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सोर्स- Jagran
यशपाल सिंह : गत रविवार को हुए एक सड़क हादसे ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। इस हादसे में टाटा समूह के पूर्व मुखिया और जाने-माने उद्यमी सायरस मिस्त्री और उनके एक संबंधी की मौत हो गई, जबकि दो अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए। इसके साथ ही देश में सड़क सुरक्षा को लेकर वह बहस नए सिरे से शुरू हो गई, जो उन आंकड़ों के सामने आने से शुरू हुई थी, जिनमें बताया गया था कि 2021 में सड़क हादसों में डेढ़ लाख से अधिक लोग मरे।
एक अनुमान के तहत भारत में दुनिया के मात्र एक प्रतिशत वाहन ही हैं, लेकिन विश्व भर के सड़क हादसों में जान गंवाने वाले लोगों में 11 प्रतिशत लोग भारत के होते हैं। आए दिन देश के किसी न किसी कोने में भयानक सड़क दुर्घटनाएं होती रहती हैं, जिनमें तमाम लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं। तमाम घायल हो जाते हैं और उनमें से कई जीवन भर टीस देने वाली चोट के साथ जीवन बिताते हैं। कई सड़क घटनाओं में तो पूरे के पूरे परिवार ही उजड़ जाते हैं।
अधिकांश सड़क दुर्घटनाएं लापरवाही के कारण होती हैं। यह लापरवाही दुर्घटना के शिकार वाहन चालक या आसपास से गुजर रहे वाहनों के चालकों में से किसी की भी हो सकती है। हादसे सड़कों की खराब डिजाइन और यातायात नियमों की अनदेखी के कारण भी होते हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि कई विभागों में तालमेल की कमी से हादसे के बाद जरूरी राहत और उपचार में देरी होती है।
इस मामले में गत 28 जुलाई को बाराबंकी में हुए एक भीषण हादसे की चर्चा उपयोगी होगी। इसमें 18 लोगों की मौत हो गई थी और 23 घायल हुए थे। ये सभी एक बस में हरियाणा और पंजाब से बिहार जा रहे थे। संबंधित ट्रांसपोर्टर की एक अन्य बस खराब हो जाने की वजह से उसकी सवारियां भी इसमें भर दी गईं। इस तरह 75 की क्षमता वाली बस में 135 यात्री भर दिए गए। आगरा में उसका टायर फट गया। गनीमत रही कि बस नहीं पलटी। फिर बाराबंकी में एक नदी के पुल पर उसका एक्सेल टूट गया। गर्मी के कारण यात्री बस के बाहर आ गए और रात में ही सड़क किनारे आराम करने लगे। बस स्टाफ एक्सेल ठीक करने की कोशिश में लग गया, लेकिन कोई ऐसा 'संकेत' नहीं लगाया, ताकि अन्य वाहनों के चालक आगाह हो सकते। इसी समय पीछे से आ रहे ट्रक ने वहां कहर बरपा दिया।
यहां राजमार्ग प्राधिकरण की भी जिम्मेदारी बनती थी। एक्सेल बनवाने में मदद मुहैया कराई जाती या फिर जब तक बस वहां खड़ी थी, तब तक गुजरते वाहनों की गति नियंत्रित की जाती। यह तभी संभव था जब हाइवे पेट्रोलिंग सतर्क होती। ठसाठस भरी बस ने करीब 10-15 टोल प्लाजा क्रास किए। किसी ने कोई पूछताछ नहीं की। मालूम पड़ा कि बस का 32 बार चालान हो चुका था, फिर परमिट क्यों नहीं निरस्त हुआ? चालक पहले भी कई बार गलतियां कर चुका था, इसके बावजूद मालिक उससे गाड़ी चलवा रहा था। आखिर परिवहन विभाग का अमला क्या कर रहा था?
पुलिस तो केवल आवागमन को अबाध रूप से चलाने का ही कार्य करती है और वह भी उसकी उच्च प्राथमिकताओं में नहीं होता, लेकिन परिवहन विभाग की तो यही प्रमुख जिम्मेदारी है। पूरा अमला और वित्तीय संसाधन हैं, परंतु कोई जवाबदेही नहीं। नियमानुसार टोल प्लाजा के दोनों ओर 40 किमी तक राजमार्ग प्राधिकरण को एंबुलेंस, पेट्रोलियम और क्रेन आदि की व्यवस्था करनी चाहिए थी। उक्त हादसे में बचाव अभियान भी चार घंटे बाद शुरू हुआ। कहने को तो परिवहन विभाग ने इंटरसेप्टर गाड़ियां लगा रखी हैं, जिनका मुख्य कार्य ही है गाड़ियों की रफ्तार नियंत्रित करना। उसे सबसे सबसे पहले मौके पर पहुंचना चाहिए था।
मूल बात यह है कि सड़क दुर्घटनाओं पर नियंत्रण परिवहन विभाग के बूते की बात नहीं रही। यह विभाग मुख्य रूप से लाइसेंस, परमिट और कर संग्रह के उद्देश्य से बनाया गया है। मार्ग दुर्घटनाओं पर नियंत्रण, बचाव अभियान और पेट्रोलिंग उसकी कार्यसंस्कृति में ही नहीं है। ऐसे में बेहतर होगा कि पुलिस में ही एक अलग शाखा बनाई जाए और उसे आवश्यक संसाधनों से लैस किया जाए। प्रत्येक प्रदेश में यातायात एवं सड़क सुरक्षा महानिदेशक का पद सृजित किया जाए और ट्रैफिक पुलिस की संख्या भी उचित अनुपात में बढ़ाई जाए। हाइवे पर ट्रैफिक पुलिस चौकियों और थानों की स्थापना भी करनी होगी।
प्रस्तावित व्यवस्था में पुलिस की सड़क पेट्रोलिंग और कार्रवाई का असर बिल्कुल अलग होगा। वही हाइवे पर होने वाली दुर्घटनाओं की विवेचना, अपराधों पर अंकुश और गलत चल रही गाड़ियों का चालान करेगी। हर प्रकार की तस्करी इत्यादि को रोकने के लिए जिम्मेदार होगी। माफिया हो या खनन माफिया, सारी ढुलाई मिलीभगत से रात को ही होती है। किसी की हिम्मत उन्हें रोकने की नहीं होती। यह कार्य केवल वर्दीधारी पुलिस वाला ही कर सकता है।
सड़क हादसों से होने वाली धन और जन हानि के अलावा सरकार द्वारा दी जाने वाली अनुदान राशि जैसे कई पहलुओं का कोई आर्थिक आकलन नहीं होता। मार्ग दुर्घटनाओं में प्रायः परिवार के सक्रिय सदस्यों की ही अकस्मात मृत्यु होती है, जो आम तौर पर परिवार का कमाऊ व्यक्ति होता है। इससे उसके परिवार की आर्थिकी ध्वस्त हो जाती है। इसका असर जीडीपी पर भी पड़ता है। लगभग तीन दशक पहले अनुमान लगाया था कि मार्ग दुर्घटनाओं से देश को प्रतिवर्ष लगभग 35 हजार करोड़ रुपये की हानि होती है। आज यह हानि दो-तीन गुना अधिक हो गई होगी।
Rani Sahu
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