सम्पादकीय

सांप्रदायिक पार्टियों से दूर रहे कांग्रेस

Gulabi Jagat
4 March 2021 11:37 AM GMT
सांप्रदायिक पार्टियों से दूर रहे कांग्रेस
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कांग्रेस ऐतिहासिक गलती कर रही है

कांग्रेस ऐतिहासिक गलती कर रही है। आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस ने देश के सभी वर्गों को आंदोलन के साथ जोड़ने के हजार तरह के उपाय किए लेकिन कभी सांप्रदायिक ताकतों का साथ नहीं लिया था। दूसरे-तीसरे दशक में महात्मा गांधी ने एक बार जरूर खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया पर उससे पहले और बाद में भी कांग्रेस मोटे तौर पर सांप्रदायिक सोच और सांप्रदायिक पार्टियों से हमेशा दूर ही रही। ऐसा नहीं है कि उस समय धर्म व जाति की राजनीति करने वाली पार्टियां नहीं थीं। हिंदू महासभा एक मजबूत ताकत थी तो 1925 में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का भी गठन हो गया था। मुस्लिम लीग का उभार भी आजादी की लड़ाई के समानांतर रहा पर कांग्रेस मुस्लिम लीग से वैसे ही लड़ी, जैसे अंग्रेजों से लड़ी। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं। जैसे पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपनी सरकार में मंत्री बनाया या राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को गणतंत्र दिवस की परेड में आमंत्रित किया। पर इससे ज्यादा कांग्रेस ने कभी सांप्रदायिक ताकतों को तरजीह नहीं दी।


लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि लोकप्रिय वोट की राजनीति में कांग्रेस अपने इस बुनियादी सिद्धांत से दूर जा रही है। भाजपा का मुकाबला करने के लिए भाजपा जैसी बन रही है। ध्यान रहे आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस ने कभी भी हिंदू महासभा या मुस्लिम लीग की तरह बनने का प्रयास नहीं किया। कांग्रेस की अपनी समावेशी राजनीति थी, जिसमें कम्युनिस्ट भी शामिल थे, सोशलिस्ट भी शामिल थे तो पूंजीवाद की खुली वकालत करने वाले भी शामिल थे। नरम हिंदुत्व के विचार वाले लोग भी कांग्रेस में थे और कट्टरपंथी हिंदू विचार के लोग भी कांग्रेस में शामिल थे। आजादी के बाद भी लंबे समय तक कांग्रेस ने अपना यह चरित्र बनाए रखा। तभी कांग्रेस में दूसरी किसी भी पार्टी के मुकाबले वैचारिक मतभेद सबसे ज्यादा रहे और आजादी के तुरंत बाद समाजवादी नेताओं के टूट कर कांग्रेस से अलग होने के बाद कांग्रेस टूटने की जो प्रक्रिया शुरू हुई तो वह आज तक जारी है।
कांग्रेस न कभी एक विचार वाली पार्टी रही है और न कभी काडर आधारित पार्टी रही है। हां, व्यक्ति पूजा जरूर महात्मा गांधी के समय ही शुरू हो गई थी पर उस समय भी वैचारिक भिन्नता पार्टी की एक खास पहचान थी। यह तथ्य है कि तमाम वैचारिक भिन्नता के बावजूद कांग्रेस सांप्रदायिकता से दूर थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने महात्मा गांधी को हिंदुओं का सबसे बड़ा नेता कहा था। लेकिन हकीकत यह है कि खुद को सेकुलर मानने वाले जिन्ना ने धर्म के आधार पर देश का विभाजन कराया और हिंदू धर्म में अगाध आस्था रखने वाले गांधी ने जीवन भर धर्मनिरपेक्ष राजनीति की। अब कांग्रेस ने चुनावी राजनीति के लिए अपने इस चरित्र को दांव पर लगाया है। उसने इसके लिए एक अजीब सा तर्क गढ़ लिया है कि भाजपा को रोकने की मजबूरी में ऐसा किया जा रहा है। यह कोई मजबूत या सैद्धांतिक तर्क नहीं है।
कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की नई बनी पार्टी इंडियन सेकुलर फ्रंट यानी आईएसएफ के साथ जो तालमेल किया है वह भाजपा को रोकने के लिए नहीं है, बल्कि ममता बनर्जी को रोकने के लिए है। कांग्रेस सांसद आनंद शर्मा ने इस पर सवाल उठाया तो कांग्रेस के नेता उनके ऊपर भाजपा से मिले होने का आरोप लगाने लगे। उनकी बात का जवाब देने या उस पर आत्मचिंतन करने की बजाय कांग्रेस नेता उन्हें पार्टी विरोधी बता रहे हैं। संभव है कि उन्होंने अभी यह बयान एक एजेंडे के तहत दिया हो। वे पार्टी नेतृत्व से नाराज हैं और अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए यह बयान दिया है। उनका यह बयान सेलेक्टिव माना जाएगा क्योंकि उन्होंने महाराष्ट्र में शिव सेना के साथ तालमेल करने पर सवाल नहीं उठाया था और न असम में बदरूद्दीन अजमल की पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी एआईयूडीएफ के साथ तालमेल पर सवाल उठाया।
जिस तरह से आईएसएफ के नेता पीरजादा अब्बास सिद्दीकी सांप्रदायिक सोच वाले नेता हैं उसी तरह से बदरूद्दीन अजमल और उद्धव ठाकरे भी सांप्रदायिक राजनीति करते हैं। केरल और तमिलनाडु में कांग्रेस ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के साथ तालमेल किया हुआ है। यह वैसी सांप्रदायिक पार्टी नहीं है, जैसी असदुद्दीन ओवैसी की एमआईएम है। फिर भी कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय और धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने वाली पार्टियों को इनके साथ क्यों तालमेल करना चाहिए? जो पार्टियां मुस्लिम मतदाताओं की राजनीति करती हैं या हिंदू मतदाताओं की राजनीति करती हैं या उससे आगे अलग अलग जातियों की राजनीति करती हैं, उन पार्टियों के साथ तालमेल करके कांग्रेस अपने को राजनीतिक रूप से भी कमजोर कर रही है और वैचारिक रूप से भी। कांग्रेस अगर अपने वैचारिक धरातल पर मजबूती से खड़ी रहती है तो देर-सबेर उसकी राजनीतिक वापसी भी होगी। लेकिन अगर उसने इसे गंवा दिया तो फिर वह धीरे धीरे धर्म और जाति की राजनीति करने वाली पार्टियों जैसी या उनकी पिछलग्गू हो जाएगी।
उनके जैसा होना कांग्रेस के लिए बहुत नुकसानदेह होगा क्योंकि वह इस राजनीति में उन पार्टियों को नहीं परास्त कर सकती है। उलटे जिन सांप्रदायिक या जातीय पार्टियों के साथ कांग्रेस का तालमेल होगा वे कांग्रेस का बुनियादी वोट हथिया लेंगी। अनेक उदाहरणों से यह बात प्रमाणित है। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक आदि राज्यों में पार्टी ने इसी तरह से अपना नुकसान किया है। चुनाव जीतने के लिए एलायंस की राजनीति मजबूरी हो सकती है पर इतिहास गवाह है की मजबूरी की इस राजनीति ने कांग्रेस का हमेशा नुकसान किया है। जहां उसने तालमेल नहीं किया वहां क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत नहीं हुईं और कांग्रेस के लिए जगह बची रही। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस 15 साल सत्ता से बाहर रही है पर उसने वापसी की क्योंकि वहां कोई सांप्रदायिक या जातीय राजनीति करने वाली मजबूत पार्टी नहीं पनपी। कांग्रेस ने अपनी जमीन पकड़े रखी तो उसने वापसी की। जहां कांग्रेस ने अपनी जमीन छोड़ दी वहां वापसी मुश्किल हो गई है।
अब्बास सिद्दीकी की पार्टी आईएसएफ के साथ तालमेल को कांग्रेस इस तर्क से न्यायसंगत नहीं ठहरा सकती है कि गठबंधन का नेतृत्व सीपीएम के हाथ में है और तालमेल उसने किया है। सीपीएम को अपना बंगाल का गढ़ वापस हासिल करना है तो उसके लिए वे कुछ भी करेगी। लेकिन कांग्रेस को इस राजनीति में नहीं फंसना चाहिए। 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद बनी एके एंटनी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि लोगों की नजर में कांग्रेस एक सीमा से ज्यादा मुस्लिमपरस्त पार्टी दिखने लगी थी, जिसका उसे नुकसान हुआ है। उसके बाद से कांग्रेस की यह छवि बदलने का प्रयास चल रहा है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा दोनों मंदिर-मंदिर घूम रहे हैं। राहुल अपने को कौल कश्मीरी ब्राह्मण बता कर मंदिरों में संकल्प कर रहे हैं।
लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस उस पार्टी से तालमेल कर रही है, जिसके नेता फ्रांस में इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा एक शिक्षक का सिर काटने की घटना का समर्थन करते हैं या उस पार्टी से तालमेल कर रही है, जिसके नेता आपदा की स्थिति में सिर्फ एक संप्रदाय के लिए राहत शिविर लगाते हैं या जिस पार्टी का इतिहास एक खास संप्रदाय के प्रति नफरत की राजनीति वाला रहा हो। भाजपा चाहती है कि आजाद भारत में ऐसी पार्टियां फले-फूलें, जिनका सांप्रदायिक एजेंडा है। इसके लिए उनको भरपूर खाद-पानी उपलब्ध कराया जा रहा है। कांग्रेस की ऐतिहासिक जिम्मेदारी इसे बढ़ाने की नहीं, बल्कि रोकने की है- अपने लिए भी और देश के लिए भी!


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