सम्पादकीय

मजहबी साम्राज्यवाद से लैस मतांतरण: आज आवश्यकता है मतांतरण के जुनून को मजहबी कट्टरवाद के रूप में पहचाना जाए

Gulabi
29 Jun 2021 7:51 AM GMT
मजहबी साम्राज्यवाद से लैस मतांतरण: आज आवश्यकता है मतांतरण के जुनून को मजहबी कट्टरवाद के रूप में पहचाना जाए
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मजहबी साम्राज्यवाद से लैस मतांतरण

विकास सारस्वत: उत्तर प्रदेश एंटी टेरर स्क्वाड यानी यूपीएटीएस द्वारा नोएडा में मतांतरण रैकेट के सरगना मोहम्मद उमर गौतम और मुफ्ती काजी जहांगीर कासमी की गिरफ्तारी के बाद कई अहम खुलासे हुए हैं। यूपीएटीएस की मानें तो न सिर्फ इस मतांतरण माफिया को विदेशी फंडिंग मिल रही थी, बल्कि इनके तार पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ से जुड़े होने का भी संदेह है। पुलिस द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार इस्लामिक दावा सेंटर नाम से चल रहे इस रैकेट में प्रलोभन और डरा धमकाकर मतांतरण कराए जाते थे। इस केंद्र ने महिलाओं, नाबालिगों और यहां तक कि मूक-बधिरों के भी मतांतरण कराए हैं। दिल्ली से असम तक फैले इस माफिया द्वारा किए गए अपराधों पर निश्चित ही कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, परंतु साथ ही मतांतरण के जुनून पर भी राष्ट्रव्यापी और खुली बहस जरूरी है। आज भारत की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं का बड़ा कारण जनसंख्या का धार्मिक अनुपात बदलने की अनवरत चेष्टा है। विदेश से घुसपैठ और मजहबी मंतव्य से जनसंख्या वृद्धि के अलावा मतांतरण इस अनुपात को बदलने का प्रमुख जरिया बन गया है।

विद्वेषपूर्ण आचरण ने संघर्ष की स्थिति बना दी

भारत में विचार-विनिमय, वाद-विवाद और पंथ चुनने की स्वतंत्रता प्राचीन काल से रही है, परंतु मतांतरित व्यक्तियों पर न तो पुरानी मान्यताओं को तिरस्कृत और अपमानित करने का दबाव होता था और न ही पूर्वकालिक इष्ट और देवताओं को झूठा बताने की बाध्यता, बल्कि भिन्न मतों और दर्शनों में पूर्वपक्ष को पूरा सम्मान दिया जाता था। नए संप्रदाय या नए दर्शन का चुनाव, स्वभाव और व्यक्तिगत वृत्ति की अनुकूलता से तय होता था। ये मतांतरण इतने सहज और परिपक्व भाव से होते थे कि इनसे न तो सामाजिक उथल-पुथल पैदा होती थी और न ही परिवारों के भीतर वैमनस्य उभरता था। इसके विपरीत पश्चिमी मजहब आस्था का एकदम भिन्न रूप लेकर आए। इन मजहबों में वह एकेश्वरवाद था, जिसमें सामंजस्य और परस्पर सद्भाव की गुंजाइश नहीं थी। 'एकं सद विप्र बहुधा वदंति' वाली सहिष्णुता के इतर ये मजहब न सिर्फ सत्य पर एकाधिकार का दावा करते हैं, बल्कि अपने सत्य को दूसरों पर जबरिया थोपने के ज्वार से भी ग्रस्त हैं। इनका ईश्वर ही एकमात्र सत्य है और दूसरों के ईश्वर झूठे। पूरे विश्व को येन-केन-प्रकारेण अपने मजहब के अधीन लाना जितना महती लक्ष्य बना, उतना ही कथित झूठे ईश्वरों से विश्व को मुक्ति दिलाना भी। अपने सत्य को मनवाने की इस जिद ने अमेरिकी महाद्वीप से मूलनिवासियों को लगभग पूरी तरह खत्म कर दिया। इसी जिद ने रवांडा में आठ लाख तूत्सी जनजातीय अफ्रीकियों का नरसंहार कराया। दोनों ही नरसंहारों के लिए वर्तमान पोप को माफी मांगनी पड़ी। तलवार के बल पर अपने सत्य को मनवाने की इस्लामी जिद ने सहारा रेगिस्तान से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप तक जो कत्लेआम मचाया, उससे सभी वाकिफ हैं। इतिहास के इन कलुषित अध्यायों से बेपरवाह मजहबी विस्तारवाद ने हिंसा की जगह आक्रामक मतांतरण में शरण ले ली है। मतांतरित व्यक्तियों पर पूर्वकालिक जीवन पद्धति से पूर्ण विच्छेद के दबाव ने समुदायों में गहरी दरार पैदा कर दी है। इनके विद्वेषपूर्ण आचरण ने न सिर्फ इन समुदायों में निरंतर संघर्ष की स्थिति बना दी है, बल्कि परिवारों को भी खंडित कर उन्हें घोर कष्ट दिया है।

धीरेंद्र से डेविड बने एक युवक ने अपनी मां का अंतिम संस्कार करने से किया इन्कार

दो सप्ताह पहले ही ग्वालियर में धीरेंद्र से डेविड बने एक युवक ने अपनी मां का अंतिम संस्कार करने से इन्कार कर दिया था। इसी प्रकार उमर गौतम द्वारा मतांतरित कराकर अब्दुल मन्नान बनाए गए मूक-बधिर मन्नू यादव में उसके माता पिता के प्रति इतनी नफरत पैदा कर दी कि वह अब परिवार से मिलना भी नहीं चाहता। एक अन्य मामले में मतांतरण के जरिये हिंदू से मुस्लिम बने व्यक्ति द्वारा पत्नी को जबरन इस्लाम स्वीकार करने के लिए दबाव बनाना है। प्रताड़ित पत्नी ने पुलिस में शिकायत की है। कई क्षेत्रों विशेषकर पूर्वोत्तर भारत में तो मतांतरण ने कई जनजातीय समुदायों की मूल पहचान ही खत्म कर दी है। उनके रीति-रिवाज, रहन-सहन और सामाजिक मान्यताएं अब सिर्फ उन्हीं मिशनरियों द्वारा बनाए गए संग्रहालयों में सीमित रह गई हैं।



संविधान सभा के सदस्यों को अल्पसंख्यक संगठनों द्वारा दिए गए आश्वासन झूठे साबित हुए

समावेशी, बहुलतावादी और पंथनिरपेक्ष भारत के समक्ष आक्रामक मतांतरण की चुनौती को संविधान सभा के कई सदस्यों ने भली भांति पहचाना था। अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के साथ प्रचार की अनुमति पर कई सदस्यों ने कड़ी आपत्ति जताई थी। जहां रोहिणी कुमार चौधरी ने इस अनुमति को लेकर मिशनरियों द्वारा हिंदू आराध्यों पर की जाने वाली आपत्तिजनक टिप्पणियों को बढ़ावा देने का भय जताया, वहीं लोकनाथ मिश्र ने प्रचार शब्द के समावेश को हिंदू संस्कृति को नष्ट करने का कारक बताया, परंतु इस बाबत लाया गया संशोधन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता केएम मुंशी के उस आश्वासन के बाद गिर गया, जिसमें उन्होंने प्रचार का अर्थ छल, प्रलोभन या सुनियोजित मतांतरण न होने की बात कही। मुंशी ने संविधान सभा को बताया कि ईसाई संस्थाओं ने उन्हें प्रचार शब्द का दुरुपयोग न करने का आश्वासन दिया है। संविधान सभा ने दबाव, छल और प्रलोभन द्वारा कराए जाने वाले मंतातरण को अमान्य करने की मांग पर विस्तृत चर्चा की। इस मांग को मौलिक अधिकारों में तो शामिल नहीं किया गया, परंतु इसके अपराध की श्रेणी में आने का उल्लेख सरदार पटेल ने किया। उन्होंने भविष्य में इस अपराध पर और कानून बनाने का भी जिक्र किया। जाहिर है कि संविधान सभा के सदस्यों को अल्पसंख्यक संगठनों द्वारा दिए गए आश्वासन झूठे साबित हुए। इसके साथ ही छल, दबाव एवं प्रलोभन द्वारा मतांतरण भी बदस्तूर जारी है। ऐसे में सख्त कानून और उन पर कड़ाई से अमल की आवश्यकता है, परंतु महज कानूनों से मजहबी साम्राज्यवाद को नहीं हराया जा सकता।

मतांतरण के जुनून को मजहबी कट्टरवाद के रूप में पहचाना जाए

आज जरूरी है कि मतांतरण के जुनून को मजहबी कट्टरवाद के रूप में पहचाना जाए। स्वेच्छा से मतांतरण पर कोई आपत्ति नहीं, मगर मतांतरण का उन्माद, जिसमें अनैतिक तरीके अपनाए जाएं, जिसकी शैली युद्धरत हो या जिसमें बच्चों, दिव्यांगों, निराश्रितों और दीन-हीनों को लक्ष्य बनाया जाए, वह कट्टरता है। यह सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं। इसके साथ ही योजनाबद्ध तरीके से दूसरे धर्मों को खत्म कर अपने मजहब की विश्व विजय की कामना उस असहिष्णुता का मूल है, जिसकी चर्चा बीते कुछ वर्षों से भारत में चल निकली है।

( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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