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- धर्म परिवर्तन और हम
आदित्य चोपड़ा| कोई भी देश तभी सभ्य, विकसित व मजबूत राष्ट्र बन पाता है जब इसके नागरिक आपस में प्रेम-भाव रख कर एक-दूसरे से सहयोग करके समूचे समाज के विकास के लिए काम करते हैं। समाज स्वाभाविक रूप से विविधताओं से भरा होता है अतः इसकी एकता का मूल मन्त्र एक-दूसरे के प्रति सम्मान भाव पर टिका रहता है। लोकतन्त्र में राजनीति का लक्ष्य इसी भाईचारे को प्रगाढ़ कर देश के विकास का होता है। राजनीति चूंकि सत्ता तक पहुंचने का माध्यम होती है और सत्ता लोगों के व देश के विकास के उद्देश्य से हासिल की जाती है अतः नागरिकों के बीच नफरत फैलाने का काम जो लोग व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से करते हैं वे देश को तोड़ने की कार्रवाई में संलग्न समझे जाते हैं। भारतीय संविधान में इस बाबत विस्तृत व्याख्या इस प्रकार की गई है कि भारतीय दंड विधान की धारा 153 के तहत सामाजिक विद्वेश फैलाने अर्थात दो समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने वाले कृत्य को राष्ट्र विरोधी कार्रवाई के समरूप रखते हुए कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। परन्तु हम देख रहे हैं कि जैसे-जैसे छह राज्यों के विधानसभा चुनाव करीब आते जा रहे हैं वैसे- वैसे ही समुदायगत नफरत फैलाने की गतिविधियां जोर पकड़ रही हैं । इसे हम स्वतन्त्र भारत की राजनीतिक त्रासदी के अलावा और कुछ नहीं कह सकते क्योंकि ऐसा करने से वोटों का ध्रुवीकरण जिस सम्प्रदायगत आधार पर होता है उससे देश भीतर से कमजोर होकर नफरत की आग में सुलगने लगता है।