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अरब में बादशाहों की तारीफ में कसीदे कहे जाते थे। कसीदे के पहले हिस्से को तशबीब (शबाव की बातें करना) कहा जाता था
पवनेंद्र पवन, मो.-9418252675
अरब में बादशाहों की तारीफ में कसीदे कहे जाते थे। कसीदे के पहले हिस्से को तशबीब (शबाव की बातें करना) कहा जाता था। इस हिस्से में सौंदर्य और दिलफरेबी का वर्णन रहता था। इसी कसीदे की कोख से गज़़ल का जन्म हुआ। इस विधा का नाम 'गज़़ल भी शायद इसीलिए रखा गया क्योंकि इसकी क्रिया रूपी संज्ञा 'तगज्जुल का अर्थ भी 'औरतों की या 'औरतों से बातें करना होता है। यह भी माना जाता है कि 'गज़़ल नाम गज़़ाला (हिरणी) की उस दर्द भरी आवाज से है जो शिकारी कुत्तों द्वारा पकड़े और नोचे जाने के दौरान उसके कंठ से निकलती है। उपरोक्त व्युतपतियों से पहली हमें गजल के विषय में बताती है तो दूसरी शेर के, गज़़ाला की दर्द भरी आवाज की तरह दिल की गहराई तक उतर जाने की खूबी के बारे में। सूफी आंदोलन के दौरान गज़़ल का विषय इश्क मिजाजी के साथ इश्क हकीकी भी हो गया। साकी, शराब और मैकदे के माध्यम से खुदा उसकी रहमत और दुनिया की बातें होने लगीं। समकालीनता का अर्थ, 'एक समय में अथवा 'एक युग में है। समकालीनता समय सापेक्षता में मूल्य सापेक्षता की बात करती है। सम-सामयिकता के साथ विषयांतर होता रहता है। खुसरो व कबीर से लेकर दुष्यंत कुमार के हिंदी गज़़ल के सफर में प्रणय, आध्यात्मिक अद्वैत, राष्ट्रीय भावना, सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन, प्रकृति और प्रयोग, लोकतंत्र और जनवाद जैसे जितने भी पड़ाव आए, वे सम-सामयिकता के साथ-साथ वस्तुत: प्रेम की उस मूल भावना के ही विविध रूप हैं, जिसके मूल बीज के बिना काव्यकर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। समकालीन हिंदी गज़़ल का आरंभ 1970 के आसपास दुष्यंत की गज़़लों से माना जाता है। दुष्यंत ने अपने भीतर नारायण को न देख कर दरिद्र नारायण और शोषित के दर्शन किए। कल्याणकारी परमात्मा के बदले उन्हें अपने सम्मुख झूठे प्रलोभन देते, अपने को भगवान का अवतार कहाते 'रंगे गीदड़ और मुखौटाधारी दिखे। इसलिए उन्होंने आमजन की गरीबी, भूख, बेरोजगारी, मजबूरी, राजनीतिक संरक्षण, आर्थिक-धार्मिक शोषण, असंतोष, असहमति, आक्रोश आदि को अपनी गज़़लों का विषय बनाया। हिमाचल की हिंदी गज़़ल भी अभिव्यक्ति की प्रखरता, सहज संप्रेषण एवं भाषा की लोकधर्मिता का पर्याय बन कर समकालीन स्वरूप तक पहुंची है। दोगली नीतियों वाली वर्तमान व्यवस्था में वर्ग-विशेष को सुविधाएं देने का प्रयास है। शिक्षा जैसा क्षेत्र भी अछूता नहीं है। इसीलिए द्विजेंद्र द्विज को कहना पड़ता है-'एकलव्यों को रखेगा वो हमेशा ताक पर/ 'कौरवों और 'पांडवों को दाखिला दे जाएगा/बेरोजगारी से उगती भूख आदमी को पूंजीपतियों व सत्ताधारियों के इशारों पर बंदर की तरह नाचने को मजबूर कर देती है।-रोटियां दो दूर से मुझको दिखा/ जीभ पर ताला लगाया जाएगा। (शेष अवस्थी)- वही करता गया जो मुझसे करवाती गई रोटी/ मुकम्मल तौर पर कोई हुनर सीखा नहीं मैंने। (नरेश निसार) रोटी, कपड़ा और छप्पर का अभाव, बेबसी में यह कहने को मजबूर कर देता है- मेरे मन की अयोध्या में भला कैसे हो दिवाली/ झलकता है अभी तक राम का वनवास आंखों में (सागर पालमपुरी)। प्रफुल्ल कुमार परवेज को ऐसे हालात देखकर सख्त लहजे में कहना पड़ता है- हमसे हर मौसम सीधा टकराता है/ संसद केवल फटा हुआ इक छाता है/भूख अगर गूंगेपन तक ले आए तो / आजादी का क्या मतलब रह जाता है।
चंद्ररेखा ढडवाल इस व्यवस्था से नाराज दो टूक कहती हैं- या तो वह मुश्किलें सहल कर दे/ या तो हम दूसरा खुदा देखें। आईना रख के बात करते हैं/ शख्स कोई तो बोलता देखे। विवशता का गूंगापन और भी ऊंचा बोलता है। जब नवनीत शर्मा दिल में कलम डुबो कर कहते हैं-पेड़ थे कुछ थी तेज कुल्हाड़ी आरा था/ जंगल चुप थे और भला क्या चारा था।-भौंकते कुत्ते नहीं उन पर जो टुकड़ा दे उन्हें/ सोच कर यह आजकल चुप गांव की चौपाल है, की तर्ज पर नवनीत शर्मा को भी बताना पड़ता है- ईंट के बदले में पत्थर नहीं मारा जिसने/कोई तहजीब का मारा भी तो हो सकता है। सत्ता के लिए राजनीति ने मंदिरों-मस्जिदों में धर्म के प्रतीक जयकारों को ध्रुवीकरण का औजार बना दिया है- आ गए भक्तजन भी ताकत में/ बेच भगवान को सियासत में। (प्रेम भारद्वाज)-मजहबी चश्मा हटाकर देखना/ नफरतें कुछ पल भुला कर देखना। (प्रताप जरियाल) सच कहना आज राष्ट्रद्रोही और आतंकवादी होना है-सच बयानी जो आदत है/ उनके आइन में बगावत है। (प्रेम भारद्वाज) बार-बार बोला जाने वाला झूठ भी सच बन जाता है।
विनोद प्रकाश गुप्ता 'मधुप का व्यंग्य देखें- इधर शोले भड़कते हैं पहाड़ों पर मगर/ वो ये कहते नहीं थकते कि बर्फबारी का मौसम है। उपभोक्तावादी सभ्यता स्वार्थपरक संबंधों का ताना-बाना बुन रही है- जानता था लतीफ रिश्तों का/ नरम धागा कभी तो टूटेगा। बारिशे दर्दों गम से घबरा कर / मेरा रहबर ही मुझको लूटेगा। (जाहिद अबरोल) और मेरे दो शेर देखें-खींचता है कभी हटाता है/ वो रजाई सा ओढ़ता है मुझे।- हो गया है वो भी मानो वस्तु अब उपभोग की ही/ आदमी अब बोट है हथियार है एक उपकरण है। मरती हुई संवेदनाओं पर शेर देखें- जख्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहां/ यह सदी पत्थर सी है संवेदनाओं के खिलाफ। (द्विजेंद्र द्विज) छल-कपट की राजनीति में स्वयं को मसीहा बताने वाले भस्मासुरों की कमी नहीं है- करता है बात अकसर लपेट कर/ रखता है आसतीं में जो खंजर लपेट कर। (नकुल गौतम) किसान और मजदूर के दर्द पर भी बहुत महसूस करके लिखा गया है- चमकते हैं कीचड़ से लथपथ बदन वो/ जो धरती पे इतने कंवल लिख रहे हैं।
दरख्तों के साए पे हक है तो उनका/ कि जो धूप में आजकल लिख रहे हैं। (मधुभूषण शर्मा 'मधुर) जो उगा कर पेट भर दे रोटियां/ बात उसके हो जरा सम्मान की। (शक्ति राणा) महानगरीय भौतिकवादी सभ्यता पर शेर देखें- गांव जब जाओ तो कुछ उपचार उनसे पूछना/ क्यों हुआ है शहर यह बीमार उनसे पूछना। (राजीव भड़ोल)-हंसी भी बोएं तो उगते हैं आंसू/ अजब इस शहर की आबोहवा है। (सुरेश चंद शौक)- कितना बदल गया है नगर देखता रहा/ तहजीब और अदब के खंडर देखता रहा। (नासिर यूसुफजई) नलिनी विभा का शेर देखें- गूंज इनमें नहीं तरानों की/ बंद हैं खिड़कियां मकानों की। बेटियों की पीड़ा और पर्यावरण पर भी कलम ख्ूाब चली है- नहीं हैं पेड़ पत्थर जीव जो बहते हैं दरिया में/ बहाई जा रही है टुकड़ा-टुकड़ा लाश पर्वत की। (पवनेंद्र पवन) शिवालिक की हो या हिमालय की बेटी/ बना बांध रोका गया है नदी को। हिमाचल की समकालीन गज़़ल आज के युग के हर विषय पर अपनी धारदार कलम चलाकर गज़़ल के विकास में अहम योगदान दे रही है।
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