सम्पादकीय

घर से बाहर तक दबाव में कांग्रेस

Rani Sahu
25 Nov 2021 4:12 PM GMT
घर से बाहर तक दबाव में कांग्रेस
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जो लोग यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि कांग्रेस खत्म हो रही है

रशीद किदवईजो लोग यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि कांग्रेस खत्म हो रही है या उस ओर बढ़ रही है, उनको यह पता होना चाहिए कि कांग्रेस आज भी सक्रियता के साथ जीवंत है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों की तरह ही पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के नतीजे यह संकेत दे सकते हैं कि मतदाता भाजपा को कैसे आगाह कर रहे हैं।

कांग्रेस के किले में तृणमूल कांग्रेस द्वारा की जा रही सेंधमारी या त्रिपुरा, गोवा, असम और अन्य जगहों पर उसकी महत्वाकांक्षी चुनावी कोशिशों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। कांग्रेस के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को तोड़ने में लगी तृणमूल कांग्रेस त्रिपुरा, गोवा, असम और अन्य राज्यों में बड़ी महत्वाकांक्षा के साथ चुनावी दौड़ में शामिल है। यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि इन नेताओं के जाने से विशाल और पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के मनोबल पर नकारात्मक असर पड़ेगा। वैसे, पूर्वोत्तर के राज्यों की सियासत का कम या न के बराबर ही संज्ञान लिया जाता है। ज्यादा समय नहीं बीता है, जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी पूर्वोत्तर में अपनी पकड़ का प्रदर्शन किया था। बाद में भाजपा ने सिक्किम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश इत्यादि में 'आया राम-गया राम' की कला को ही सिद्ध करके दिखाया।
यह याद रखना चाहिए कि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली पार्टी कांग्रेस से ही टूटकर बनी है। यह प्रणब मुखर्जी, सीताराम केसरी और पी वी नरसिंह राव का ही कारनामा था, जिसने ममता बनर्जी को कांग्रेस से जाने के लिए मजबूर कर दिया था। इसमें नेहरू-गांधी परिवार- राजीव, सोनिया, राहुल या प्रियंका की कोई भूमिका नहीं थी। दशकों से ममता के सोनिया के साथ अच्छे संबंध रहे हैं। ममता के दफ्तर और उनके आवास पर राजीव गांधी की तस्वीर आज भी प्रमुखता से सजी हुई है।
विचारधारा के मामले में भी तृणमूल का घोषणापत्र प्रमुख सामाजिक-आर्थिक एजेंडे पर कांग्रेस के समान ही प्रतीत होता है। साल 2011 या मई 2021 में उनकी जीत को नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस का भी समर्थन मिला था। इस पृष्ठभूमि में यह एक खुला रहस्य है कि सोनिया, राहुल और प्रियंका को ममता के आगे बढ़ने पर कोई आपत्ति नहीं होगी, जब तक कि अरविंद केजरीवाल जैसे अन्य महत्वाकांक्षी नेताओं को नियंत्रण में रखा जाए। केजरीवाल पहले दिन से दिल्ली, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, गुजरात आदि में कांग्रेस को नीचा दिखाने के लिए तत्पर रहे हैं, यहां गोवा को छोड़कर बाकी सभी राज्य तृणमूल के लिए वर्जित क्षेत्र ही रहे हैं।
हमें यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अभी कांग्रेस और गैर-भाजपा, गैर-एनडीए की कहानी 2024 के लोकसभा चुनावों से जुड़ी है। कांग्रेस अपने घर और व्यवस्था को बनाए रखने व अपने नेतृत्व के मुद्दे को सुलझाने के लिए संघर्ष कर रही है। उसे केरल, पंजाब, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, असम, कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अन्य जगहों से 100 या अधिक लोकसभा सीटें जीतने की उम्मीद है। जबकि ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, लालू-तेजस्वी, एमके स्टालिन, वी कुमारस्वामी, चंद्रबाबू नायडू, अखिलेश यादव और अन्य के नेतृत्व वाले गैर-भाजपा, गैर-एनडीए दलों को कुल संसदीय सीटों में से 150 या अधिक सीटें जीतने की जरूरत पड़ेगी। इस बड़ी तस्वीर से सभी वाकिफ हैं। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व तृणमूल की 50 से अधिक लोकसभा सीटें जीतने की इच्छा को समझता है और जानता है कि इससे ममता बनर्जी को गैर-एनडीए, गैर-कांग्रेसी दलों के बीच समान दर्जा हासिल हो जाएगा। जहां तक कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार का सवाल है, तो पार्टी के अपने दम पर 100 से अधिक सीटें जीतने के बाद प्रधानमंत्री का पद एक लक्ष्य बन जाएगा, यह एक अलग संभावना है।
अगर कांग्रेस पंजाब हार जाती है या उत्तराखंड में सत्ता में वापसी नहीं करती, या गोवा, मणिपुर या उत्तर प्रदेश में कारगर प्रदर्शन में नाकाम रहती है, तो यह कहानी बहुत बदल जाएगी। वह परिदृश्य कांग्रेस के विभाजन या कांग्रेस से पलायन की वजह बन सकता है। हाल में, कांग्रेस के जिन नेताओं की निष्ठा असंदिग्ध रही है, वे भी अब धैर्य गंवाते दिखते हैं, जिससे मतभेद और निष्क्रियता पनप रही है। कांग्रेस ने पंजाब और राजस्थान में इसी तरह का संकट झेला है। कुछ वर्चुअल इन-हाउस बैठकों में बात इस हद तक भी पहुंची, जब पार्टी नेताओं ने एक-दूसरे के खिलाफ अपशब्द कहे, यहां तक कि सोनिया गांधी ने भी इसे रूखेपन से देखा है।
18वीं लोकसभा में 100 से अधिक के आंकडे़ के साथ चर्चा में बने रहने के लिए कांग्रेस पर 'कुछ' करने के लिए अंदर और बाहर से बहुत दबाव है। राहुल गांधी की पार्टी प्रमुख के रूप में वापसी की अनिच्छा हालात को और अजीब बना रही है। पार्टी 2024 के संसदीय चुनाव को विरोधाभासी शैली में लड़ने को तैयार है। जहां टीम मोदी प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत रेटिंग, बड़ी विकास परियोजनाओं, कोविड-19 प्रबंधन के साथ ही विशाल टीकाकरण अभियान, कूटनीति मोर्चे पर कामयाबी व राम मंदिर जैसे भावनात्मक मुद्दे के इस्तेमाल को मुस्तैद है, वहीं कांग्रेस और उसके सक्षम सहयोगी राज्यों में उन क्षत्रपों से मुकाबिल हैं, चुनाव में जिनके दबदबे की उम्मीद है। इसलिए अगर ममता बनर्जी, तेजस्वी यादव, उद्धव ठाकरे, शरद पवार, एमके स्टालिन, नवीन पटनायक, वी कुमारस्वामी, चंद्रबाबू नायडू, अखिलेश यादव संसदीय सीटों की एक बड़ी संख्या पर कब्जे में कामयाब होते हैं, तो कांग्रेस को राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में बेहतर प्रदर्शन करना होगा, जहां उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है।
कांग्रेस ने वामपंथियों सहित गैर-एनडीए दलों के साथ भी संवाद सेतु जोड़े रखा है, ताकि विभिन्न राज्यों में महागठबंधन बना रहे। ऐसे महागठबंधन के लिए जरूरत पड़ने पर सोनिया गांधी को आगे लाया जा सकता है।
बहरहाल, अगले कुछ महीने न केवल कांग्रेस के लिए, बल्कि पूरे गैर-भाजपा, गैर- एनडीए विपक्ष के लिए महत्वपूर्ण हैं। अपने घर को व्यवस्थित रखने, नेतृत्व के मुद्दे को सुलझाने, पंजाब में सत्ता बनाए रखने और उत्तराखंड जीतने की कांग्रेस की क्षमता 2024 में 'आधी से आधी' सीटें अर्थात 136 से ज्यादा सीटों के साथ अपना योगदान कर सकती है। कांग्रेस के बिना शरद पवार, ममता, स्टालिन और अन्य को एकजुट करने की कोशिश राष्ट्रीय राजनीति में निरर्थक व अप्रासंगिक ही रहेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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