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पंजाब में कांग्रेस की सांसत कम होती नहीं दिख रही। अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्री पद से हटने और वहां पहली बार दलित मुख्यमंत्री बनने के बाद लगा था
पंजाब में कांग्रेस की सांसत कम होती नहीं दिख रही। अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्री पद से हटने और वहां पहली बार दलित मुख्यमंत्री बनने के बाद लगा था कि न सिर्फ कांग्रेस का अंदरूनी कलह समाप्त हो गया है, बल्कि प्रदेश में उसकी साख भी कुछ बढ़ेगी। मगर नया मंत्रिमंडल बनते ही प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने पद से इस्तीफे की घोषणा कर दी। इससे वहां नए समीकरण बनने शुरू हो गए। फिर अमरिंदर सिंह ने दिल्ली आकर गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात क्या की, नई उथल-पुथल मच गई। स्वाभाविक ही कयास लगाए जाने लगे कि पंजाब में कांग्रेस में बड़ी टूट हो सकती है और अमरिंदर सिंह अपने खेमे के कई नेताओं को साथ लेकर भाजपा में जा सकते हैं।
हालांकि यह कयास कहां तक सच होगा, देखने की बात है, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अमरिंदर सिंह ने पंजाब में कांग्रेस का काफी नुकसान किया है। वहां विधायकों और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मुख्य नाराजगी अमरिंदर सिंह के कामकाज के तरीके को लेकर ही थी। कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इस बात से आंख नहीं चुरा सकता कि अमरिंदर सिंह वहां कामकाज के मामले में ढीले नजर आ रहे थे, भीतर-भीतर उन्हें लेकर नाराजगी बढ़ रही थी, फिर भी वह उन्हें बचाने में लगा हुआ था।
हालांकि नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री और केंद्रीय नेतृत्व सिद्धू को मनाने में कामयाब हो गए हैं, इससे कांग्रेस की कलह को थामने में जरूर कुछ मदद मिलेगी, मगर यह चुनाव का वर्ष है और समय बहुत कम बचा है। उसमें वहां कांग्रेस के लिए काफी कुछ काम करना पड़ेगा, ताकि लोगों का भरोसा उस पर बना रहे। अकाली-दल-बसपा के अलावा आम आदमी पार्टी से उसकी चुनौतियां बड़ी हैं।
आमतौर पर लोग चुनाव में पिछली सरकार के कामकाज का मूल्यांकन करते और फिर उसी के आधार पर अपनी राय बनाते हैं। मगर अमरिंदर सिंह ने ऐसी कोई उपलब्धि वहां नहीं छोड़ी है, जिसके आधार पर कांग्रेस अपने को बेहतर नेतृत्व देने वाली पार्टी बता सके। जो कुछ उपलब्धियां होंगी, वे नई सरकार को हासिल करनी होंगी। पर बीच-बीच में जो स्थितियां पैदा हो जा रही हैं, उससे कांग्रेस की मुश्किलें जल्दी आसान होती नजर नहीं आ रहीं। जब पार्टी ही स्थिर नहीं रह पाएगी, तो सरकार भला कैसे कुछ उल्लेखनीय काम कर पाएगी।
अगले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष को साथ मिल कर रणनीति बनानी होगी और लोगों को विश्वास दिलाना पड़ेगा कि पार्टी में एकजुटता है, कोई मतभेद नहीं और वह पूरी तरह प्रदेश के हित में काम करेगी। मगर नए मंत्रिमंडल के गठन और अफसरों की तैनाती को लेकर जिस तरह मुख्यमंत्री और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच मतभेद सतह पर नजर आए, उससे यह चुनौती अब भी बनी हुई है कि दोनों के बीच सामंजस्य बिठाया जाए। नए मुख्यमंत्री पुराने कांग्रेसी हैं, उनका राजनीति में लंबा अनुभव है, चीजों की बारीक परख जानते हैं, पर उन्हें एक उत्साही और तुरंत फैसले करने और उसके क्रियान्वयन में यकीन करने वाले अध्यक्ष के साथ तालमेल बिठा कर चलना है। उसमें मुश्किलें आएंगी ही।
सिद्धू की पंजाब के लोगों के प्रति निष्ठा में कमी नहीं है, पर उनके काम करने का तरीका कुछ अधिक आक्रामक है, इसलिए वे मनमुताबिक माहौल न मिलने पर जल्दी तुनक भी जाते हैं। केंद्रीय नेतृत्व से भी टकराव मोल लेने में भी नहीं हिचकते। इसलिए वहां कांग्रेस की स्थिति एक डगमग नौका की तरह हो गई है, जिसे संभालने और संतुलित चाल में लाने की चुनौती केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश सरकार दोनों के सामने बड़ी है।
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