मदद से लड़ाई लड़नी होगी। पहले हम खुद को बदलें, तभी व्यवस्था बदलेगी।
कोरोना महामारी ने हमें सोचने को मजबूर कर दिया है कि हमारी जरूरत अस्पताल है या मंदिर-मस्जिद। समूची दुनिया में मंदिर, मस्जिद, चर्च बंद हो गए। केवल अस्पताल ही खुले रहे। इस पर भी अगर हम समझने को तैयार नहीं हैं, तो शवों की अंतहीन यात्रा चलती रहेगी। हम सभ्यता का मरना देखेंगे। पहाड़-सी विपत्ति के बाद भी आपसी कटुता महामारी की तरह बढ़ रही है। फेसबुक, ट्विटर देखिए, तो असहिष्णुता इस विपदा में भी कम नहीं हुई है। कोई विचारधारा को गाली दे रहा है, तो कोई सिस्टम को। समझ में नहीं आ रहा कि इस सिस्टम का माई-बाप कौन है!
मित्रों, हम बचेंगे, तो विचार बचेगा, तभी विचारधारा बचेगी। पहले खुद को तो बचा लीजिए, फिर जनतंत्र की सोचिएगा। वाम-दक्षिण-मध्य का निपटारा भी तब हो जाएगा। यह वक्त आपसी तनाव का नहीं, एकजुट होकर लड़ने का है। हमने प्रलय झेला है। उसके बाद फिर मनुष्यता उठी और खड़ी हुई। हम इस विपत्ति से भीनिकलेंगे। मनुष्य की जिजीविषा का कोई तोड़ नहीं है। कुंवर नारायण लिख गए हैं, कोई भी दुख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं, वही हारा जो लड़ा नहीं। इस बार भी लड़ाई वैकल्पिक नहीं, अनिवार्य है। मनुष्यता ने इससे भी बड़े संकट देखे हैं। मनुष्यता की जीत नियति की जीत है और वह होकर रहेगी, मगर संवेदनाओं को जिंदा रखने की जिम्मेदारी हमारी है।
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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