सम्पादकीय

संविधान दिवस: क्यों आज हमें अंबेडकर की 3 चेतावनियों को याद करना चाहिए?

Gulabi
26 Nov 2021 5:20 PM GMT
संविधान दिवस: क्यों आज हमें अंबेडकर की 3 चेतावनियों को याद करना चाहिए?
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आज भारत का ‘सातवां संविधान दिवस’ है

आज भारत का 'सातवां संविधान दिवस' है. जी बिल्कुल और इसमें चौंकने की आवश्यकता इसलिए नहीं होनी चाहिए क्योंकि भारत का संविधान लागू हुए भले 71 साल से अधिक हो गए हैं, लेकिन देश ने 'संविधान दिवस' मनाना, अभी छह साल पहले शुरू किया है. देश ने 'पहला संविधान दिवस' 26 नवंबर 2015 को मनाया था. दरअसल, 14 अप्रैल 2015 से संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष रहे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का 125वां जयंती-वर्ष शुरू हुआ था. इसी दौरान तत्कालीन सरकार ने निर्णय लिया कि इसी वर्ष से 26 नवंबर को 'संविधान दिवस' के रूप में मनाया जाएगा. इस तरह नवंबर का 26वां दिन 'भारत का संविधान दिवस' हो गया. इससे पहले 26 नवंबर को 'राष्ट्रीय कानून दिवस' (नेशनल लॉ डे) के रूप में मनाया जाता था.

हालांकि संभव है कि इस बारे में यह तकनीकी जानकारी बहुत कम लोगों को हो. इसी तरह की संविधान से जुड़ीं और भी तमाम जानकारियां हैं, जो बहुसंख्य लोगों को या तो पता नहीं हैं या उनके बारे में भ्रांति है. उनमें से कुछ जानकारियों के बारे में संक्षेप में इस लेख के अंत में चर्चा है. लेकिन पहले 'संविधान और संविधान दिवस' के ताल्लुक भीमराव अंबेडकर की उन तीन चेतावनियों पर जिक्र जरूरी है, जो आज बेहद प्रासंगिक हैं. ये चेतावनियां बाबा साहेब ने 25 नवंबर 1949 को दी थीं. इसके अगले दिन यानि 26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान के मसौदे को स्वीकृति मिलना तय था.
संविधान के प्रारूप को अंतिम रूप दिया जा चुका था. लिहाजा, एक रोज पहले अंतिम बैठक में संविधान निर्माण समिति के सदस्यों के आखिरी उद्बोधन हो रहे थे. उसी क्रम में बाबा साहेब ने भी उद्बोधन दिया. उसमें भविष्य के लिए जिस तरह उन्होंने सचेत किया, उसे देखते हुए उनके उद्बोधन को 'ग्रामर ऑफ एनार्की' यानि 'अराजकता का विवेचन' या 'अराजकता का व्याकरण' कह दिया गया था. आज के संदर्भ में विचारयोग्य अंबेडकर की तीन चेतावनियां इस तरह थीं…
1. 'मेरे हिसाब से पहली बात तो यह है कि हमें अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के संवैधानिक तरीकों को दृढ़ता से पकड़े रहना चाहिए. इसका मतलब है कि हमें आंदोलन के हिंसक को त्यागना होगा. इसका मतलब है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग, सत्याग्रह आंदोलन जैसे तरीकों को छोड़ना होगा. जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों के लिए कोई रास्ता नहीं बचा था, तब तो ऐसे असंवैधानिक तरीकों का एक औचित्य भी था. मगर जहां संवैधानिक तरीके खुले हैं, वहां इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं है. ये तरीके 'अराजकता के व्याकरण' के अलावा और कुछ नहीं हैं. जितनी जल्दी इन्हें छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना अच्छा है.'
2. 'आयरिश राष्ट्रवादी नेता डेनियल ओ'कोनेल ने एक बार कहा था- कोई भी पुरुष अपने सम्मान की कीमत पर किसी का आभारी नहीं हो सकता. कोई महिला अपनी शुचिता/अस्मिता की कीमत पर किसी की आभारी नहीं हो सकती. कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर किसी का आभारी नहीं हो सकता. किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत के मामले में ओ'कोनेल की यह चेतावनी कहीं अधिक अहमियत रखती है. दरअसल, दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत में भक्ति या 'महानायकों की पूजा' का अपना महत्व है. राजनीति में भी यहां इसकी अतुलनीय भूमिका है. लेकिन याद रखिए, धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है. लेकिन राजनीति में 'भक्ति' या नायक पूजा पतन और अंततः तानाशाही की ओर ले जाने वाला सुनिश्चित मार्ग हो सकता है.'
3. 'राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि इसके आधार पर सामाजिक लोकतंत्र स्थापित न हो. और सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ एक ऐसा तरीका है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के आदर्शों के रूप में पहचानता हो. …स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता. समानता को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता. इसी तरह स्वतंत्रता और समानता को बंधुत्व से भी अलग नहीं किया जा सकता. समानता के बिना स्वतंत्रता बहुत से लोगों पर कुछ चंद लोगों की श्रेष्ठता/सर्वोच्चता स्थापित करेगी. ऐसे ही, स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्तिगत पहल के आग्रह को खत्म कर देगी. इसी तरह बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता का स्वाभाविक क्रम नहीं बैठेगा.'
अब आंबेडकर की इन तीनों चेतावनियों के बरअक़्स कुछ स्वाभाविक प्रश्न…
पहला- अहिंसक और कहीं-कभी हिंसक भी, आंदोलनों का सिलसिला आजादी और संविधान लागू होने के इतने वर्षों बाद भी भारत में जारी है. तो क्या हम विरोध के कानूनी, संवैधानिक तरीकों पर अपनी पकड़ खो चुके हैं? या ढीली कर चुके हैं?
दूसरा- आध्यात्मिक भक्ति मार्ग की चिरंतन परंपरा के बजाय क्या इन दिनों हम 'राजनीतिक भक्ति मार्ग' की ओर अग्रसर हो चले हैं?
तीसरा- क्या हमारे राजनीतिक लोकतंत्र में सामाजिक लोकतंत्र स्थापित हो चुका है? ऐसा, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को 'जीवन का आदर्श' मानता हो?
तीनों चेतावनियों और प्रश्नों पर वर्तमान संदर्भों में विचार जरूर करना चाहिए. क्योंकि देश का जन, गण जब तक इस तरह के प्रासंगिक विषयों, प्रश्नों पर चिंतन नहीं करेगा. उनके समाधान नहीं खोजेगा, 'संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न गणराज्य' की अवधारणा सही अर्थों में मूर्त हो नहीं पाएगी.
'देश का 'पहला स्वतंत्रता दिवस' और कुछ अहम जानकारियां…
– भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ. इसलिए क्योंकि 'पूर्ण स्वराज' के प्रस्ताव पर 'अमल करने की शुरुआत' 26 जनवरी से हुई थी. इसी दिन 1930 में देश ने 'पहला स्वतंत्रता दिवस' मनाया था. यह सिलसिला तब तक चला, जब तक कि 15 अगस्त 1947 को भारत का 'वास्तविक स्वतंत्रता दिवस' नहीं आ गया.
– भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में 19 दिसंबर 1929 को 'पूर्ण स्वराज' का संकल्प स्वीकृत और पारित किया था. उसी में तय हुआ कि 26 जनवरी 1930 को सांकेतिक रूप से देश का 'पहला स्वतंत्रता दिवस' मनाया जाएगा.
– गुजरात के सुधारवादी मुस्लिम नेता हसरत मोहानी ने पहली बार 'पूर्ण स्वराज' का विचार सामने रखा था. उन्होंने एक अन्य सुधारवादी नेता स्वामी कुमारानंद के साथ मिलकर 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में यह प्रस्ताव पेश किया था. मोहानी ने ही 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा भी गढ़ा था.
– हिन्दी और अंग्रेजी में लिखी गईं संविधान की दो हस्तलिखित प्रतियों पर संविधान-सभा के सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को दस्तखत किए थे. इस संविधान की रूपरेखा तैयार करने में 2 साल 11 महीने 18 दिन का वक्त लगा. इस दौरान मसौदा समिति ने 166 दिन बैठकें आयोजित कर विचार-विमर्श किया.
– संविधान की मूल प्रस्तावना में पहले न तो 'धर्मनिरपेक्ष' (सेकुलर) शब्द था और न ही 'समाजवादी' (सोशलिस्ट). ये दोनों ही शब्द 1976 में हुए संविधान संशोधन के जरिए उसकी प्रस्तावना में जोड़े गए थे.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
नीलेश द्विवेदी
नीलेश द्विवेदी स्वतंत्र पत्रकार
दो दशक तक टेलिवजन, प्रिंट और वेब पत्रकारिता करने के बाद स्वतंत्र लेखन. सामाजिक, राजनीतिक और संगीत पर लिखते रहे हैं. कई किताबों का अनुवाद भी कर चुके है.
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