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दुनिया में राय और सलाह मानवीय जीवन के दो ऐसे धागे हैं जिनसे बच निकलना किसी के लिए संभव नहीं। आदमी कहीं न कहीं, कभी न कभी इनमें उलझता ही है। आदमी के जीवन में राय और सलाह ऐसे गुत्थमगुत्था हैं मानो साँसों की माला हो। पहले आदमी किसी भी विषय पर अपनी राय देता है, फिर लगे हाथ बिन माँगी सलाह भी दूसरे की झोली में डाल देता है। राय देने वाले अक्सर बिना पूछे वक्त-बेवक्त, कहीं भी उसी तरह राय पेल देते हैं, जैसे सरकारें बिना किसी अध्ययन के या लोगों से मशविरा किए बिना कल्याणकारी योजनाएं पेलती हैं। ऐसे लोगों को आम भाषा में राय चंद कहा जा सकता है। अक्सर राय चंद किसी से मुलाक़ात के दौरान या गपशप करते हुए कहीं भी राय फैंक सकते हैं। ये लोग किसी भी विषय पर अपना ज्ञान बघारते हुए अपनी नाक खुजाते या तोंद पर हाथ फेरते हुए राय दे सकते हैं। आप किसी भी व्यक्तिगत या सामाजिक समस्या पर बात आरम्भ करें, इनके पास पहले ही समस्या का समाधान मौजूद रहता है। इन्हें एक भ्रम होता हैं कि दुनिया में इनसे बुद्धिमान व्यक्ति कोई और नहीं। ऐसे राय चंद किसी गली-मोहल्ले में बात करते हों तो ठीक, नहीं तो देश में सबसे शक्तिशाली पद पर बैठा राय चंद भी प्रायोजित मीडिया साक्षात्कार में बेरोजग़ारी की शाश्वत समस्या को हल किए जाने के सम्बन्ध में पूछे गए प्रश्न को राय में बदलते हुए बेरोजग़ारों को पकौड़े तलने की सलाह दे सकता है। राय चंदों की तरह सलाहकारों के बिना भी जि़ंदगी अधूरी रहती है। किसी कार्य के विपरीत परिणाम मिलने पर अक्सर लोग कहते हैं कि अगर उसने मेरी सलाह मानी होती तो यह अनर्थ नहीं होता। लेकिन जब किसी की सलाह से किसी का भ_ा बैठ जाता है तब कोई नहीं कहता कि मेरी सलाह ने उस आदमी का कबाड़ा कर दिया। इतिहास में झाँकंे तो पता चलता है कि त्रेता युग में मन्थरा द्वारा कैकेयी को दी गई सलाह से राम को घर छोडऩा पड़ा था और रामायण रची गई। मन्थरा की इस सलाह से उस युग में किसी को क्या फायदा या नुक़सान हुआ, यह शोध का विषय है। पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भाजपा घोर कलि काल में जी भर कर दुह रही है। पर ज़रूरी नहीं कि सलाहें मानी भी जाएं।
अगर श्री कृष्ण या महात्मा विदुर की सलाहें मानी गई होतीं तो शायद महाभारत का वितण्डा घडऩे से बच जाता। वैसे सलाह तो धर्मराज युधिष्ठिर ने भी जुआ खेलते वक्त नहीं मानी थी। अन्यथा द्रौपदी का चीरहरण हमारे उन वर्तमान माननीयों की प्रेरणा का स्रोत न बनता, जो सत्ता के मद में दुर्योधन या दु:शासन की तरह कई बालिग या नाबालिग महिलाओं का चीरहरण करने को अपनी शान समझते हैं और सरकार धृतराष्ट्र बनी रहती है तथा पुलिस दरबारी। इसके बावजूद पता नहीं हमारी सरकारों को सलाहकारों से इतना मोह क्यों है कि बिना सलाहकारों के उनका काम ही नहीं चलता। तमाम तरह के सरकारी अमले के बावजूद हर नई सरकार गठित होते ही, दस तरह के वे सलाहकार कैबिनेट रैंक के रुतबे के साथ सरकार के कार्यकाल के समानान्तर नियुक्त कर देती है, जिनकी औक़ात किसी सरकारी दफ़्तर में पियून बनने की भी नहीं होती। सलाह देने वालों के लिए घड़ा गया शब्द सलाहकार, रायचंद के बरअक्स सुनने में भी बेहतर लगता है, जबकि इन्हें सलाहचंद भी कहा जा सकता है। सलाहकार कई कि़स्म के होते हैं, जैसे राजनीतिक सलाहकार, आर्थिक सलाहकार, क़ानूनी सलाहकार, योजना सलाहकार, मीडिया सलाहकार वग़ैरह-वग़ैरह। इन सलाहकारों के लिए अपने पद पर बने रहने की सबसे अधिक अनिवार्य और वाँछित योग्यताओं में चाटुकारिता सर्वोपरि है। अत: यक्ष प्रश्न है कि क्या सलाहकार बनने के लिए चाटुकार होना ज़रूरी है या एक चाटुकार ही सलाहकार बन सकता है। अगर चाटुकारिता अनिवार्य योग्यता नहीं होती तो कई सलाहकार अपना कार्यकाल पूरा किए बिना व्यक्तिगत कारणों से बीच में ही अपना इस्तीफा क्यों देते। पर सरकारें हैं कि बिना सलाहकारों के मानती ही नहीं और सलाहकारों के तमाम तामझाम के बावजूद बदलती रहती हैं।
पीए सिद्धार्थ
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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