सम्पादकीय

ज्ञान का समन्वय

Subhi
11 Dec 2022 10:36 AM GMT
ज्ञान का समन्वय
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एक वैदिक ऋचा में ‘सभी दिशाओं से आने वाले ज्ञान के प्रति अपनी खिड़कियां खुली रखने’ के लिए कहा गया है। परंपरा के विकास के लिए यह जरूरी है। वह ज्ञान जिसे हमने अर्जित किया है, वह अन्यों द्वारा अर्जित ज्ञान के संपर्क से प्रयोगशील होकर मौलिक दिशाओं में विकास करता है।

विनोद शाही: एक वैदिक ऋचा में 'सभी दिशाओं से आने वाले ज्ञान के प्रति अपनी खिड़कियां खुली रखने' के लिए कहा गया है। परंपरा के विकास के लिए यह जरूरी है। वह ज्ञान जिसे हमने अर्जित किया है, वह अन्यों द्वारा अर्जित ज्ञान के संपर्क से प्रयोगशील होकर मौलिक दिशाओं में विकास करता है।

वेदों के बाद ब्राह्मणकाल, 'शतपथ' यानी सौ रास्ते खुले रखने को अपना शास्त्र बनाता है। उपनिषद वैदिक ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगा कर विकास के नए रास्ते खोजते हैं। यह स्थिति बौद्ध, जैन, सांख्य, न्याय, योग आदि दर्शनों के खुल कर सवाल उठाते रहने के हालात के कारण विकासमान दिखाई देती है।

यही वजह है कि मध्यकाल में इस्लाम के आने के बाद भी हम सांस्कृतिक तल पर संवाद के लिए खुले रहते हैं। तो, कायदे से होना तो यह चाहिए था कि अंग्रेजी के वर्चस्व-काल में भी हम, पश्चिम के ज्ञान के स्रोतों के साथ, अपना संवाद जारी रखते, प्रयोगशील होने का परिचय देते और पूर्ववत ज्ञान के विकास के रास्ते पर आरूढ़ दिखाई देते। यह हिंदी के ज्ञान और व्यवहार की भाषा की तरह विकसित होने की आदर्श स्थिति होती। पर हालात इसके उलट हैं।

हिंदी को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया गया है कि वह अंग्रेजी के साथ ज्ञानात्मक संवाद करने की हालत में नहीं रह गई है। वजह यह है कि सांस्कृतिक तल पर उसके प्रयोगशील होने की संभावना को सांप्रदायिक विभाजन ने नष्ट कर दिया है। अब वह आत्मविकास करने के बजाय, आत्मरक्षा में उलझी रह कर अपना समय गंवा रही है।

उसके पास ज्ञान-मूलक विकास की संभावना पर आगे बढ़ने के बजाय, जो रास्ता खुला रह गया है, वह संख्याबल के अहंकार में फूले न समाने का है। वह विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा तो हो सकती है, पर ज्ञान के तल पर समृद्ध भाषाओं की सूची में उसका स्थान कितना संदेहास्पद है, इस पर अब कोई बात नहीं होती।

इससे जुड़ी दूसरी समस्या हिंदी के 'व्यवहार की भाषा' होने की है। व्यवहार के दो पक्ष हैं। एक का संबंध उसके 'संपर्क भाषा' होने से है और दूसरे का 'रोजगार संबंधी दक्षता' का है। संपर्क भाषा के रूप में हिंदी की स्थिति भारत की अन्य तमाम भाषाओं के मुकाबले बहुत बेहतर है।

पर दक्षता से ताल्लुक रखने वालों (स्किल्ड लेबर) के लिए, अंग्रेजी की मार्फत पाया जाने वाला ज्ञान पर्याप्त होता है। हालांकि वह ज्ञान की सबसे निचली पायदान वाला 'सूचनात्मक ज्ञान' अधिक होता है। ज्ञान के उच्चतर रूप वे हैं, जो जीवन के सभी पक्षों का विकास करने में समर्थ होते हैं। उनका संबंध नैतिक और मानवीय मूल्यों से होता है।

पर हमारे यहां हालात ऐसे हो गए हैं कि नैतिक और मानवीय मूल्यों के संदर्भ में हम उस हिंदी की ओर देखते हैं, जो सांस्कृतिक तल पर विभाजित है। वहां वह हमें अब प्रयोगशील, मौलिक और उदार बनाने का काम नहीं करती। वह हमें ऐसे संस्कारों की मर्यादा में बांधती है, जो सांप्रदायिक विभाजन के करण, आत्म-रक्षात्मक, उग्र और अन्यों के प्रति घृणा और हिंसा के भावों वाले होते हैं। इसका परिणाम यह निकलता है कि सूचनात्मक दक्षता वाला वर्ग अगर आत्मा से रहित मालूम पड़ता है, तो संस्कारशील भाषा-व्यवहार उसे कट्टर और आत्म-ग्रस्त बनाने लगते हैं।

कुछ लोग इस संदर्भ में प्रांतीय भाषाओं की वकालत करने लगते हैं और कुछ लोग अंग्रेजी से चिपक जाते हैं। वे हिंदी में एक अलग तरह की साम्राज्यवादी मानसिकता के लक्षण खोजने लगते हैं। इसकी प्रतिक्रिया में हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन देखने वाला समाज, अंग्रेजी के विरोध में खड़ा दिखाई देने लगता है। वह अंग्रेजी के आधार पर प्रभुत्व पाने वालों में औपनिवेशिक मानसिकता के लक्षण देखता है।

इस तरह हिंदी और अंग्रेजी, आमने-सामने आ जाती हैं। दोनों ओर के लोग अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए, प्रांतीय भाषाओं के साथ पूरक संबंध बनाने लगते हैं। दक्षिण में इसके उलट प्रांतीय भाषाएं उनकी भारतीयता का और अंग्रेजी उनके वैश्विक होने का आधार बन जाती है। इस परिदृश्य को देख कर लगता है कि हम भाषा के मामले में अभी तक औपनिवेशिक दौर की विभाजनकारी मानसिकता को ही ढोने में लगे हैं।

अब हम पूछ सकते हैं कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के सवाल को लेकर विभाजनकारी मानसिकता के सक्रिय होने और प्रतिक्रियावादी होने से निजात कैसे मिल सकती है? इसका जवाब यह है कि इस मानसिकता की जड़ें जिस राष्ट्रवाद में हैं, हमें उसका परित्याग करना होगा और एक दफा फिर से समावेशी भाषा नीति को उदारमना होकर अपनाना होगा। समावेशन के लिए आधारभूत भाषा वही हो सकती है, जो सर्वाधिक प्रयोगशील हो। बेशक आजादी की लड़ाई के दौर से लेकर अब तक, सिवाय हिंदी के और कोई भाषा इतनी प्रयोगशील दिखाई नहीं देती।

हिंदी तो खड़ी बोली के रूप में विकसित ही तब हुई, जब वह समावेशी प्रयोगशीलता के रास्ते पर चल दी। हमें हिंदी को फिर से उसी रास्ते पर लाना होगा। यहां सवाल है कि अंग्रेजों के यहां से रुखसत हो जाने के बाद क्या अंग्रेजी का चरित्र, हमारे लिए किसी रूप में बदलता है या नहीं? जब तक भारत पर मुगल शासन था, उर्दू से दुश्मनी का कुछ अर्थ था।

पर तब हमारा सांस्कृतिक तल पर विभाजन नहीं हुआ था, इसलिए हमारे ज्ञानमार्गियों ने प्रयोगशील बने रहने में कामयाबी पाई थी। पर जब अंग्रेजी हुकूमत हमारे यहां से चली गई, तब भी हिंदी और अंग्रेजी के समावेशन का रास्ता अवरुद्ध ही रहा। वजह यह थी कि अब हम सांस्कृतिक तल पर विभाजित थे।

हमारे सिर पर सवार था राष्ट्रवाद का भूत, जिसकी काया यूरोप में गठित हुई थी। वह अपनी विभाजनकारी सोच की वजह से, यूरोप को दो विश्वयुद्धों की ओर ले गई थी। विश्वयुद्धों से यूरोप ने तो सबक सीख लिया और अपने राष्ट्रवाद को लचीला बना कर वह अपने यहां बहुभाषी समावेशन के रास्ते पर आगे बढ़ गया।

आज हम हिंदी वाले इस बात पर गौरव का अनुभव करते हैं कि अमेरिका में अंग्रेजी और स्पेनिश के बाद, हिंदी ही नहीं, पंजाबी को भी राज्य की व्यवहार-भाषा जैसी मान्यता मिली हुई है। बहुभाषिता, विकसित देशों में, राष्ट्रवादी चेतना के आड़े आने वाली वस्तु नहीं रह गई है।

पर हम हिंदी-उर्दू के समन्वित रूप और उसके सह समांतर अंग्रेजी की मौजूदगी को लेकर संशय ग्रस्त नजर आने लगते हैं। लगता है कि इससे हिंदी के हीन बने रहने के हालात बने रहेंगे और वह कभी राष्ट्रभाषा नहीं बनेगी। हमें अपनी इस संकीर्ण सोच को छोड़ना होगा। मौजूदा दुनिया के ज्ञान-गर्भित विकास का हमसफर होने के लिए बहुभाषी होना जरूरी होता जाता है।

हमारा एक बहुभाषी राष्ट्र के रूप में जिस तरह का विकास हो रहा है, उसका फायदा आखिरकार हिंदी को ही होगा, बशर्ते हम उसे हिंदुस्तानी की तरह स्वीकार करते हुए अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान के नए स्रोतों से संवाद करते रहने के लिए तैयार हों।


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