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पीएम नरेंद्र मोदी के मामले में जिसकी उम्मीद नहीं की जा सकती
राजदीप सरदेसाई का कॉलम:
पीएम नरेंद्र मोदी के मामले में जिसकी उम्मीद नहीं की जा सकती, उसी की उम्मीद करनी चाहिए। यह चतुर राजनेता का रक्षाकवच होता है, जो चाहता है कि विरोधी बस अनुमान लगाते रहें। ऐसा इसलिए क्योंकि कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा किए हुए दो हफ्ते हो गए, लेकिन अभी भी किसी को पक्का नहीं पता कि प्रधानमंत्री आखिर क्यों झुके? मोदी के प्रशंसकों के अनुसार यह गुरुपर्व पर किसानों को उनकी ओर से दिया तोहफा था, जो पीएम का विशाल हृदय दिखाता हैै। पर मोदी की राजनीति पर सालों से नजर रखने वाले बताएंगे कि पश्चाताप कभी भी एक मजबूत नेता की छवि का हिस्सा नहीं रहा है। सच यह है कि यह हृदय परिवर्तन नहीं, रणनीति में बदलाव के बारे में है।
पछतावा कमजोरी की निशानी है और मोदी की माचो छवि से मेल नहीं खाता। सवाल उठता है कि मोदी ने क्यों किसान आंदोलन होने दिया। इसका जाहिर जवाब तो यही है कि उन्होंने भांप लिया था कि किसानों का विरोध प्रदर्शन चुनावी रूप से नुकसानदेह साबित हो सकता है। चुनाव उनके लिए ऐसा टॉनिक है, जो उन्हें हर बार तरोताजा कर देता है। यहां तक कि पीएम के तौर पर भी उन्होंने हर चुनावों में वही ऊर्जा दिखाई, जैसी एक बार 1980 में अहमदाबाद के स्थानीय चुनावों में गाड़ी पर पीछे बैठकर रातभर पोस्टर चिपकाते हुए दिखाई थी।
न्यूयॉर्क के दिवंगत गवर्नर मारियो क्युमो ने एक बार कहा था कि 'चुनावी अभियान कविता है तो शासन करना गद्य है।' ज्यादा दूर नहीं जाएं तो मोदी ऐसे नेता हैं जो चुनावी अभियान और शासन में रत्ती भर फर्क करते हों, उनका हर काम साल भर चलने वाले अभियान का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य मतदाताओं की नजरों में बने रहना है। इस फैसले को चुनावों की चिंता से जोड़ सकते हैं, लेकिन जिस तरीके से पीएम सामने आए और व्यक्तिगत तौर पर इसे अपनी नाकामी बताया, ये फिट नहीं बैठता। वह चाहते तो इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए केबिनेट में से किसी को भी आगे कर सकते थे।
खुद गलती स्वीकार करना एक रणनीतिक बदलाव का खुलासा करता है, भले ही यह क्षणिक हो। यह बिल्कुल ऐसा है, जैसे कोई बिग बॉस आलोचकों द्वारा बनाई छवि बदलने के लिए अपनी फिर से ब्रांडिंग कर रहा हो। याद कीजिए कैसे 'सूट बूट की सरकार' की आलोचना ने 2016 में विमुद्रीकरण के फैसले को प्रभावित किया था और भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा के रूप में पीएम की साख को बहाल किया था। इस बार 'माफी' को 'गरीब-किसान' के रक्षक के रूप में पीएम की स्वयं की छवि को फिर से जीवंत करने के एक कदम के रूप में देखा जा सकता है। कोई भी भाषण देखें, उसमें गरीब किसानों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का उल्लेख होगा। गरीबों और किसानों के सबसे बड़े निर्वाचन क्षेत्र के लिए उन्हें इन सबसे ऊपर विकास पुरुष बताने की जरूरत है।
2019 चुनावों से पहले प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की घोषणा को किसानों के पक्ष में एक महत्वपूर्ण निर्णय के रूप में देखा गया। पर यह किसान-हितैषी छवि किसानों के दिल्ली बॉर्डर पहुंचते ही ध्वस्त हो गई। तीन अक्टूबर को लखीमपुर खीरी में किसानों पर गाड़ी चढ़ाने का मामला टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। इसके बाद किसानों का जगह-जगह विरोध शुरू हो गया। इसके बाद ही टिकैत महाराष्ट्र तक में अच्छी-खासी संख्या में किसानों का ध्यान खींचने लगे। इसने साबित किया कि सरकार किसान आंदोलन को हल्के में नहीं ले सकती।
पुनश्चः कानून वापसी से कुछ दिनों पहले एक वरिष्ठ मंत्री व आरएसएस नेता पीएम से मिले और उन्हें अपने रुख पर पुनर्विचार करने के लिए मनाया। तब मोदी ने कथित तौर पर ये कहकर उनकी चिंताओं को दरकिनार कर दिया था कि नए कानून उनके विश्वास का सवाल हैं। पर अचानक जो हुआ वो हैरान करने वाला है। बहरहाल राजनीति में वैचारिक विश्वासों को अक्सर चुनावी फायदों के लिए छोड़ देना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Gulabi
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