सम्पादकीय

संविधान दिवस विशेष: आजादी का अमृत महोत्सव, संविधान और बच्चे 

Neha Dani
26 Nov 2021 1:45 AM GMT
संविधान दिवस विशेष: आजादी का अमृत महोत्सव, संविधान और बच्चे 
x
हमारे बच्चों को उनके हिस्से का पूरा अमृत चाहिए। हम राजनैतिक नेतृत्व और नीति निर्माताओं से इतनी “करूणा” की आशा तो रख ही सकते हैं।

देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। आजादी अपने आप में मन को प्रफुल्लित और उत्साहित कर देने वाला भाव है। संविधान हमारी उसी आजादी का लिखित दस्तावेज है जो हमारे लिए सारे अधिकारों की गारंटी देता है। हमें अधिकार मिले हैं तो हमारे कर्तव्य, भी निर्धारित हैं।

संविधान दिवस के अवसर पर बात की शुरुआत के लिए संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित 'न्याय' शब्द सटीक होगा। संविधान सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, हर स्तर पर न्याय की व्यवस्था देता है। तीनों ही परस्पर आश्रित हैं।
सामाजिक स्तर पर बराबरी का अधिकार दिए बिना किसी को आर्थिक रूप से पूरी तरह स्वतंत्र करना असंभव है और यदि राजनीतिक स्तर पर उसके साथ न्यायपूर्ण आचरण न हो तो उसका आर्थिक और सामाजिक न्याय संकट में आ सकता है। भावना सुंदर है पर उसे धरातल पर उतारने के हमारे प्रयास कितने सफल हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। यदि संविधान की प्रस्तावना में वर्णित इस एकमात्र विचार को ही मनसा, वाचा, कर्मणा अपना लिया जाए तो देश में क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकते हैं।
बाल मित्र ग्राम इसका एक नायाब उदाहरण है। बाल मित्र ग्राम
नोबल पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्यार्थी का एक अभिनव प्रयोग है। बाल मित्र ग्राम लोकतांत्रिक व्यवस्था में बच्चों की भागीदारी का एक सफल प्रयोग भी है। श्री कैलाश सत्यार्थी की कहते हैं, "बच्चे देश का भविष्य हैं। यह एक लोक-लुभावन या आदर्श वाक्य भर नहीं है। अगर कोई परिवर्तन बच्चों के माध्यम से लाया जाए तो वह टिकाऊ होगा, और उसमें नए प्रयोगों की अधिक संभावना रहेगी।" सहसा यह स्वीकारना मुश्किल हो, लेकिन यह है सच।
अब राधा पांडेय को ही लीजिए। कोडरमा की राधा एक बाल मित्र ग्राम की बाल पंचायत की सरपंच है। बाल मित्र ग्राम बनाने की प्रक्रिया के तहत बच्चों को हर प्रकार के शोषण से मुक्त रखते हुए, उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी जरूरतों का ध्यान रखने के साथ-साथ उनके भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों का भी संचार किया जाता है।
बच्चों को संविधान से परिचित कराया जाता है। उनके अधिकारों और देश-समाज के प्रति उनके कर्तव्यों का भान कराते हुए उन्हें भविष्य के लीडर के रूप में तैयार किया जाता है। बच्चों की एक चुनी हुई प्रतिनिधि सभा बाल पंचायत होती है। ग्राम पंचायत उसे मान्यता देकर अपने दैनिक कार्यकलापों में उसको भागीदारी देती है। इस तरह बच्चे लोकतंत्र की मूल भावना से परिचित होते हैं और उन विषयों पर अपने विचार मुखरता से रखते हैं जो उन्हें सीधे-सीधे प्रभावित करते हैं।
राधा अपने गांव की बाल सरपंच थीं। 16 वर्ष में पिता ने विवाह तय कर दिया। राधा को पता था कि 18 से कम उम्र में लड़की का विवाह ग़ैर-कानूनी है। उसने अपने परिवार को समझाने का प्रयास किया, पर सबने झिड़क दिया। राधा अपने संवैधानिक अधिकारों से भली-भांति परिचित थी। इसने परिवार को कानूनी कार्रवाई का डर दिखाकर अपनी शादी रुकवाई। इसके बाद और भी नाबालिग बच्चियों की शादी रुकवाई। इस साहसिक कार्य के लिए जिलाधिकारी ने राधा को कोडरमा जिले का बाल विवाह के विरुद्ध ब्रांड अंबेसडर बनाया। राधा ने संविधान से मिले अपने अधिकार का इस्तेमाल किया और दूसरों को उनका संवैधानिक अधिकार दिलाकर अपना कर्तव्य भी निभाया।
ललिता ने उस संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करते मात्र 13 साल की उम्र में स्कूल में हो रहे छुआछूत के विरूद्ध मुखरता से आवाज उठाई। - फोटो : ANI
एक अन्य उदाहरण राष्ट्रीय बाल पंचायत की सरपंच ललिता का दिया जा सकता है। संविधान की मूल भावना है कि उसकी नजर में सब बराबर हैं। अस्पृश्यता का कोई स्थान न होगा और सबको गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार मिलेगा। ललिता ने उस संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करते मात्र 13 साल की उम्र में स्कूल में हो रहे छुआछूत के विरूद्ध मुखरता से आवाज उठाई। समाज तथा स्कूल प्रशासन को उस बच्ची के सामने झुकना पड़ा।
ललिता के कारण केवल उसके स्कूल से भेदभाव नहीं मिटा बल्कि उस गांव में भी दलितों की सामाजिक स्थिति सुधरी जहां कि वह बाल सरपंच थीं। ललिता ने भी अपने अधिकार का इस्तेमाल कर खुद का जीवन बदला और और फिर अपने कर्तव्य का इस्तेमाल कर लोगों के जीवन में बदलाव लाया। इन बच्चियों की अपने अधिकारों के प्रति सजगता और अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाने के संकल्प में हम आजादी का अमृत महोत्सव देख सकते हैं।
इस अवसर पर प्रस्तावना के दो अन्य शब्दों 'समता' और 'व्यक्ति की गरिमा' का भी उल्लेख विशेष रूप से जरूरी हो जाता है। समता का अधिकार देते समय संविधान उससे बच्चों को बाहर नहीं रखता। ऐसा कहीं कोई संदर्भ नहीं है जो बच्चों को बराबर मानने से रोकता हो। फिर हम उनका अधिकार उनसे क्यों छीन रहे हैं? आज भी लाखों बच्चों का बचपन गुलाम है और वे बाल मजदूरी के लिए अभिशप्त हैं। उनके लिए अमृत महोत्सव का यह अर्थ रहेगा!
हमें बच्चों की गरिमा का भी ध्यान रखना होगा। उनके भी सुझाव हो सकते हैं, उनकी भी सहमति और असहमति हो सकती है। यह अवसर आजादी के उत्सव का है इसलिए मैं कहूंगा कि भारत के बच्चों के साथ न्यायपूर्ण होने की आवश्यकता है। कोविड से सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चे ही हुए हैं। लेकिन दुनियाभर में इससे पैदा हुए संकट से उबरने के लिए जो आर्थिक अनुदान दिए गए, उनमें बच्चों के लिए हिस्सा बहुत ही मामूली है। हमें उनको उनका हिस्सा देना चाहिए।
हमारे संविधान की बड़ी खूबी है कि यह संशोधनों के लिए खुला है। जरूरत के अनुसार इसमें संशोधनों ने बड़े परिवर्तनों का सूत्रपात किया है। बच्चों के अधिकारों और उनके कल्याण के लिए भी संशोधनों के माध्यम से कई प्रावधान किए गए हैं। जिससे बच्चों को शिक्षा जैसे अधिकार मिले और उनके हर तरह के शोषण के विरूद्ध कानून बनाए गए। लेकिन, हमारे नीति निर्धारकों को थोड़ा और उदार होने की आवश्यकता है।
जैसा की श्री कैलाश सत्यार्थी कहते है कि बच्चों और शोषितों के प्रति सोचते समय हमें करूणा से भरे होने की आवश्यकता है। जात-पांत के भेदभाव को पूरी तरह खत्म करने और वास्तव में महिलाओं की समानता सुनिश्चित करने के लिए उदारमना होने की जरूरत है। इस अमृत महोत्सव में हमें उनके हिस्से का पूरा अमृत उन्हें देना होगा। हमारे बच्चों को उनके हिस्से का पूरा अमृत चाहिए। हम राजनैतिक नेतृत्व और नीति निर्माताओं से इतनी "करूणा" की आशा तो रख ही सकते हैं।



Next Story