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इफ्तार का आयोजन करते दिखे। ऐसे में, उदयपुर शिविर में धार्मिक कार्यक्रमों से जुड़ने का कांग्रेस का प्रस्ताव वास्तव में समझने लायक है।
उदयपुर में संपन्न हुए कांग्रेस के चिंतन शिविर को एक खोए हुए अवसर के रूप में जाना जाएगा। चाहे वह नेतृत्व का मुद्दा हो, बड़े सुधार हों, भावुक मुद्दे पर स्पष्टता की बात हो या फिर सबसे पुरानी पार्टी में आधुनिकता लाने का मसला हो, उदयपुर में इन सब पर विचार-विमर्श और निर्णय आधे-अधूरे तरीके से हुआ, जिनमें शर्तें तो थीं, लेकिन भरोसे का अभाव था। चिंतन शिविर में जी-23-यानी कांग्रेस के बागी गुट की खामोशी भी उतनी ही खटकने वाली थी।
अगस्त, 2020 से ही इस बागी गुट ने खुद की छवि मुखर सुधारवादी और परिवर्तन के आकांक्षी की बना रखी है। लेकिन देश भर से आए पार्टी के 430 नेताओं और प्रतिनिधियों के बीच ये चुप रहे। कपिल सिब्बल शिविर में मौजूद नहीं थे, पर 15 अगस्त, 2020 को पार्टी नेतृत्व को लिखी जिस चिट्टी से हलचल मच गई थी, उस पर दस्तखत करने वालों में गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, भूपिंदर सिंह हुड्डा, पृथ्वीराज चव्हाण, शशि थरूर, विवेक तनखा, मनीष तिवारी और दूसरे लोग शिविर में थे। लेकिन इन तमाम लोगों ने चुप्पी साधे रखी। हां, यह सुगबुगाहट जरूर थी कि इनमें से कुछ लोग राज्यसभा में जाना चाहते हैं। इसी कारण कभी प्रसिद्ध और अनुशासनप्रिय छवि वाले, लेकिन फिलहाल बेहद कमजोर हाई कमान को चिंतन शिविर में इन बागियों पर हावी होने में आसानी हुई।
पार्टी नेतृत्व का बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा अनुत्तरित रहा। शिविर में एकाधिक कांग्रेस नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर राहुल गांधी को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का 87वां अध्यक्ष चुने जाने की मांग की। हैरान करने वाली बात यह है कि अब तक जो नेता राहुल गांधी के नेतृत्व और उनके कामकाज के तौर-तरीके का विरोध कर रहे थे, उनमें से भी कुछ ने राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाए जाने की मांग यह सोचकर की कि खुद गांधी परिवार की तरफ से इसका विरोध होगा। राहुल गांधी ने भी नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालने की कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। चिंतन शिविर में राहुल गांधी की देहभाषा कभी ऐसी लगी ही नहीं कि वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में वह कांग्रेस का नेतृत्व करने के इच्छुक हैं। हालांकि कुछ पार्टी नेताओं ने बेहद आश्वस्त अंदाज में कहा कि कांग्रेस में नेतृत्व के मुद्दे का निर्णय पहले ही हो चुका है और राहुल गांधी का अध्यक्ष बनना तय है।
राहुल गांधी की टीम को पंचायत से लेकर संसद तक में लगा दिया गया है, जिसका पार्टी में हर पद और जगह पर नियंत्रण है। कांग्रेस के नए अध्यक्ष का कार्यकाल वर्ष 2022 से 2027 तक होने वाला है। उनका तर्क है कि क्या गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को कांग्रेस इतने लंबे समय तक अध्यक्ष बनाए रख सकेगी? सवाल यह भी है कि तीन गांधियों-यानी सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका की मौजूदगी में गांधी परिवार से बाहर का कोई अध्यक्ष क्या स्वतंत्र रूप से अपनी जिम्मेदारी निभा पाएगा। उदयपुर में इन सवालों का कोई जवाब नहीं मिला। 'कोटे के भीतर कोटा', यानी कि महिला आरक्षण विधेयक पर पार्टी की सहमति न सिर्फ प्रतिगामी है, बल्कि इससे साफ है कि कांग्रेस ने समय बीत जाने पर इस पर अपना विचार बदला है। अगर कांग्रेस ने महिला आरक्षण विधेयक में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और दूसरे पिछड़े वर्ग की महिलाओं के कोटे पर सहमति जताई होती, जिससे कि लोकसभा और विधानसभाओं की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जातीं, तो वह विधेयक तब पारित हो जाता।
गौरतलब है कि वर्ष 2010 में कांग्रेस ने, जो तब केंद्र में गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही थी, महिला आरक्षण विधेयक पेश किया था, लेकिन मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के विरोध के कारण, जो महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के भीतर मुस्लिम, दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं को आरक्षण देने की मांग कर रहे थे, कांग्रेस इस विधेयक को पारित नहीं करवा पाई थी। तब मुलायम, लालू और शरद यादव जैसे नेताओं का कहना यह था कि महिला आरक्षण विधेयक को उसके मौजूदा स्वरूप में पारित करवा देने का फायदा मुख्य रूप से ऊंची जातियों की महिलाओं को ही होगा। महिलाओं को आगे न बढ़ने देने का नतीजा यह है कि संसद में महिला सांसदों के प्रतिशत के मामले में 193 देशों की सूची में भारत 148 वें स्थान पर है।
चिंतन शिविर में कांग्रेस नेताओं ने संगठन को नया रूप देने के लिए एक पुराने प्रस्ताव पर विचार किया, जिसमें ब्लॉक, मंडल, शहर और जिला स्तर पर कांग्रेस कमेटियों को भंग कर उनकी जगह पोलिंग बूथ तथा लोकसभा व विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी इकाइयां गठित करने की बात हुई। पर कुछ नेताओं ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि इससे कांग्रेस की छवि सामाजिक बदलाव लाने और बुनियादी स्तर पर काम करने वाली पार्टी के बजाय चुनावी मशीन की बन जाएगी।
चिंतन शिविर में कांग्रेस ने अपनी वैचारिकता से जुड़ी धुंध साफ करने की कोशिश की, लेकिन उसमें स्पष्टता नहीं थी। धर्म को प्रमुखता देने तथा सेक्यूलरिज्म जैसे शब्दों पर तीखी बहस हुई, जिसमें उत्तर और दक्षिण भारत का विभाजन साफ दिखता था। कमलनाथ और भूपेश बघेल समेत उत्तर प्रदेश के कुछ नेताओं ने धर्म से जुड़ाव प्रदर्शित करने वाले कार्यक्रम शुरू करने की मांग की। दूसरे शब्दों में, कांग्रेस नेताओं को 'दही हांडी' प्रतियोगिताओं का आयोजन करने, जिला और प्रदेश कमेटी के कार्यालयों में गणेश की प्रतिमा स्थापित करने और स्थानीय स्तर पर नवरात्रि मनाए जाने का प्रस्ताव रखा गया। लेकिन कार्यसमिति के सदस्यों बी.के. हरिप्रसाद और डॉ. चिंता मोहन के अलावा दक्षिण भारत के दूसरे नेताओं ने इसका विरोध करते हुए कहा कि राजनीति को धर्म से जोड़ने का मतलब भाजपा की पिच पर जाना होगा।
मई, 2014 के बाद से ही विचारधारा से जुड़ी कांग्रेस की दुविधा ज्यादा स्पष्टता के साथ सामने आई है, लेकिन इस दरम्यान पार्टी का नेतृत्व करने वाले यानी सोनिया और राहुल गांधी ने वैचारिक दृढ़ता दिखाने के बजाय इस मुद्दे की अनदेखी ही की है। बल्कि दिसंबर, 2017 से मई, 2019 तक कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी मंदिरों में पहुंचते और इफ्तार का आयोजन करते दिखे। ऐसे में, उदयपुर शिविर में धार्मिक कार्यक्रमों से जुड़ने का कांग्रेस का प्रस्ताव वास्तव में समझने लायक है।
सोर्स: अमर उजाला
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