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आज बाघों पर विमर्श का दिन है। बाघों के संरक्षण की दरकार इसलिए है
साकेत बडोला,
आज बाघों पर विमर्श का दिन है। बाघों के संरक्षण की दरकार इसलिए है, क्योंकि हमारी खाद्य शृंखला में यह शीर्ष के जीवों में है। संतुलित पारिस्थितिकी तंत्र के लिए हमें इसे बचाना ही होगा। यही कारण है कि जब दुनिया में बाघों की संख्या में गिरावट देखी गई, तो 2010 में भारत, बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, नेपाल, रूस, कंबोडिया, चीन, थाईलैंड, वियतनाम जैसे बाघों की रिहाइश वाले 13 देश एकजुट हो गए। सेंट पीटर्सबर्ग में उनके शासनाध्यक्षों का शिखर सम्मेलन हुआ, जिसमें 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी करने का लक्ष्य रखा गया और बाघ संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए हर साल 29 जुलाई को विश्व बाघ दिवस मनाने का फैसला किया गया। इसमें 12 साल की सीमा इसलिए तय की गई, क्योंकि 2010 चीन के हिसाब के बाघ का वर्ष था, और 2022 में इसकी पुनरावृत्ति होनी थी।
यह सुखद है कि विश्व समुदाय सेंट पीटर्सबर्ग के लक्ष्य को पाने में सफल रहा। हालांकि, यह नतीजा मिला-जुला रहा है, क्योंकि भारत, नेपाल, रूस जैसे कुछ देशों ने जहां उम्मीद से अधिक प्रदर्शन किया, वहीं दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देश अपने लक्ष्य नहीं पा सके। वहां बाघों की संख्या कम ही हुई है। माना जा रहा है कि 13 में से तीन देश में बाघ या तो खत्म हो गए हैं या फिर लुप्त होने को हैं। लेकिन बाघ संरक्षण के मामले में भारत की प्रगति उल्लेखनीय मानी जा रही है। यहां हर चार साल पर बाघों की गिनती होती है, और पिछली गिनती में ही (साल 2018) हमने सेंट पीटर्सबर्ग घोषणापत्र का लक्ष्य हासिल कर लिया था।
दुनिया में बाघों की जितनी संख्या है, उसकी 70 फीसदी आबादी भारत में ही बसती है। 2018 की गणना के मुताबिक, भारत में कुल 2,967 बाघ हैं। हम इस लक्ष्य तक इसलिए पहुंच सके, क्योंकि बाघ संरक्षण के प्रयासों को सुनिश्चित किया गया। उनके लिए सुरक्षित आवास और अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण को लेकर प्रतिबद्धता दिखाई गई। एक समर्पित इकाई राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण का गठन किया गया। हालांकि, 'प्रोजेक्ट टाइगर' के रूप में यह पहले से काम कर रहा था, लेकिन इसे अधिकृत निकाय बनाया जाना काफी फायदेमंद साबित हुआ। अब बाघ संरक्षण के तमाम काम इसी की निगरानी और नेतृत्व में होते हैं।
बाघ संरक्षण की दिशा में भारत की एक अन्य कोशिश काफी सफल रही, और वह है- टाइगर रिजर्व को विस्तार दिया जाना। साल 1973 में केंद्र सरकार ने नौ टाइगर रिजर्व के गठन के साथ 'प्रोजेक्ट टाइगर' की शुरुआत की थी, आज बाघ संरक्षित क्षेत्रों की संख्या बढ़कर 52 हो गई है। इससे बाघों को अपना प्राकृतिक आवास मिला है। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस मामले में हमारे यहां भरपूर राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई गई। यहां का शीर्ष नेतृत्व उस सिद्धांत को जीता है, जिससे भारत गुंथा हुआ है, यानी विविधता में एकता। अगर कहीं कोई कड़ी कमजोर जान पड़ी, तो उसे संभालने के लिए पूरा देश एकजुट हुआ। यही कारण रहा कि प्रोजेक्ट टाइगर जैसी परियोजना को हरेक सरकार का पूरा साथ मिला और हमने इसका अच्छा नतीजा प्राप्त किया।
बाघों को बचाने के लिए हमारे यहां तमाम संस्थाओं ने भी हाथ मिलाए। इसके लिए जरूरी संसाधन वक्त-वक्त पर जारी किए जाते रहे। वन विभाग अपने तईं काफी काम कर सकता है, पर यदि संसाधन न मिले, तो उसके काम भी कई तरह की सीमाओं में बंध जाते हैं। अपने यहां बाघ रिहाइशी क्षेत्रों में पेट्रोलिंग के लिए बुनियादी ढांचे का विकास किया गया और कई जरूरी सुविधाएं मुहैया कराई गईं, जिनसे बाघों की निगरानी आसान हो सकी। स्थानीय समुदायों का भी काफी सहयोग मिला। बिना उनकी मदद के शायद हम बाघों की संख्या दोगुनी करने का लक्ष्य नहीं पाते।
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इसका यह मतलब नहीं है कि कोई कमी नहीं है। बाघों की संख्या सर्वाधिक होने के कारण भारत पर कई तरह की जिम्मेदारियां हैं। हम दूसरे देशों से अपनी तुलना नहीं कर सकते। कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जिन पर हमें विशेष ध्यान देना ही होगा। मसलन, संसाधन के मोर्चे पर अभी और काम करने की आवश्यकता है। चूंकि बाघों की संख्या ज्यादा है, इसलिए उनकी निगरानी के लिए अधिक कर्मचारी और आधुनिक साजो-सामान की जरूरत है। उनका प्राकृतिक वास बना रहे, इसके लिए भी हमें और प्रयास करने होंगे। उनसे संबंधित शोध एवं अनुसंधान भी एक जरूरी क्षेत्र है।
वन्य-जीवों से जुडे़ अपराधों को लेकर हमें अधिक चौकस रहना होगा। दो दिन पहले ही लोकसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में केंद्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री अश्विनी चौबे ने बताया था कि पिछले तीन साल में देश भर में प्राकृतिक और अप्राकृतिक कारणों से 329 बाघों की मौत हुई है। साल 2019 में 96, 2020 में 106 और 2021 में 127 बाघों ने किन्हीं वजहों से अपनी जान गंवाई। हालांकि, अच्छी बात यह है कि बाघों के शिकार में कमी आई है। साल 2019 में जहां 17 बाघ तस्करों की भेंट चढ़े, तो वहीं 2021 में यह संख्या घटकर चार रह गई। जाहिर है, दुनिया भर में बाघ से जुडे़ उत्पादों की मांग होने के बावजूद हमने उनके शिकार को काफी हद तक थाम लिया है। यही वजह है कि पिछले दिनों जब उनकी मौत को लेकर चर्चा गरम हुई थी, तब अप्राकृतिक मौत में कमी आने की बात सामने आई थी। फिर भी, हमें यही कोशिश करनी है कि हमारा एक भी बाघ तस्करों की भेंट न चढ़े। जाहिर है, इसके लिए निगरानी बढ़ाने की जरूरत है। वन्य-जीवों की तस्करी करने वाले लोगों को कठघरे में खड़ा करने और त्वरित सजा दिलाने की भी दरकार है। इसके साथ-साथ शहरीकरण के विस्तार के कारण बढ़ते मानव-वन्य जीव संघर्ष को भी हमें रोकना होगा। पिछले तीन साल में ही 125 लोग बाघों के शिकार बने हैं।
हमें बाघों के संरक्षण के लिए वैश्विक सहयोग भी बढ़ाना होगा। तस्करों से निपटने के लिए उन देशों से सहयोग लेना होगा, जहां बाघ उत्पादों की भारी मांग है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं को भी साथ लेने की दरकार है। साफ है, बाघों को बचाना हमारे लिए रोजाना की जंग है, और इसके लिए हमें अनवरत तत्परता दिखानी होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सोर्स- Hindustan Opinion Column

Rani Sahu
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