सम्पादकीय

कानून की आवश्यकता पर भी हो विचार: राजद्रोह कानून का दुरुपयोग गंभीर बात है, लेकिन विचारणीय है उसकी जरूरत और उपयोगिता

Tara Tandi
19 July 2021 1:47 PM GMT
कानून की आवश्यकता पर भी हो विचार: राजद्रोह कानून का दुरुपयोग गंभीर बात है, लेकिन विचारणीय है उसकी जरूरत और उपयोगिता
x
भारतीय राष्ट्र राज्य संप्रभु सत्ता है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क।[ हृदयनारायण दीक्षित ]: भारतीय राष्ट्र राज्य संप्रभु सत्ता है। व्यक्ति की तरह राष्ट्र राज्य की भी अस्मिता है। राष्ट्र को भी आत्मरक्षा के अधिकार हैं। भारतीय दंड संहिता यानी आइपीसी की धारा-121, 121ए, 122, 123, 124 व 124ए में राजद्रोह से निपटने के प्रविधान हैं। इनमें से 124ए के दुरुपयोग और खात्मे पर बहस जारी है। इस कानून में उल्लेख है, 'जो कोई बोले गए, लिखे गए शब्दों या संकेतों या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या उसकी कोशिश करेगा। अप्रीति का प्रसार करेगा, प्रयत्न करेगा वह तीन वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा।' सर्वोच्च न्यायपीठ ने इस कानून के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि 'सरकार ने कई पुराने कानून रद किए हैं। गांधी और तिलक के विरुद्ध भी इस कानून का दुरुपयोग हुआ है। क्या स्वतंत्रता के बाद भी इस कानून की जरूरत है?'कानून का दुरुपयोग बेशक गंभीर बात है, लेकिन कानून की आवश्यकता भी विचारणीय है। आवश्यकता से ही कानून का जन्म होता है। कानूनों में संशोधन और निरसन भी राष्ट्र की आवश्यकता के कारण ही होते हैं। कानून का मसौदा विधेयक पेश करते समय प्रस्तावित विधि के उद्देश्य और कारण बताए जाते हैं।राजद्रोह कानून के विरुद्ध दुरुपयोग का सबसे बड़ा आरोप

राजद्रोह कानून के विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप दुरुपयोग का है। इसके लिए कानून का उपयोग करने वाला तंत्र जिम्मेदार है, कानून नहीं। अवैध हथियार रखना अपराध है। इसके लिए शस्त्र अधिनियम है। यह कानून समाज के लिए उपयोगी है, लेकिन पुलिस इसी कानून में निर्दोषों को भी जेल भेजती है। क्या इसी आधार पर कानून समाप्त करना सही हो सकता है? यहां तमाम कानूनों का दुरुपयोग होता है, लेकिन मात्र दुरुपयोग के आधार पर ही कानून समाप्ति का कोई औचित्य नहीं है। दुरुपयोग रोकना बहुत जरूरी है। इसके लिए कानून प्रवर्तित करने वाले तंत्र के पेच कसने की जरूरत है। राजद्रोह संबंधी कानून के विरुद्ध दूसरा मुख्य आरोप विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक होना है। विचार अभिव्यक्ति संविधान का मौलिक अधिकार है, लेकिन यह निरपेक्ष और असीम नहीं है। इससे जुड़े अनुच्छेद 19 में विचार स्वातंत्र्य पर 'भारत की प्रभुता, अखंडता, सुरक्षा, लोक व्यवस्था और न्यायालय अवमान आदि के बंधन' हैं। यहां विचार अभिव्यक्ति के बहाने राष्ट्र की संप्रभुता अखंडता से खिलवाड़ की छूट नहीं है। ऐसा खिलवाड़ देशद्रोह की श्रेणी में क्यों नहीं आ सकता?

राजद्रोह कानून की संवैधानिकता का परीक्षण उचित

राजद्रोह कानून की संवैधानिकता का परीक्षण उचित है। वर्ष 1962 में सर्वोच्च न्यायपीठ ने केदारनाथ मामले में 124ए की संवैधानिकता का परीक्षण किया था और इसे संवैधानिक घोषित किया था। यह भी कहा था कि 'नागरिकों को सरकार की आलोचना करने का पूरा अधिकार है बशर्ते वे हिंसक विचार से दूर रहें।' भारत में सरकारों की आलोचना होती है। असहमति के अवसर हैं। वैचारिक टकराव भी हैं। मूलभूत प्रश्न है कि क्या राष्ट्रीय अखंडता और संप्रभुता पर भी आक्रमण करना सिर्फ सरकार की ही आलोचना है? भारतीय देश से भावात्मक लगाव रखते हैं। देश की धरती को भारत माता कहते हैं। वंदे मातरम् हमारा राष्ट्रगीत है। पं. नेहरू ने भी 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में देश की धरती और लोगों को भारत माता बताया है। भिन्न-भिन्न समूहों द्वारा भावनाएं आहत होने की चर्चा बहुधा चलती है। राष्ट्रीय अखंडता का अपमान देशद्रोह की श्रेणी में क्यों नहीं आ सकता? कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजद्रोह की चर्चा इन शब्दों में की है, 'यदि साम आदि उपायों से राजद्रोहियों को शांत न किया जा सके तो दंड का प्रयोग होना चाहिए।'

राजद्रोह राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती

राजद्रोह राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती है। भारत में राजद्रोह की घटनाएं घटित होती रहती हैं। कभी करनी द्वारा और बहुधा कथनी द्वारा। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में नारेबाजी हुई, 'भारत तेरे टुकड़े होंगे।' इस नारेबाजी को राजद्रोह नहीं तो क्या सुभाषित की श्रेणी में रखेंगे? दूसरी नारेबाजी और भी आग लगाऊ है, 'अफजल हम शर्मिंदा हैं। तेरे कातिल जिंदा हैं।' यह दोष सिद्ध भारत विरोधी राजद्रोही आतंकी का महिमामंडन है। क्या यह विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का खतरनाक दुरुपयोग नहीं है? इसे राजद्रोह की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जा सकता? पाकिस्तानी झंडे लहराना राष्ट्रीय अखंडता व संप्रभुता पर सीधा हमला है। यह सरासर राजद्रोह है। माओवादी हिंसा राष्ट्र राज्य से युद्ध है। ऐसी घटनाएं विचार और मंसूबे देशद्रोह हैं। ये राजद्रोह की ही श्रेणी में आती हैं। आइपीसी की धारा 124ए में इनका विचारण संभव है। राष्ट्र राज्य की अस्मिता का विधिक संरक्षण जरूरी है। भारत में विधि का शासन है। यहां हर समस्या का समाधान विधि द्वारा ही होता है।

सक्रिय राष्ट्र विरोधी शक्तियों से निपटने के लिए कानून जरूरी

सक्रिय राष्ट्र विरोधी शक्तियों से निपटने के लिए कानून जरूरी हैं। ये ताकतें किसी न किसी रूप में अपने मंसूबे पूरे करने में लगी हैं। आतंकियों की हरसंभव सहायता यही ताकतें करती हैं। राष्ट्र की आंतरिक रक्षा के लिए 124ए की अपनी उपयोगिता है। इसके दुरुपयोग की चर्चा नई नहीं है। दुरुपयोग रोकने के लिए इसी कानून में कतिपय संशोधन संभव हैं। विधि प्रवर्तक तंत्र को भी दुरुस्त करना होगा। इस व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है। न्यायालय की यह बात सही है कि इस कानून में जवाबदेही नहीं है। अदालत ने इस कानूनी प्रविधान की संवैधानिकता जांचने का निश्चय किया है। यह अच्छी बात है, पर संवैधानिकता के साथ इसकी उपयोगिता का निरीक्षण भी जरूरी है। दुनिया के सभी कानूनों का उद्देश्य उपयोगिता ही होता है। उपयोगिता समाप्ति के बाद कानून का कोई अर्थ नहीं रह जाता। तब उसकी समाप्ति ही उचित है।

राजद्रोह कानून पर विचार अभिव्यक्ति के लिटमस टेस्ट से परीक्षण का समय आ गया

न्यायमूर्ति रमना ने कहा है कि 'राजद्रोह कानून पर विचार अभिव्यक्ति के लिटमस टेस्ट से परीक्षण का समय आ गया है।' अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने तर्क दिया है कि दुरुपयोग रोकने के लिए, 'कुछ मार्गदर्शी रक्षोपाय जोड़कर कानून का सही लक्ष्य पाया जा सकता है।' उनके अनुसार इस कानून का सुनिश्चित उद्देश्य व प्रयोजन है। विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनिवार्य है। यह खूबसूरत मौलिक अधिकार है, लेकिन राष्ट्रीय संप्रभुता अखंडता के तोड़कों के विरुद्ध विधिक कार्रवाई का कानून भी जरूरी है। राजद्रोह असाधारण प्रकृति का अपराध है। इसलिए कानून की उपयोगिता है। इस दृष्टि से वेणुगोपाल के सुझाव उपयोगी हैं। मूल समस्या कानून के दुरुपयोग की है, कानून समाप्त करने की नहीं है। माननीय न्यायालय ने समग्रता में सुनवाई व विचारण की बात कही है। विश्वास है कि समग्रता में विचारण का फल राष्ट्र हितैषी होगा।

Next Story