सम्पादकीय

Congress: कितने स्वतंत्र होंगे कांग्रेस के नए अध्यक्ष?

Rounak Dey
10 Oct 2022 1:54 AM GMT
Congress: कितने स्वतंत्र होंगे कांग्रेस के नए अध्यक्ष?
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अपने आंतरिक संस्थानों का सम्मान नहीं करेगी, तो उसकी आवाज खोखली समझी जाएगी।

अधिकांश राजनेता अंततः विरोधाभासों की पोटली बन जाते हैं और राहुल गांधी अपवाद नहीं हैं। देश की सभी राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र एक समस्या है, लेकिन कांग्रेस का वंशवादी शासन सबसे ज्यादा स्पष्ट और पौराणिक है। यहां तक कि जब पार्टी एक गैर-गांधी नए पार्टी अध्यक्ष को लाने के लिए तैयार है, सबकी निगाहें राहुल गांधी पर लगी हैं कि क्या वह जरूरी बदलाव करेंगे या यथास्थितिवादी बने रहेंगे। एक बड़ा सवाल 88वें पार्टी अध्यक्ष के कामकाज के दायरे और स्वतंत्रता को लेकर है, जो लगातार अटकलों और पूर्वाग्रहों का विषय है। पूर्वाग्रह अकारण नहीं है। गांधी परिवार के

तीन व्यक्ति संगठन में प्रभावी हैं-सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी वाड्रा, जो क्रमश पार्टी अध्यक्ष, पूर्व पार्टी अध्यक्ष और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की महासचिव के रूप में सक्रिय हैं।
इस बात की पूरी आशंका है कि नए कांग्रेस अध्यक्ष को कांग्रेस कार्यसमिति की सभी बैठकों में इन तीनों का सामना करना पड़ेगा। नीति निर्माण, नियुक्तियों तथा विवादास्पद राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक मुद्दों पर फैसला लेने में नए पार्टी अध्यक्ष और गांधी परिवार के सदस्यों के बीच क्या समीकरण होंगे? इन सबके बीच, जाहिर है, राहुल गांधी पर सबकी नजर है, क्योंकि उन्हें सामने से नेतृत्व करने वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाता है–चाहे वह भारत जोड़ो यात्रा हो या अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में शीर्ष स्तर पर हुई नियुक्तियां हों या राज्य पार्टी इकाइयां हों, जहां टीम राहुल कार्यरत है।
हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब उनसे पूछा गया कि क्या कांग्रेस के नए अध्यक्ष को गांधी परिवार द्वारा रिमोट से चलाया जाएगा, तो उन्होंने कहा कि यह पार्टी अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे लोगों का अपमान है। राहुल गांधी के आक्रोश को अच्छे अर्थों में लिया गया है, लेकिन यह आशंका अकारण नहीं है। वर्ष 1996 से 1998 के बीच कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर रहे सीताराम केसरी का जीवन इसका प्रमाण है। जब सोनिया ने दिसंबर, 1997 में औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा कर दी, तब केसरी कांग्रेस में अपंग हो गए। वह स्थिति तब तक रही, जब तक कि मार्च, 1998 में उन्होंने सोनिया के लिए पद नहीं छोड़ा। अक्सर देखा जाता था कि वी जॉर्ज और ऑस्कर फर्नांडीज (दोनों सोनिया के करीबी) केसरी के पुराना किला मार्ग स्थित आवास पर फाइल लेकर फैसलों पर कांग्रेस अध्यक्ष का हस्ताक्षर करवाने आते थे, जिस पर 10, जनपथ में शायद फैसले ले लिए जाते थे।
यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि सभी बुराइयों के लिए गांधी परिवार को निशाना बनाना और उन पर सत्ता को नियंत्रित करने के आरोप लगाना फैशन बन गया है। जबकि तथ्य कुछ और बताते हैं। उदाहरण स्वरूप, हर विधानसभा या संसदीय चुनाव में उम्मीदवारों द्वारा प्रचारक के रूप में गांधी परिवार के लोगों की ही मांग होती है, जो स्पष्ट रूप में चुनाव में सबसे बड़े हितधारक होते हैं। जी-23 (असंतुष्टों के पूर्व समूह) के सदस्यों की मांग उनके निर्वाचन क्षेत्र या राज्य से बाहर शायद ही कभी होती है। वास्तव में राहुल गांधी ने वर्ष 2006 से 2013 के दौरान पार्टी को फिर से जीवंत करने और
इसका कायाकल्प करने का आह्वान किया था। राहुल के एनजीओ वाले और सांख्यिकीविद एवं विश्लेषक की मिश्रित शैली ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों के उम्मीदवारों का चयन करने के लिए प्राइमरी रखने के विचार के साथ संक्षिप्त (मगर गंभीरता से नहीं) प्रयोग किया था।
राहुल ने अमेरिका और ब्रिटेन की तरह आंतरिक लोकतंत्र के लिए प्रीमियर कराने की बात की थी, लेकिन वहां पार्टी के भीतर चुनौती देने वाले नेता को उसके राजनीतिक कद के हिसाब से पुरस्कृत किया जाता है। जबकि भारत के सभी राजनीतिक दलों में चुनौती देने वालों को धीरे-धीरे शक्तिहीन करने का चलन है। जैसे कि कांग्रेस में इंदिरा गांधी ने वाईवी चौहान और मोरारजी देसाई के साथ और भाजपा में बलराज मधोक, लालकृष्ण आडवाणी, यशवंत सिन्हा या शांता कुमार के साथ किया गया। वर्ष 2014 और 2019 की भारी हार ने राहुल समेत गांधी परिवार को लगभग शून्य कर दिया है। कांग्रेस राज्य दर राज्य सत्ता खोती जा रही है और जैसा कि हाल ही में किसी ने एक नारा गढ़ा है-'कांग्रेस का एक ही गढ़-छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़', उसके सच में बदल जाने का खतरा दिख रहा है।
राहुल को व्यावहारिक होकर दिवास्वप्न से जागने और अवध की पुरानी कहानी को याद करने की जरूरत है। यह कहानी एक लंबे, लेकिन दिमाग से पैदल गणित के प्रोफेसर की है, जिसका शीर्षक है-हिसाब ज्यों का त्यों, फिर कुनबा डूबा क्यों? एक बार प्रोफेसर पत्नी और बच्चों के संग कहीं जा रहे थे कि रास्ते में एक नदी पड़ गई। उनके भीतर के गणितज्ञ ने नदी की गहराई और अपने परिवार की औसत लंबाई मापी और हिसाब लगाया कि उनके परिवार की औसत लंबाई नदी की गहराई से ज्यादा है। लेकिन नदी पार करने के बाद उन्होंने पाया कि उनका परिवार डूब चुका है। इस पर प्रोफेसर सोचने लगे कि हिसाब ज्यों का त्यों, फिर कुनबा डूबा क्यों?
आज जब कांग्रेस मुश्किल वक्त से जूझ रही है, तब पार्टी में एक करोड़ स्वच्छ, समर्पित और लोकतांत्रिक युवा कार्यकर्ता नहीं हैं। वे कहां हैं, क्योंकि 2006 से 2013 के दौरान ऐसे पार्टी कार्यकर्ता तैयार करने के लिए राहुल ने काफी समय, ऊर्जा और संसाधन खर्च किए थे। क्या यह सही समय नहीं है कि गांधी परिवार किसी और को सही मायनों में पार्टी चलाने दे, और खासकर राहुल गांधी नए कांग्रेस अध्यक्ष को अपनी किस्मत और कौशल आजमाने के लिए सभी शक्तियां और संसाधन प्रदान करें। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्तमान कांग्रेस में प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस और विचार-विमर्श अतीत की बात हो गया है। आखिर कांग्रेस कार्यसमिति क्यों निष्क्रिय हो गई है या नेतृत्व में राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर विचार-विमर्श करने के लिए झुकाव या साहस की कमी है? दोनों ही मामलों में संस्थानों के पतन का आरोप लगाने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए यह दुखद है। राहुल को समझना चाहिए कि यदि पार्टी स्वयं अपना, अपने आंतरिक संस्थानों का सम्मान नहीं करेगी, तो उसकी आवाज खोखली समझी जाएगी।

सोर्स: अमर उजाला

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