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टीकों से कतराते विकसित देश
पिछले तीन हफ्ते से स्विट्जरलैंड में हूं। लगभग दो साल बाद आई हूं। कोविड के डर और एअरलाइंस बंद होने के कारण कहीं निकलना ही नहीं हुआ। इस मौसम में पहली बार इस यात्रा में इतनी बर्फ देखी है। लंबे छतनार पेड़, दूर तक फैली काली सड़कें, घर के आंगन-सब संगमरमरी दिखाई देते हैं।
क्रिसमस की तैयारियां जोरों पर हैं। हर ओर रंग-बिरंगी रोशनियां अपने पास बुला रही हैं। लेकिन कोरोना के दोबारा फैलने से डर का माहौल भी है। कहां तो यह सोचकर आई थी कि यहां भीड़भाड़ कम है, तो वैसा भय नहीं होगा। लेकिन यहां कोरोना नए सिरे से फैल रहा है। इस बार यह बड़ी संख्या में बच्चों को चपेट में ले रहा है।
स्कूल बंद कभी हुए ही नहीं हैं, इसलिए अधिकतर स्कूल जाने वाले बच्चे इसे अपने साथ लेकर आ रहे हैं। यही नहीं, एक आफत यह भी है कि यहां स्विट्जरलैंड में चालीस प्रतिशत लोगों ने टीका ही नहीं लगवाया है।
बहुत से लोग धार्मिक कारण से टीका नहीं लगवा रहे हैं, तो बहुत से ऐसे भी हैं, जिनके मन में टीका लगाने का डर समाया हुआ है। वे समझते हैं कि न जाने उनके शरीर पर इस टीके का क्या असर हो, क्योंकि अभी तक ऐसे अध्ययन शायद हुए ही नहीं हैं कि कोरोना के विभिन्न टीकों का असर मनुष्य के शरीर पर क्या होता है? इसके दुष्प्रभाव क्या हैं? यहां जिन लोगों ने टीके लगवाने को प्राथमिकता नहीं दी है, वे ही सुपरस्प्रेडर भी हैं।
वैज्ञानिकों और डॉक्टरों का कहना है कि अगर कोरोना से बचना है, तो टीके के अलावा कोई विकल्प भी नहीं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि यहां तो अधिकांश लोग पढ़े-लिखे हैं। हर सुख-साधन मौजूद है। साफ-सुथरा, प्रदूषण रहित। आर्थिक संपन्नता को इस तरह समझ सकते हैं कि स्विट्जरलैंड की अर्थव्यवस्था को सरप्लस इकनॉमी कहा जाता है। इसीलिए यहां के बैंक आपके पैसे पर ब्याज देते नहीं, उल्टे आपके पैसे की सुरक्षा के बदले में आपसे पैसे लेते हैं।
नागरिकों की सुविधा की तमाम गारंटी यहां हैं। श्रम कानून इतने सख्त हैं कि आसानी से किसी को नौकरी से नहीं निकाला जा सकता। ऐसे में टीके के प्रति यहां के लोगों की उदासीनता चकित करती है, वह भी तब, जब यहां की आबादी सिर्फ 70 लाख है।
इससे अच्छा तो भारत ही है, जहां टीके को लेकर लोगों के मन में ऐसी कोई दुविधा नहीं देखी गई, जैसी यहां के लोगों के मन में है। यही कारण है कि भारत में टीके लगवाने वालों की संख्या लगभग डेढ़ सौ करोड़ तक जा पहुंची है। न ही हमारे यहां लॉकडाउन लगाने के खिलाफ ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया आदि देशों की तरह विरोध प्रदर्शन हुए हैं।
फिर भी तथाकथित विकसित देशों का मीडिया हमें पिछड़ा, अविकसित, अंधविश्वासी आदि न जाने कितनी तरह की उपाधियों से नवाजता है। और सिर्फ स्विट्जरलैंड ही क्यों, दुनिया भर में टीके को लेकर लोगों के मन में संशय है। तभी तो जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, सऊदी अरब, इंडोनेशिया आदि देशों की सरकारें अपने-अपने लोगों को चेता रही हैं।
जल्द से जल्द टीका लगवाने की सलाह दे रही हैं। तमाम तरह के दंडामक प्रावधान कर रही हैं। हाल ही में गूगल जैसी कंपनी ने कहा कि उसके कर्मचारी यदि जल्द से जल्द टीका नहीं लगवाएंगे, तो उन्हें एक महीने के सवैतनिक अवकाश पर भेजा जाएगा। अगर तब भी वे नहीं माने, तो उन्हें छह महीने के अवकाश पर भेजा जाएगा और उस दौरान वेतन नहीं मिलेगा। अगर फिर भी कोई कर्मचारी तैयार नहीं हुआ, तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाएगा।
हैरानी इस बात की भी होती है कि जिन देशों को वैज्ञानिक विकास का पुरोधा माना जाता है, जिनके उदाहरण दे-देकर हमारे यहां ही बहुत से लोग नीचा दिखाते हैं, अब वे बताएं कि इस मामले में आखिर कौन-सा उदाहरण प्रस्तुत करेंगे?
इन देशों के बारे में पढ़-सुनकर अपने देश पर गर्व होता है, जहां लोगों को अपने स्वास्थ्य की चिंता तो है ही, इस बात की चिंता भी है कि संक्रमण उनसे किसी और को न लग जाए, इसलिए जल्द से जल्द इस बीमारी से निजात पाने के लिए वे टीके लगवा रहे हैं। वर्ना तो डेढ़ सौ करोड़ के आसपास का आंकड़ा छूना ही मुश्किल था।
अमर उजाला
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