सम्पादकीय

उपभोक्ता का हित

Subhi
13 Jun 2022 5:13 AM GMT
उपभोक्ता का हित
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भ्रामक विज्ञापनों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने लंबे समय बाद सख्त कदम उठाया। उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने कड़े दिशानिर्देश जारी यह साफ कर दिया है कि अब कोई भी कंपनी भ्रामक विज्ञापनों के जरिए उपभोक्ताओं को अपने जाल में फंसाने की कोशिश न करे, वरना उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी।

Written by जनसत्ता: भ्रामक विज्ञापनों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने लंबे समय बाद सख्त कदम उठाया। उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने कड़े दिशानिर्देश जारी यह साफ कर दिया है कि अब कोई भी कंपनी भ्रामक विज्ञापनों के जरिए उपभोक्ताओं को अपने जाल में फंसाने की कोशिश न करे, वरना उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी। हालांकि भ्रामक विज्ञापनों से ग्राहकों को लुभाने का कंपनियों का यह खेल कोई नया नहीं है।

यह वर्षों से चला आ रहा है। यह चलता भी इसीलिए रहा क्योंकि सरकार ने पहले कभी कोई ऐसी सख्ती नहीं दिखाई, न ही ऐसे व्यापक दिशानिर्देश जारी किए जिनसे कंपनियां और विज्ञापन करने वाले गलत करने से थोड़ा भी डरते। लेकिन अब जब उत्पादों को लेकर उपभोक्ताओं की शिकायतें तेजी से बढ़नी लगीं और उपभोक्ता अदालतों में बड़ी संख्या में मामले जाने लगे तो सरकार के लिए भी इस पर विचार करना जरूरी हो गया था। जाहिर है, इसका रास्ता यही है कि उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए सरकार न केवल दिशानिर्देश दे, बल्कि उन पर सख्ती के साथ अमल भी करवाए।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नए दिशानिर्देशों में भ्रामक विज्ञापन देने वाली कंपनियों पर तो लगाम कसी ही गई है, साथ ही उन हस्तियों को भी अब कार्रवाई के दायरे में लाया जा सकेगा जो ऐसे उत्पादों का विज्ञापन करती हैं। दरअसल यह जमाना विज्ञापन का है। बाजार विज्ञापन की दुनिया पर ही टिका है। लेकिन मुश्किल तब खड़ी होती है जब बाजार में उपभोक्ताओं के हितों के साथ खिलवाड़ होने लगता है। आज अखबार, टीवी, सोशल मीडिया, यूट्यूब आदि विज्ञापन का बड़ा माध्यम हैं। ऐसे में हर व्यक्ति तक कंपनियों की पहुंच पहले के मुकाबले बहुत आसान हो गई है।

हर हाथ में मोबाइल होने का सबसे बड़ा असर यही हुआ है कि हरेक तक बाजार की पहुंच बन गई है। कंपनियां बड़ी-बड़ी हस्तियों से विज्ञापन करवाती हैं। अक्सर लोग ऐसे विज्ञापनों से प्रभावित होकर ही उत्पाद खरीदते हैं, पर उसकी गुणवत्ता या दूसरे पक्षों की गहराई में नहीं जा पाते। बाद में पता चलता है कि वह उत्पाद वैसा तो निकला ही नहीं जैसा विज्ञापन विशेष में दावा किया गया था। ऐसे में सवाल है कि ग्राहक करे तो क्या करे? कहां जाए? उपभोक्ता अदालतों पर काम का बोझ कम नहीं है। मामले निपटने में वर्षों लग जाना आम बात है।


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