सम्पादकीय

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा है मतांतरण: ईसाई और इस्लामिक देशों द्वारा अपना प्रभाव बढ़ाने के प्रयासों का हिस्सा है मतांतरण

Triveni
10 July 2021 7:16 AM GMT
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा है मतांतरण: ईसाई और इस्लामिक देशों द्वारा अपना प्रभाव बढ़ाने के प्रयासों का हिस्सा है मतांतरण
x
पिछले दिनों एक बड़े मतांतरण रैकेट का पता चला। इस्लामिक दावा सेंटर के साये में चल रही मतांतरण की इस मुहिम में लगे इस्लामिक कट्टरपंथियों ने सैकड़ों की संख्या में मूक-बधिरों तक का मतांतरण करा डाला।

भूपेंद्र सिंह| पिछले दिनों एक बड़े मतांतरण रैकेट का पता चला। इस्लामिक दावा सेंटर के साये में चल रही मतांतरण की इस मुहिम में लगे इस्लामिक कट्टरपंथियों ने सैकड़ों की संख्या में मूक-बधिरों तक का मतांतरण करा डाला। मतांतरण में लिप्त लोग 'दावा' की उसी इस्लामी संकल्पना पर काम कर रहे थे, जिसे आगे बढ़ाने के लिए हाफिज सईद जमात उद दावा चलाता है। यह चौंकाने वाला रहस्योद्घाटन इस ओर इंगित करता है कि मतांतरण के अंतरराष्ट्रीय अभियान से जुड़ी संस्थाएं समाज के उन वर्गों का भी गहराई से सर्वेक्षण करती रहती हैं, जिनकी ओर आम जनमानस और सरकारों का ध्यान कम ही जाता है। यह पूरा मामला यह भी दिखाता है कि मतांतरण को अपना मिशन बनाने वाली संस्थाएं मूक-बधिर, दिव्यांग और अनाथ बच्चों के बीच में जो भी काम करती हैं, वह मानवीयता से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपने मत-मजहब के अनुयायियों की संख्या थोक के भाव बढ़ाने के मकसद से करती हैं। इस्लामिक दावा सेंटर को विदेशी फंडिंग मुहैया कराने वाली कई संस्थाएं तथाकथित रूप से शिक्षा के क्षेत्र में काम करती हैं, लेकिन मतांतरण से जुड़े प्रश्न यहीं तक सीमित नहीं हैं।

हिंदू धर्म छोड़ने वाला व्यक्ति अपने मूल धर्म के प्रति शत्रुता का भाव रखने लगता है
मतांतरण रैकेट का मास्टरमाइंड उमर गौतम नामक एक व्यक्ति स्वयं पहले हिंदू धर्म से इस्लाम में मतांतरित हुआ था। उसके बाद उसने जो कुछ किया, वह स्वामी विवेकानंद के भारतीय परिप्रेक्ष्य में मतांतरण पर दिए उस वक्तव्य को ही चरितार्थ करता है कि हिंदू धर्म छोड़कर जाने वाला व्यक्ति अपने मूल धर्म के प्रति शत्रुता का भाव रखने लगता है। इस शत्रुता भाव ने भारत के इतिहास में नृशंस नरसंहारों से लेकर देश के बंटवारे तक को घटित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दक्षिण भारत के मंदिरों को ध्वस्त करने वाले मलिक काफूर से लेकर मजहब के नाम पर देश का विभाजन कराने वाले मोहम्मद अली जिन्ना तक इसके असंख्य उदाहरण हैं। आज भी कश्मीर में बड़े आतंकी कमांडरों के हिंदू उपनाम बताते हैं कि उनके पूर्वजों का मतांतरण कुछ पीढ़ी पहले ही हुआ है। पूर्वोत्तर भारत में दशकों से सक्रिय एनडीएफबी, एनएलएफटी जैसे उग्रवादी संगठन पूरी तरह ईसाई कट्टरपंथी संगठन ही हैं। इन प्रदेशों का ईसाईकरण और इन अलगाववादी आंदोलनों का जन्म साथ-साथ हुई घटनाएं हैं। मध्य भारत के नक्सल प्रभावित भागों में भी ईसाई मिशनरी बेहद सक्रिय हैं। ऐसे में मतांतरण के राष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव को भला कैसे नकारा जा सकता है, विशेषकर भारत जैसे देश में, जिसका मजहब के आधार पर विभाजन हुए सात दशक ही बीते हों। आखिर भारत इतने योजनाबद्ध तरीके से कराए जा रहे मतांतरण को कैसे नजरअंदाज कर सकता है?
इस्लामिक कट्टरपंथ: कश्मीर से हिंदुओं को भागना पड़ा, ईसाई कट्टरपंथ: मिजोरम से हिंदू पलायन
आखिर भारत के वही प्रदेश अलगाववादी मुहिम के चलते हिंसाग्रस्त क्यों हैं, जहां पिछली कुछ सदियों में बड़े पैमाने पर मतांतरण हुआ? स्वतंत्र भारत का इतिहास यह पाठ पढ़ाता है कि देश में दो बार बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन हुआ। एक बार 1990 में इस्लामिक कट्टरपंथ के चलते कश्मीर से हिंदुओं को सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा और दूसरी बार 1997 में रिआंग या ब्रू हिंदुओं को मिजोरम से ईसाई कट्टरपंथियों के हमलों के चलते भागना पड़ा। दोनों ही मामलों में यह पलायन लगभग स्थायी ही बन गया और ये लोग कभी वापस नहीं लौट पाए। मतलब भारत के बहुसंख्यक समाज को उन प्रदेशों से पलायन करना पड़ा, जहां पिछले कुछ सौ वर्षों में बड़े पैमाने पर मतांतरण के चलते वे अल्पसंख्यक हो गए थे।
मतांतरण ईसाई और इस्लामिक देशों द्वारा अपना प्रभाव बढ़ाने के प्रयासों का हिस्सा
भारत विश्व का अकेला देश है, जहां अल्पसंख्यक मतों के लोग मतांतरण अभियान चलाने का संवैधानिक अधिकार बनाए रखना चाहते हैं और बहुसंख्यक मतांतरण पर रोक लगाना चाहते हैं। अन्यथा स्वाभाविक प्रक्रिया यह होती है कि अपने अनुयायियों को बहुसंख्यकों द्वारा मतांतरण कराए जाने से बचाने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय मतांतरण पर प्रतिबंध की मांग किया करते हैं, जो स्वाभाविक भी है। यह सामान्य समझ की बात है कि विदेश से मतांतरण कराने के लिए अरबों रुपये यूं ही कोई क्यों भेजेगा? दरअसल मतांतरण ईसाई और इस्लामिक देशों द्वारा अपना प्रभाव बढ़ाने के प्रयासों का हिस्सा है और अक्सर भूराजनीतिक बिसात पर इसका उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए नेपाल में पैर पसारते माओवाद और उसके माध्यम से बढ़ते चीनी प्रभाव को कम करने के लिए पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियां ईसाई मिशनरियों का उपयोग करती आई हैं, जिसका असर नेपाल में बढ़ते मतांतरण और घटते भारतीय प्रभाव के रूप में दिखता है।
यूएस के तत्कालीन उपराष्ट्रपति पेंस खुश थे कि 13 करोड़ चीनी ईसाई बन चुके हैं
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बढ़ती ताकत को काबू करने के लिए पश्चिमी देश खुद चीन के भीतर ईसाई मिशनरी गतिविधियों को प्रोत्साहन देते आए हैं। कुछ वर्ष पहले अमेरिका के तत्कालीन उपराष्ट्रपति माइक पेंस ने सार्वजनिक रूप से इस पर प्रसन्नता जताई थी कि 13 करोड़ चीनी ईसाई बन चुके हैं। अमेरिकी उपराष्ट्रपति के इस व्यवहार की तुलना नेपाल के हिंदू राष्ट्र न रह जाने को लेकर भारतीय उदासीनता से देखते ही बनती है। बहरहाल यह संख्या (13 करोड़) चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की संख्या से चार करोड़ ज्यादा है और आने वाले कुछ दशकों में चीन विश्व की सबसे बड़ी ईसाई आबादी का घर बन सकता है। इससे चिंतित चीनी कम्युनिस्ट पार्टी कन्फ्यूशियस के उन आध्यात्मिक विचारों पर आधारित प्राचीन चीनी संस्कृति को पुनर्जीवित करने पर करोड़ों डॉलर खर्च करने में लगी हुई है, जिन्हें ध्वस्त करने के लिए एक समय माओ ने सांस्कृतिक क्रांति जैसा खूनी अभियान चलाया था।
दूसरे देशों में मतांतरण कराना विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा
अमेरिका के जाने माने सामरिक चिंतक रॉबर्ट कापलान लिख चुके हैं कि किस तरह अमेरिकी खुफिया एजेंसियां अमेरिकी फौज से सेवानिवृत्त हुए लोगों को ईसाई मिशनरी बनाकर उनका उपयोग म्यांमार जैसे देशों में आदिवासियों का मतांतरण कराने और उन्हें सशस्त्र संघर्ष में सहायता करने के लिए करती आई हैं। अपने चारों ओर मतांतरण के जरिये चल रहे इस भूराजनीतिक खेल की हम अनदेखी नहीं कर सकते। मतांतरण में लिप्त जिन शक्तियों से हमारा मुकाबला है उनके लिए मजहब न तो राजनीति से अलग है और न ही भू-राजनीति से। दूसरे देशों में मतांतरण कराना इन शक्तियों की विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।


Next Story