- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- मतांतरण भारत की...
मतांतरण भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा, रोकनी होगी ये मुहिम
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| तिलकराज ।हृदयनारायण दीक्षित। किसी व्यक्ति को छल, बल, भय और लोभ से मतांतरित करना मानवता के विरुद्ध अपराध है। भारत लंबे समय से इस अपराध का भुक्तभोगी रहा है। बीते दिनों यह एक बार फिर पुष्ट हुआ जब अवैध मतांतरण में संलग्न मौलाना कलीम सिद्दीकी की गिरफ्तारी हुई। इससे पहले 20 जून को अवैध मतांतरण में जुटे एक बड़े गिरोह के 10 लोग गिरफ्तार हुए थे। उसमें गिरफ्तार उमर गौतम और सहयोगियों को विदेशी संस्थाओं से करीब 57 करोड़ रुपये मिले थे, जिसका वे विवरण नहीं दे सके। इसी जांच में कलीम के गिरोह का नाम आया। उप्र पुलिस के एडीजी प्रशांत कुमार के अनुसार, सिद्दीकी भारत में सबसे बड़े मतांतरण गिरोह से जुड़ा है। वह जामिया इमाम वालीउल्ला ट्रस्ट चलाता है। ट्रस्ट के खाते में तीन करोड़ बहरीन से आए हैं।
अवैध मतांतरण सामान्य घटना नहीं है। मतांतरित व्यक्ति मूल धर्म का ही त्याग नहीं करता। उसके पूर्वज बदल जाते हैं। उसकी आस्था बदल जाती है। वह अपनी संस्कृति पर गर्व नहीं करता। नए पंथ के रीति-रिवाज अपना लेता है। उनके प्रभाव में भारत माता के प्रति निष्ठा नहीं रखता। उसकी भूसांस्कृतिक निष्ठा बदल जाती है। भूसांस्कृतिक निष्ठा ही राष्ट्र गठन का मूल है। इसीलिए मतांतरण को राष्ट्रांतरण की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार मतांतरण भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है।
इस्लाम और ईसाई विशेष मान्यता वाले मजहब हैं। दोनों अपने पंथिक विश्वास के वशीभूत पूरी दुनिया को ईसाई या इस्लामी बनाने पर आमादा हैं। ईसाई मिशनरियों ने इसके लिए दूसरी राह खोजी है। वे स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सेवाओं की आड़ में गरीबों का मतांतरण करते हैं। महात्मा गांधी ईसाई मिशनरियों के मतांतरण पर बहुत क्षुब्ध थे। उन्होंने 'हरिजन' में लिखा, 'आप पुरस्कार के रूप में चाहते हैं कि आपके मरीज ईसाई बन जाएं।' उनकी सेवा निष्काम नहीं।
डा. बीआर आंबेडकर अपने अंत:करण की अनुभूति से बौद्ध बने थे। वह धोखाधड़ी वाले मतांतरण के विरोधी थे। उन्होंने गांधी जी की टिप्पणी पर कहा, 'मिस्टर गांधी ने तर्क दिए हैं। इनका कोई खंडन नहीं करेगा, लेकिन उन्हें मिशनों से दो टूक कहना चाहिए कि अपना काम रोक दो।' अनेक ऐतिहासिक घटनाओं के हवाले से उन्होंने मतांतरण को धोखाधड़ी बताया। उन्होंने क्लोविस व इर्थलवर्ट के सहयोग से हुए बड़े मतांतरणों के साथ रूस के व्लादिमीर के ईसाई होने और भारी जनसंख्या के मतांतरित किए जाने के उदाहरण देते हुए लिखा, 'इतिहास गवाह है कि मजबूरी या धोखाधड़ी के कारण मतांतरण हुए हैं।'
मो. बिन कासिम के सिंध हमले में भी जबरन मतांतरण हुए थे। गजनी के महमूद ने भी यही किया। इस्लाम में मूर्ति-मंदिर पूजा की मनाही है। भारत में मंदिर ध्वंस का इतिहास त्रसद है। 27 मंदिरों को तोड़कर दिल्ली में कुव्वत-उल इस्लाम (इस्लाम की ताकत) मस्जिद बनी। इस्लाम की ताकत का प्रदर्शन आमजनों में डर व खौफ पैदा करने व जबरन मतांतरण के लिए हुआ।
मत, मजहब, रिलीजन और धर्म, आस्था एवं विवेक के विषय हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-25 में 'अंत:करण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता है।' हालांकि, यह स्वतंत्रता निर्बाध नहीं, लोक व्यवस्था और सदाचार के अधीन है। संविधान के मूल पाठ में धर्म की जगह रिलीजन शब्द आया है। रिलीजन और धर्म में मौलिक अंतर है। धर्म भारत के लोगों की जीवनशैली है। इसे धर्म प्रचार नहीं कहा जा सकता। संविधान सभा का बहुमत धर्म प्रचार के अधिकार के विरुद्ध था। संविधान सभा में तज्जमुल हुसैन ने कहा था कि मैं आपसे मेरे तरीके से मुक्ति पाने का आग्रह क्यों करूं? आप भी मुझसे ऐसा ही क्यों कहे? इस सिद्धांत में धर्म प्रचार की आवश्यकता क्या है? दूसरे पर अपनी आस्था नहीं थोपी जा सकती। बहस लंबी चली थी। लोकनाथ मिश्र ने धर्म प्रचार के प्रस्ताव को गुलामी का दस्तावेज बताया था। उन्होंने भारत विभाजन को मतांतरण का परिणाम बताया। ऐसे बहुत उदाहरण हैं, जहां अनुचित मतांतरण कराए गए हैं।
के. संथानम ने ईसाई मतांतरण पर आम जनता की आपत्तियां बताई और कहा कि अगर कोई अनुचित प्रभाव डालकर लोगों को अपने पंथ में लाता है, तो ऐसे कार्य के अनियमन का राज्य को पूरा अधिकार है।' प्रबल विरोध देखकर केएम मुंशी ने कहा 'भारतीय ईसाई समुदाय ने इस शब्द के रखने पर बहुत जोर दिया है। परिणाम कुछ भी हो हमने जो समझौते किए हैं, उन्हें हमें मानना चाहिए।' परिणाम सामने आ गए। भारत ईसाई और इस्लामी अवैध मतांतरण की गिरफ्त में है। अपनी अस्तिकता और विश्वास आनंददायी होते हैं। इस्लाम और ईसाई मत के मतावलंबियों को अपने पंथ-मजहब का आनंद और अन्य की आस्था का सम्मान करना चाहिए। उन्हें यह सत्य भी स्वीकार करना चाहिए कि केवल इस्लाम और ईसाई धारा ही पूरी दुनिया को नहीं बदल सकती।
दुर्भाग्यवश इसका विपरीत ही होता आया है। ईसाई और इस्लाम मत के लोग अपनी संख्या बढ़ाने के लिए मतांतरण पर आक्रामक हैं। भय और प्रलोभन का सहारा लेते हैं। इससे सामाजिक परिवेश कलुषित होता है। मध्य प्रदेश में ईसाई मतांतरण से पीड़ित पूर्व मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल ने न्यायमूर्ति भवानी शंकर की अध्यक्षता में जांच समिति बनाई थी। समिति ने मतांतरण के मकसद से आए विदेशी तत्वों को बाहर निकालने की सिफारिश भी की थी। वे अब भी विदेशी धन से मतांतरण की मुहिम में संलग्न हैं। रेगे जांच समिति (1982) ने भी मतांतरण को दंगों का कारण बताया था। ऐसी धारणाओं के बावजूद मतांतरण में सक्रिय तबकों को किसी का कोई डर नहीं। मूलभूत प्रश्न है कि क्या कोई एक आस्था सारी दुनिया को अपनी आस्था की छतरी के नीचे ला सकती है?
आरंभ से ही ईसाई और इस्लाम जैसी पंथिक मान्यताएं दुनिया को अपने विश्वास से रंगना चाहती हैं। धन के प्रलोभन और धोखाधड़ी के बावजूद उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इसके बावजूद वे बाज नहीं आ रहे। मोदी सरकार ऐसे तत्वों पर सख्त कार्रवाई कर रही है। सिद्दीकी और अन्य सहयोगियों पर कानूनी शिकंजा कस चुका है। वास्तव में यह समय की मांग है कि भारत के सभी पंथ, रिलीजन और मजहब परस्पर संवाद करें। सब अपनी आस्था आस्तिकता और संस्कृति के रस का आनंद लें। भय प्रलोभन द्वारा मतांतरण का निकृष्ट कार्य बंद होना चाहिए।