सम्पादकीय

ग्लासगो में कॉप-26 सम्मेलन: जलवायु संकट से उठते सवाल

Neha Dani
30 Oct 2021 1:52 AM GMT
ग्लासगो में कॉप-26 सम्मेलन: जलवायु संकट से उठते सवाल
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धीरे-धीरे पहाड़ कमजोर होते और ढहते हैं और अंत में आपदा का कारण बनते हैं।

एक साल की देरी के बाद ग्लासगो में 26वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप-26) शुरू हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस सम्मेलन में हिस्सा लेंगे। भारत ग्लासगो में कॉप-26 में 'जलवायु न्याय' के लिए जोर दे रहा है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती दो मोर्चों पर है- पहली बाहरी, भू-राजनीतिक क्षेत्र और दूसरी, देश के भीतर। जलवायु परिवर्तन अब दूर नहीं है, उसका असर हो रहा है।

यदि जलवायु परिवर्तन के सबसे महत्वपूर्ण संकेतक-तेजी से अनिश्चित एवं चरम मौसम की रोकथाम के लिए हम विकास मॉडल में बदलाव नहीं लाते हैं, तो हम हार जाएंगे और इससे सबसे ज्यादा गरीब लोग प्रभावित होंगे। भले ही हम सैकड़ों मील दूर हैं, फिर भी हम सबने उत्तराखंड में आई विनाशकारी बाढ़ और उससे हुई तबाही के भयावह दृश्य देखे हैं।
दर्जनों लोग अपनी जान गंवा चुके, कई पुल बह गए, काठगोदाम के पास रेल पटरी मुड़ गई, उफनती नदियों ने घरों को लील लिया और भूस्खलन के चलते सड़कें बाधित हो गईं। ऐसी भयावह तस्वीरें देश के सिर्फ एक राज्य से नहीं आईं। केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, सिक्किम के कुछ हिस्सों और पश्चिम बंगाल की पहाड़ियों में हाल के दिनों में भारी वर्षा हुई, जिससे बाढ़ और भूस्खलन के कारण लोगों की जान चली गई।
भले ही हमारी सहज प्रतिक्रिया शोकपूर्ण और भयावह है, लेकिन ये सब अप्रत्याशित नहीं हैं। उदाहरण के लिए, पश्चिमी घाट में पिछले कुछ वर्षों में ऐसी आपदाएं बार-बार आती रही हैं। हिमालय में भी, हमने पिछले 50 वर्षों में इस तरह की बाढ़ के उदाहरण देखे हैं, जैसा कि प्रख्यात पारिस्थितिकी विशेषज्ञ माधव गाडगिल ने हाल ही में एक साक्षात्कार में बताया है।
पारिस्थितिक वास्तविकताओं और जलवायु परिवर्तन के कठोर प्रभावों की अनदेखी करने वाले विकास मॉडल का चुनाव उन आपदाओं के केंद्र में है, जो अधिक आवृत्ति और तीव्रता के साथ आ रही हैं। गाडगिल और कई अन्य पर्यावरणविद लंबे समय से हमें पश्चिमी घाट और संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध निर्माण के खिलाफ आगाह कर रहे हैं।
लगभग एक दशक पहले, गाडगिल की अध्यक्षता में केंद्र सरकार द्वारा स्थापित पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल ने सिफारिश की थी कि गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और केरल तक फैले पश्चिमी घाट के 1,29,037 वर्ग किमी में से 75 फीसदी हिस्से को घने, समृद्ध जंगलों और बड़ी संख्या में स्थानीय वनस्पतियों और जीवों के कारण 'पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र' घोषित किया जाए। लेकिन पैनल की सिफारिशों को अमल में नहीं लाया गया।
पश्चिमी घाटों के संरक्षण पर माधव गाडगिल की रिपोर्ट वर्ष 2011 में केंद्र सरकार को सौंपी गई थी, जिसका केरल में बारिश से संबंधित आपदाओं के संबंध में हर साल जिक्र किया जाता है। गाडगिल रिपोर्ट में पूरे घाटों को सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में किसी भी विकास गतिविधि को प्रतिबंधित करने वाली संवेदनशीलता की त्रि-स्तरीय रैंकिंग के साथ पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र के रूप में नामित करने के लिए कहा गया था।
सभी संबंधित छह राज्यों द्वारा गाडगिल समिति की सिफारिशों को खारिज करने के बाद केंद्र सरकार द्वारा गाडगिल के उत्तराधिकारी के रूप में एक अन्य समिति की स्थापना की गई, जिसने ज्यादा उदार सिफारिशें कीं। आखिरकार 9,993 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र (राज्य के कुल क्षेत्रफल के एक चौथाई से अधिक) को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील घोषित किया गया।
उत्तराखंड और कई अन्य पहाड़ी राज्यों में, हम देखते हैं कि पारिस्थितिकी और स्थलाकृति पर विचार किए बिना विकास और आर्थिक गतिविधियों को प्राथमिकता दी जाती है। हर जगह पनबिजली परियोजनाएं, पहाड़ियों के बीच सुरंग बनाना, नदियों का अतिक्रमण, बाढ़ के मैदानों पर निर्माण कार्य दिखते हैं। इसलिए हम आपदाओं से घिरे हुए हैं, क्योंकि बिगड़ता जलवायु संकट (भारी बारिश सहित लगातार अनिश्चित मौसम के साथ) भूमि के असतत (अनसस्टेनेबल) उपयोग के साथ आता है।
पर्यावरणविद बताते हैं कि इस साल अगस्त में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में एक राष्ट्रीय राजमार्ग पर हुए भूस्खलन ने इस क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी को बहुत प्रभावित किया है, जो मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन और बिजली परियोजनाओं के अबाध निर्माण से कमजोर हो गया है। ऐसे कई उदाहरण हैं। दुनिया भर में अनौपचारिक बस्तियों के विस्तार, बिगड़ते पारिस्थितिक तंत्र से लेकर ग्रामीण आजीविका पर बढ़ते खतरे सहित कई कारणों से आपदाओं का जोखिम बढ़ रहा है।
यह सब जलापूर्ति, कृषि और जैव विविधता पर इसके बुरे प्रभाव के साथ जलवायु परिवर्तन के खतरे से बढ़ा है। ऐसे में हम क्या कर सकते हैं? विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के बढ़ते संकट के साथ ये खतरे काफी हद तक अपरिहार्य हैं। वे तभी आपदा बनते हैं, जब समुदायों की मुकाबला करने की प्रणाली उनके प्रभावों का प्रबंधन करने में असमर्थ होती है। इसलिए दुनिया के सबसे गरीब और सबसे कमजोर लोग आपदाओं के दौरान सर्वाधिक जोखिम झेलते हैं।
आपदाएं न केवल लोगों के जीवन और परिवारों को नष्ट कर देती हैं, बल्कि कम संसाधन वाले समुदायों के विकास पर उनका अत्यधिक बुरा प्रभाव पड़ता है। हमें यह भी समझना चाहिए कि आपदा केवल एक बार की कहानी नहीं है। आपदाएं विकास को बाधित करती हैं और ये व्यवधान आजीविका, स्वास्थ्य, शिक्षा, लैंगिक गतिशीलता और अन्य क्षेत्रों पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकते हैं।
आपदा और विकास के बीच करीबी संबंध होता है। आपदाएं विकास संबंधी पहल को बर्बाद कर सकती हैं और विकास के अवसरों को पैदा भी कर सकती हैं। विकास योजनाएं संवेदनशीलता को बढ़ा और घटा भी सकती हैं। आपदाएं विकास पहल को वर्षों पीछे कर देती हैं, जैसे बाढ़ के चलते परिवहन और उपयोगिता तंत्र नष्ट हो जाते हैं। आपदाएं बेहतर तरीके से निर्माण करने या चीजों को सही करने का अवसर भी देती हैं।
आपदा के बाद पुनर्निर्माण विकास कार्यक्रम शुरू करने के लिए महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। हमें उन विकास मॉडलों की समीक्षा करनी चाहिए, जो आपदाओं को बढ़ा रहे हैं। तथाकथित विकास के नाम पर विनाशकारी गतिविधियों के बीच की कड़ी को रेखांकित करना महत्वपूर्ण है, जैसे पहाड़ियों को काटते हुए सड़क बनाने की परियोजना गलत है, क्योंकि इससे धीरे-धीरे पहाड़ कमजोर होते और ढहते हैं और अंत में आपदा का कारण बनते हैं।

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