सम्पादकीय

कांग्रेस की अंतर्कलह टीएमसी और 'आप' के लिए सुनहरा मौका बनकर आई है; राहुल के लिए आपदा में अवसर है उनकी पार्टी का बवाल

Rani Sahu
12 Oct 2021 8:42 AM GMT
कांग्रेस की अंतर्कलह टीएमसी और आप के लिए सुनहरा मौका बनकर आई है; राहुल के लिए आपदा में अवसर है उनकी पार्टी का बवाल
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राहुल के लिए आपदा में अवसर है उनकी पार्टी का बवाल

संकेत उपाध्याय जब पंजाब में बवाल निरंतर जारी था और वहां छत्तीसगढ़ के भी विधायक दिल्ली चले आए, तो ऐसी चर्चा फिर तेज़ हो गई क अबकी कांग्रेस खत्म। सिर्फ विपक्ष ही नहीं, कांग्रेस के अपने जी23 के नेता भी अपनी नाराज़गी सामाजिक मंच से ज़ाहिर करने लगे। यहां कपिल सिब्बल ने पूछा कि कांग्रेस कौन चला रहा है और वहां शाम तक उनके घर पर आईवायसी (भारतीय युवा कांग्रेस) की फ़ौज टमाटर लेकर पहुंच गई।

आमतौर पर जब यह सब होने लगे तो ऐसा मान लिया जाता है कि यह नेतृत्व की कमज़ोरी का ही परिणाम है। कांग्रेस की यह अंतर्कलह आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के लिए एक सुनहरा मौका बनकर आई है। हताश और परेशान कांग्रेसी नेताओं के साथ, बिना अपनी विचारधारा से समझौता किए एक और स्थान मिल गया है। विपक्ष की कमी भरने का मज़बूत प्रयास चल रहा है।
लेकिन आज की कांग्रेस की स्थिति को समझने के लिए यूपीए-2 का दौर याद करना ज़रूरी है। वर्ष 2009 में दोबारा कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी। एक तरफ राहुल गांधी के बयान आने लगे कि कांग्रेस का विस्तार बहुत ज़रूरी है ताकि हम अपने दम पर चुनाव जीतें और वहीं बीजेपी टूट और बिखर रही थी। रोज नया बवाल। रोज नया इस्तीफा। इसी सब के बीच में एक 'गैर राजनीतिक' आंदोलन शुरू हुआ - अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में। और यहां से शुरू हुआ विपक्ष की भूमिका को भरने का एक प्रयास।
साल भर बाद एक नई पार्टी का जन्म हुआ, जिसे कहते हैं 'आम आदमी पार्टी'(आप)। एक तरफ दिल्ली में 'आप' ने पांव पसारे, वहीं छितराई बीजेपी ने रूठे अडवाणी जी को बहुत बवाल के बाद मनवाया कि अब वो पार्टी में बदलाव को स्वीकारें और नरेंद्र मोदी के नतृत्व में ही 2014 का चुनाव लड़ा जाए। कड़वी घुट्टी बीजेपी के काम आई। और बीजेपी ऐसी जीती कि यह 2014 से पहले वाली पार्टी लगती ही नहीं। ठीक वैसे ही, अब मोदी सरकार के दूसरे शासन के दो साल पूरे हो गए हैं।
विपक्ष खुद को ठीक वैसे ही तलाश रहा है, जैसे 2011 में तलाश रहा था। उस समय भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा बनकर उभरा। लेकिन इस बार क्या होगा, उसकी तलाश अभी जारी है। लेकिन राहुल और प्रियंका के लिए यह एक और मौका है। भले ही विपक्ष में उनकी मुख्य भूमिका पर सवाल खड़े हो रहे हैं। यह भी कहना गलत नहीं होगा कि यह एक आखिरी चांस है। अबकी डूबे तो आम आदमी पार्टी और तृणमूल जगह लेने के लिए खड़े हैं। सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी मतलब गांधी परिवार।
यह कांग्रेस इंदिरा गांधी की कांग्रेस है और पूरी तरह एक परिवार पर केंद्रित है। और जिसको भी इस बात पर यकीन न हो वो 2019 में राहुल के इस्तीफे के बाद हुए बवाल को देख ले। महीनों लगाकर सीडब्लूसी (कांग्रेस वर्किंग कमेटी) ने वापस सोनिया गांधी को ही अंतरिम अध्यक्ष बना दिया। अब से पहले तक भाई और बहन की जोड़ी को हमेशा सोनिया गांधी की परछाईं में देखा गया है।
पार्टी के बड़े और पुराने मठाधीश भले ही राहुल का नेतृत्व कबूल करते रहे हों, लेकिन साफ़ है कि पार्टी का पूर्ण कंट्रोल राहुल के हाथ में नहीं था। हर नेता अपने हिसाब से और अपने मतलब से पार्टी संचालित कर रहा था। राहुल ने भी पूरी तरह से कमान नहीं संभाली और 2019 में तो पार्टी को अधर में छोड़ दिया। लेकिन जो भी यह सोच रहा है कि वह महज़ एक सांसद भर है, वह शायद इस कांग्रेस को नहीं समझता।
इससे पहले कांग्रेस पार्टी में ओल्ड गार्ड बनाम न्यू गार्ड की चर्चा ही होती थी। लेकिन हाल फिलहाल बहुत सारे पुराने गार्ड को हटना पड़ा है। वो हर इंसान जो अपने मन से, अपनी कांग्रेस समझ कर पार्टी संचालित कर रहा था उसको याद दिलाया जा रहा है कि पार्टी में अध्यक्ष पद पर आएंगे तो राहुल ही। और उन्हीं की सुननी पड़ेगी। संजय गांधी और राजीव गांधी के ज़माने में आए युवा नेता अब अपने आप को राहुल की यूथ ब्रिगेड काहिस्सा नहीं पाते। टीम राहुल का संदेश साफ़ है।
पुराने लोग नेतृत्व परिवर्तन में सहयोग दें और सम्मान करें तो उनका स्वागत है। लेकिन अगर वे अवरोध उत्पन्न करेंगे तो उनको बाहर करने में भी पार्टी सोचेगी नहीं। यह करने में राहुल और प्रियंका ने नवजोत सिंह सिद्धू जैसी गलतियां भी की हैं लेकिन इशारा साफ़ है। अब कांग्रेस नई फ़ौज और नई पौध तैयार करना चाह रही है जो अपनी राजनीति में उग्र हो। जो मोदी से मोदी की तरह लड़ने की ताकत रखे। जो मठाधीशी न करे।
राहुल ने यह संदेश भी साफ दे दिया है कि कांग्रेस की कार में एक ही ड्राइवर हो सकता है, 23 नहीं और अनंतकाल तक नेता बने रहने की ख्वाहिश भले ही अच्छी हो लेकिन अगर लोग बाइज्जत चले जाएं तो बेहतर। एक बड़ी दिक्कत और भी है। लखीमपुर पर कांग्रेसी रुख कड़ा ज़रूर दिखा और जमीन पर कांग्रेस भी दिखी।
लेकिन इससे पहले कई बार राहुल और प्रियंका का जमीनी संघर्ष दिखकर खत्म होते दिखा है। राहुल का संघर्ष निरंतर नहीं रहा है। और वही उनकी संस्था में भी दिखता है। 2024 में अभी भी 3 साल हैं। और इस कांग्रेसी आपदा में अभी भी एक अवसर है।


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