सम्पादकीय

कांग्रेस अब भी एक घना पेड़ है

Admin Delhi 1
11 March 2022 11:01 AM GMT
कांग्रेस अब भी एक घना पेड़ है
x

प्रदीप पंडित

जनता से रिश्ता, प्रमुख संपादक

कांग्रेस तमाम पराजयों के बावजूद एक घना पेड़ है, जिस पर नए परिंदे अपना घोंसला बनाने को व्याकुल हैं और पुराने परिन्दे उम्र और ऊर्जा से चुक जाने के बावजूद पेड़ को छोड़ नहीं रहे। परंपरा की राजनीतिक धारा की छाया अब भी कांग्रेस में नजर आती है, जैसे लुई हैरिज सोशल रूट आफ आर्ट में कहता है कि परंपरा वह नींव है जिससे कोई भी अनुपातत: अपने जीवन के कुछ वर्षों और प्रशिक्षण में ही उस धरातल तक पहुँच जाता है जिसे प्राप्त करने की इच्छा होने पर भी शताब्दियों की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। परंपरा से हर युग की विवेक संगत चेतना ने इतनी बार विद्रोह किया कि विद्रोह भी परंपरा बन गई। कांग्रेस की अन्तरकलह, कुहनीबाजी, जेबी नेताओं के हाथों में प्रशासनिक (लगाम) और सबसे बढ़कर संवदहीनता। इस सबने कांग्रेस को अपनी उदारवादी सोच के बावजूद देश के सबसे बड़े वर्ग का विरोधी चित्रित कर दिया। वस्तुत: ऐसा है नहीं। मसला अल्पसंख्यकों का हो या महिलाओं का या कि दलित विमर्श का। इस सब पर कांग्रेस ने गाँधी, आंबेडकरवाद की वैचारिक सरणि पर यात्रा तय की। लेकिन जनाधारित नेताओं के धीरे-धीरे गुजरने या गुजार दिए जाने की स्थिति से कांग्रेस अपनी ही जमीन से दूर होती चली गई। जिन्ना ने जिस कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी कहा वही कांग्रेस आज हिन्दू विरोधी पार्टी के रूप में दिखाई जाने लगी। और इसका कभी प्रयास नहीं किया गया कि जनता तक सही बात पहुँचे। मुस्लिम तुष्टीकरण पर सैकड़ों बार तरह-तरह से कहा गया, लेकिन कांग्रेस कुमार विकल की तरह कभी कह नहीं पायी कि (सड़क पर पड़ा यह खून हिन्दू का है या मुसलमान का, स्त्री का है या बकरी का।) मनुष्य को केन्द्र में रखकर समय की चिंता में चलने वाली कांग्रेस राजीव गाँधी के रामलला मंदिर का द्वार खोलने की क्रेडिट भी नहीं ले पाई न चुनाव में न उससे इतर। धीरे-धीरे स्थापना तो यह हो ही गई कि राजनीति से आस्था को बेदखल इसलिए नहीं किया जा सकता कि आस्था और राजनीति दोनों वैयक्तिक और सामूहिक चेतना को व्यक्त करती है। बिल्कुल यही कारण चर्च को आज भी पश्चिम में प्रासंगिक बनाए हैं। फिर राम की आवधारणा का अस्वीकार आपको कैसे स्वीकार करा सकता था।

इस तरह देखें तो समझना होगा कि क्या आधुनिकता कोई खंडित घटना है?अथवा उसका अतीत से कट जाना आसान, तब तो आधुनिकता के मानी होंगे कि मैंने अतीत को काट दिया है। क्या ऐसा किसी समाज या दलीय प्रतिबद्ध के लिए संभव नहीं है? ऐसा होता तो समूचे इतिहास में हर देश का वर्तमान मुक्ति पा लेता। ऐसा होता नहीं, ऐसा हुआ भी नहीं। जैसे भाषा एक सांस्कृतिक रूढ़ी है वैसे ही कांग्रेस भारतीय राजनीति की राजनीतिक रुढ़ी का नाम है। यही वजह है कि वह खारिज नहीं होती, खारिज होते हैं कांग्रेसी। आज भी पंजाब में जो वोट शिफ्ट आम आदमी पार्टी को हुआ, वह कांग्रेस का वोट बैंक रहा है। आज भी अ.भा. कांग्रेस कमेटी का प्रशासन उन लोगों के हाथों में है जिनकी जमीन पर न कोई आवाज है न समर्थन। इस यूपी चुनाव में प्रियंका गाँधी वाड्रा ने 167 रैलियाँ की, 42 से ज्यादा रोड शो किए और 350 विधानसभाओं में वर्चुअल जनसंवाद किया। मगर इसका नतीजा शून्य रहा, इसलिए कि यूपी देखने वाले कांग्रेसियों में पी.एल. पूनिया, लल्लू वगैरह थे, मगर पहले की तरह जिला इकाइयां निस्तेज पड़ी थीं। प्रदेश कार्यालय में तथाकथित कांग्रेसियों की भीड़ थी। लड़की हूं लड़ सकती हूँ ने शुरुआत में ही महिलाओं के हक की बात को भीतर तक पहुँचाने में महती भूमिका अता की, लेकिन इसे घर-घर तक पहुंचाने में तमाम प्रयासों के बाद भी भूपेश बघेल और सत्यनारायण पटेल जैसे नेता भी बे-असर रहे। समाजवादी पार्टी ने एक साथ हिन्दू बहुल आस्थायी क्षेत्र अयोध्या और दलित मतदाताओं पर एक साथ हाथ रखा। इससे अखिलेश ने करीब 7 फीसदी मायावती के वोटों में सेंधमारी की और करीब ढ़ाई प्रतिशत ऐसे वोटरों को भी अपनी तरफ करने में कामयाब रहा जिनकी निष्ठा सीधे-सीधे उसके साथ नहीं थी। ये साढ़े 9 प्रतिशत वोट बैंक कांग्रेस को भी मिल सकते थे, बशर्ते कांग्रेस अपना सदस्यता अभियान गाँव की चौपालों तक से जोड़ देती। इससे संवादहीनता टूटती और पार्टी अपने लोगों के बीच संगति बैठाने में कारकर भूमिका निभाती। संवाद का यह अभियान कांग्रेस कार्यालय से भी आरंभ किया जाना चाहिए। सम्राट और प्रजा की दिखाई देती भूमिका से बचते हुए पुराने और नए लोगों में सामंजस्य बैठाना होगा। आखिर क्या वजह थी कि यूपी के पूरे चुनाव में कांग्रेस एक भी बड़े दलित नेता को मैदान में नहीं उतार पायी।

क्यों एक बड़े वर्ग को साथ नहीं ले पायी? जबकि विचार के अर्थ में नव प्रगतिवादी भी यूपी में कांग्रेसी भावधारा में यकीन रखते हैं। वैसे भी भारतीय राजनीति में कट्टरवाद की कोई गुंजाइश नहीं। इसीलिए सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास चर्चित होता है। यह इस बात का प्रमाण है कि प्रामाणिक वैचारिक स्तर की कांगेसी भावधारा इस देश की राजनीति संस्कृतिक की आत्मा है। लेकिन कांग्रेस आज इसमें आमूलचूल परिवर्तन के हक में दिखाई नहीं देती। इसे कांग्रेस चलाने वाले समझें कि वह आज भी एक घना पेड़ है। पता नहीं क्यों यह अपने घनेरेपन के घनेरेपन देश को छांह दे पाने में असमर्थ है। कितना अभिशप्त है यह पेड़, अपने हरेपन के बावजूद अकेलेपन से जूझता हुआ।

Next Story