सम्पादकीय

बातचीत का रास्ता

Neha Dani
10 Feb 2021 4:39 AM GMT
बातचीत का रास्ता
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संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के समय प्रधानमंत्री ने कृषि कानूनों के विरोध |

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के समय प्रधानमंत्री ने कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहे किसानों का एक बार फिर आह्वान किया कि वे आंदोलन का रास्ता छोड़ कर बातचीत से इस मसले को सुलझाने के लिए आगे आएं। इस आंदोलन में धरने पर बुजुर्ग और महिलाएं भी बैठी हैं, उनका खयाल कीजिए। पहले भी प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि वे एक फोन कॉल की दूरी पर हैं और किसान जब भी चाहें, वे इस मुद्दे पर बातचीत के लिए तैयार हैं। मगर प्रधानमंत्री के आह्वान पर किसानों की तरफ से कोई पहल नहीं दिखी।

शुरू में लगा था कि किसान इसलिए भी नाराज हैं कि प्रधानमंत्री खुद इस विषय पर बातचीत में दिलचस्पी क्यों नहीं दिखाते। मगर जब प्रधानमंत्री ने बातचीत की मंशा जाहिर कर दी तब भी किसानों में कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नजर नहीं आई, तो स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठने शुरू हो गए। मगर किसानों का तर्क था कि बातचीत का दिन और समय तो सरकार को तय करना होता है, जब उनकी तरफ से ही कोई पहल नहीं हुई, तो बातचीत होती कैसे। हालांकि पहले सरकार और किसानों के बीच ग्यारह दौर की बातचीत हो चुकी है, मगर उससे कोई नतीजा नहीं निकला। दोनों पक्ष अपनी-अपनी बातों पर कायम हैं।
संसद में प्रधानमंत्री की नई अपील के बाद शायद कुछ सूरत बदले। प्रधानमंत्री की यह बात सही है कि आंदोलन में शिरकत कर रहे बुजुर्गों और महिलाओं की सेहत का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। इस आंदोलन में हिस्सेदारी करने आए डेढ़ सौ से ज्यादा लोग या तो मौसम की मार या फिर खराब सेहत की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं। कुछ ने भावनात्मक दबाव में प्राणांत कर लिया। मगर सरकार को केवल बयान के स्तर पर नहीं, व्यावहारिक धरातल पर भी यह संवेदना दिखानी होगी, तभी किसानों में शायद कुछ भरोसा पैदा होगा।
अभी तक आंदोलन के बीच प्रतिष्ठा का प्रश्न कुछ ज्यादा ही मजबूती के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है। किसानों की जिद है कि जब तक कानून वापसी नहीं, तब तक घर वापसी नहीं। वे तीनों कृषि कानूनों को पूरी तरह खत्म कराने और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा दिलाने की मांग पर अड़े हैं। सरकार का तर्क है कि इन कानूनों से किसानों को बहुत लाभ होने वाला है, इसलिए इन्हें रद्द करने का कोई तर्क नहीं। अगर इनमें कुछ कमियां हैं, तो उन्हें बातचीत के आधार पर दूर करने का प्रयास किया जा सकता है। इस तरह बातचीत का कोई साझा सूत्र फिलहाल बनता नजर नहीं आ रहा।
अब किसानों का आंदोलन जिस तरह दिल्ली की सीमाओं से बाहर निकल कर देश के विभिन्न हिस्सों तक पहुंच रहा है और जगह-जगह महापंचायतों का आयोजन हो रहा है, उससे सरकार की पेशानी पर बल आना स्वाभाविक है। किसान नेताओं का कहना है कि वे अक्तूबर तक की तैयारी करके आए हैं और पूरे देश में अपने आंदोलन को फैलाने की रणनीति बना रहे हैं। इससे दुनिया भर में गलत संदेश जा रहा है।
कुछ विदेशी नेताओं और नामचीन हस्तियों ने सोशल मीडिया या मुख्यधारा मीडिया पर इसे लेकर अपने बयान भी दिए हैं। प्रधानमंत्री ने संसद में तो किसानों से बातचीत का अह्वान कर दिया है, पर इसके लिए उनकी तरफ से क्या पहल होती है, देखने की बात है। मगर इसमें किसान नेताओं से भी अपेक्षा बनी हुई है कि वे कोई साझा सहमति का बिंदु तलाशने का प्रयास करेंगे।


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