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आज हम ऐसी दौर में हैं, जब भारत की राजनीति समाज में धर्म और जाति के आधार पर भेद पैदा कर चुकी है
भावमूलक और क्रूर व्यवस्था बना देना, लोगों के जीवन के अधिकार को छीनने वाली व्यवस्था बना देना बहुत आसान होता, लेकिन वह भारत के वजूद की समाप्ति की शुरुआत भी होती.
आज हम ऐसी दौर में हैं, जब भारत की राजनीति समाज में धर्म और जाति के आधार पर भेद पैदा कर चुकी है. यहां अल्पसंख्यक को ही नहीं, बल्कि बहुसंख्यक को डराया जा रहा है, ताकि समाज में स्थाई टकराव की भूमिका रची जा सके. भारत में टकराव ने अपनी गहरी जड़ें इसलिए जमा ली हैं, क्योंकि आज़ादी के बाद हमने 'संवैधानिक मूल्यों' से ज्यादा अपने 'मतों' को महत्व दिया है. राजनीतिक दलों और सरकारों ने भी संविधान के पौधे को कभी पनपने नहीं दिया. 75 बरसों में भारत ने अगर कोई एक सबसे बड़ी चूक की है तो वह है समाज को संवैधानिक न बनने देने की.
समाज की ज्यादातर व्यवस्थाएं आज भी संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ हैं और भारत के राजनीतिक दल और सांस्कृतिक संगठन ऐसी सामाजिक व्यवस्थाओं के पोषण में जुटे रहे. इसका परिमाण यह है कि आज सबके लिए अपने अपने "सामाजिक मतों और धारणा" का महत्व प्रधान है, और संवैधानिक मूल्यों का कोई महत्व नहीं है. अगर हमने संवैधानिक मूल्यों को स्थापित किया होता, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक व्यवस्थाओं से संवैधानिक मूल्यों से संस्कार किया होता तो आज भारत निश्चित रूप से भीतर से इतना भयभीत और निराश नहीं होता.
हम यह स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं हुए हैं कि भारत भाषा, समुदायों, संस्कृति, मजहबों, रहन-सहन के विविध व्यवहारों से बना हुआ गुलदस्ता है. इस गुलदस्ते को तभी संजो कर रखा जा सकता है जब सभी समुदाय और लोग संविधान में दर्ज मूल्यों को सबसे ऊंचा दर्ज़ा देते हों. जिन्हें स्वीकार करने में कोई विकल्पों की चयन की स्थिति नहीं बनती. आज तो स्थिति यह बन गई है कि भारत के सबसे प्रमुख राजनीतिक संगठन संविधान को भी एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हैं और अपनी शैली में उसके वजूद को खारिज भी कर देते हैं. अगर समाज ने संविधान को सर्वोच्च दर्ज़ा दिया होता तो देश का हर बच्चा शिक्षित भी होता, हर व्यक्ति के हाथ में काम भी होता, विविध धर्मों के बीच सर्वोच्चता का संघर्ष नहीं होता और हम छुआछूत-असमानता के भंवरजाल से से निकल पाते.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सचिन कुमार जैन, निदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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