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सोर्स- Jagran
राजीव सचान : आम धारणा है कि भेदभाव-अलगाववाद को बल देने वाला अनुच्छेद 370 ही एक देश-दो विधान का पर्याय था, लेकिन समय के साथ पता चल रहा है कि ऐसे कई कानून हैं, जो इसी उक्ति को चरितार्थ करते हैं। इनमें से कई को उच्चतर न्यायालयों में चुनौती भी दी गई है। इनमें से एक है वक्फ कानून, 1955। दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में इस कानून के कुछ प्रविधानों को चुनौती देते हुए यह मांग की गई है कि सभी ट्रस्ट और चैरिटी संस्थाओं के लिए एकसमान कानून होना चाहिए।
कहना कठिन है कि उच्च न्यायालय किस नतीजे पर पहुंचेगा, लेकिन इस कानून के तहत वक्फ बोर्डों को कैसे असीमित अधिकार हासिल हैं, इसका पता इससे चलता है कि तमिलनाडु के एक गांव की पूरी जमीन वक्फ संपत्ति बताई जा रही है। इसमें वह मंदिर भी शामिल है, जो 1500 साल पुराना है।
समझना कठिन है कि जब इस्लाम 1400 साल पुराना है, तब कोई वक्फ बोर्ड 1500 साल पुराने मंदिर की संपत्ति पर दावा कैसे कर सकता है? वक्फ बोर्ड संबंधी कानून के प्रविधानों के तहत यह बोर्ड किसी भी संपत्ति को अपनी घोषित कर सकता है। इसके विपरीत 1991 का धर्मस्थल कानून है, जो धार्मिक स्थलों के परिवर्तन को निषेध करता है। एक तरह से यह कानून लोगों को उन धार्मिक स्थलों को उसी रूप में स्वीकार करने को विवश करता है, जिस रूप में वे 15 अगस्त 1947 को थे, भले ही उन्हें किसी अन्य धार्मिक स्थलों को तोड़कर बनाया गया हो। यह कानून ऐसे किसी मामले में न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार नहीं देता।
1991 में बने धर्मस्थल कानून का मूल उद्देश्य वाराणसी, मथुरा आदि में मंदिरों के स्थान पर बनाई गईं मस्जिदों को यथावत रखना और उन्हें संरक्षण देना था। इस कानून के दायरे से अयोध्या मामले को बाहर कर दिया गया था, क्योंकि वह उन दिनों विवाद के केंद्र में था और न्यायालयों के समक्ष विचाराधीन भी था। ऐसे कुछ और मामले भी विवाद के केंद्र में थे, लेकिन उनकी अनदेखी कर यह कहते हुए एक कानून बना दिया गया कि परमात्मा का वास केवल मंदिर या मस्जिद में नहीं, अपितु मानव के हृदय में होता है।
इस कानून के जरिये यही रेखांकित किया गया कि न्यायालय अयोध्या मामले की तो सुनवाई कर सकते हैं, लेकिन ऐसे ही अन्य किसी विवाद की नहीं। इस कानून की संवैधानिकता को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। ज्ञानवापी मामले में इस कानून की खूब दुहाई दी गई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया कि उक्त कानून किसी धार्मिक स्थल के चरित्र का पता लगाने से नहीं रोकता।
इस कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट चाहे जिस नतीजे पर पहुंचे, लेकिन देश में कई ऐसे धार्मिक स्थल हैं, जो दूर से ही दिखते हैं कि उनके स्वरूप और चरित्र को जबरन बदला गया। इनमें वाराणसी में ज्ञानवापी परिसर और मथुरा के कृष्णजन्मभूमि मंदिर पर बनाई गईं मस्जिदें ऐसी ही हैं। इसके अलावा दिल्ली में कुतुब मीनार परिसर में बनी कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद भी है। इसका मतलब है इस्लाम की ताकत बताने वाली मस्जिद। यहां पर एक शिलालेख है, जिसमें यह अंकित है कि इस मस्जिद का निर्माण 27 हिंदू-जैन मंदिरों को तोड़कर किया गया।
एक देश-दो विधान को बयान करने वाले कई राज्यों के वे कानून भी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन हैं, जिनके तहत संबंधित राज्य सरकारें मंदिरों के प्रबंधन एवं संचालन का अधिकार अपने पास रखती हैं और उनसे अर्जित होने वाली आय को अपने हिसाब से खर्च करती हैं। इन कानूनों के तहत हजारों हिंदू मंदिरों पर एक तरह से राज्य सरकारों का कब्जा है। पिछले माह सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के अनुसार अकेले तमिलनाडु में सैकड़ों प्रमुख मंदिरों पर राज्य सरकार का नियंत्रण है। सुप्रीम कोर्ट में ऐसी कई और याचिकाएं लंबित हैं, क्योंकि जो स्थिति तमिलनाडु में है, वही अन्य राज्यों में भी। सुप्रीम कोर्ट इन सभी याचिकाओं की एक साथ सुनवाई करने पर विचार कर रहा है।
इन याचिकाओं की सुनवाई की प्रतीक्षा करनी होगी और इसी के साथ यह भी जानना होगा कि हिंदुओं को छोड़कर अन्य समुदायों को अपने धार्मिक स्थलों का संचालन अपनी तरह से करने का अधिकार है। यह साफ है कि मंदिरों के प्रबंधन-संचालन संबंधी कानून एक देश-दो विधान के सटीक उदाहरण हैं। कोई नहीं जानता कि ऐसे कानून अन्य किसी समुदाय के धार्मिक स्थलों के प्रबंधन-संचालन के लिए क्यों नहीं बनाए गए? क्या केवल हिंदू समुदाय के मामले में ही यह समझा गया कि वे अपने मंदिरों का प्रबंधन-संचालन नहीं कर सकते?
जो भी हो, इन कानूनों के माध्यम से अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच खुला भेद किया जा रहा है। आश्चर्य इस पर है कि सेक्युलरिज्म और समानता के सिद्धांत को मुंह चिढ़ाने वाले ऐसे कानूनों को अब जाकर चुनौती दी गई है।
यदि देश में रह-रहकर समान नागिरक संहिता की मांग होती रहती है, तो इसका कारण भी एक देश-दो विधान को इंगित करने वाला हिंदू कोड बिल है, जिसके तहत हिंदुओं के विवाह, उत्तराधिकार संबंधी अधिनियम तो बनाए गए, लेकिन अन्य समुदायों के लिए ऐसे कानून बनाने का विचार त्याग दिया गया। चूंकि यह विचार अब तक त्याज्य है, इसीलिए समान नागरिक संहिता की मांग उठती रहती है। इसकी आवश्यकता पर उच्च न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय समय-समय पर बल देता रहा है। एक देश-दो विधान की झलक दिखाने वाला एक अन्य कानून शिक्षा का अधिकार अधिनियम है। यह अल्पसंख्यकों के शैक्षिक संस्थानों को जैसी छूट प्रदान करता है, वैसी बहुसंख्यकों के शैक्षिक संस्थानों को नहीं और इसी कारण उसके प्रविधानों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती रहती है।
Rani Sahu
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