सम्पादकीय

हार की हताशा में डूबी कांग्रेस, क्या केंद्रीय राजनीति से बाहर हो जाएगी?

Gulabi Jagat
27 March 2022 10:53 AM GMT
हार की हताशा में डूबी कांग्रेस, क्या केंद्रीय राजनीति से बाहर हो जाएगी?
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कांग्रेस अपने गठन के बाद से सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है
कांग्रेस (Congress) अपने गठन के बाद से सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है. 2014 में केंद्र की सत्ता से बेदख़ल होने के बाद से कांग्रेस लगातार एक के बाद एक राज्यों के विधानसभा चुनाव हारी है. वो गिने-चुने राज्यों में ही चुनाव जीत पाई है. हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनावों (5 State Assembly Election) में कांग्रेस के बेहद निराशाजनक प्रदर्शन के बाद तो कांग्रेस की हालत और भी ज्यादा ख़राब हो गई है. लगातार हार झेल रही कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में हताशा और निराशा अपने चरम पर है. वहीं, आलाकमान (Gandhi Family) के ख़िलाफ़ पार्टी के सुलग रही बगावत की आग में कांग्रेस को अजीब पशोपेश में डाला रखा है.
क्या है कांग्रेस की हालत?
ज़्यादातर राज्यों में लगभग 50 साल सत्ता में रही कांग्रेस आज सिर्फ दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ तक ही सिमट कर रह गई है. सिर्फ़ इन दो राज्यों में ही कांग्रेस अपने दम पर सत्ता में है. तीन अन्य राज्यों महाराष्ट्र, तमिलनाडु और झारखंड में वो छोटे हिस्सेदार के रूप में सरकार में शामिल है. 543 सदस्यों वाली लोकसभा में कांग्रेस के महज़ 53 सदस्य हैं. 2014 और 2019 के लगातार दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस इतनी सीटें भी नहीं जीत पाई कि उसके नेता को आधिकारिक रूप से 'नेता विपक्ष' का दर्जा मिल सके. इसके लिए कम से कम 55 सीटें जीतना जरूरी है. 2014 में जहां कांग्रेस 44 सीटें जीत पाई थी वहीं 2019 में वो महज़ 53 सीटों पर ही सिमट कर रह गई. 245 सदस्यों वाली राज्यसभा में कांग्रेस के पास सिर्फ 34 सीटें हैं. देश भर की 4,036 विधानसभा सीटों में से उसके के पास सिर्फ़ 678 सीटें हैं. वहीं विभिन्न राज्यों की विधान परिषदों की 426 सीटों में से कांग्रेस के पास सिर्फ 43 सीटें हैं.
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में दुर्गति
हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई है वो शायद इससे पहले कभी नहीं हुई.
पांच राज्यों में कुल 690 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुआ था. इनमें से कांग्रेस महज़ 55 सीटें ही जीत पाई है. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में उसे 403 में से महज 2 सीटें मिली हैं. पंजाब की 117 में से उसे सिर्फ 18 सीटें मिली हैं. उत्तराखंड की 70 में से 19 सीटें मिली हैं. मणिपुर की 60 में से 5 और गोवा की 40 में से 11 सीटें मिली हैं.
ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में बतौर महासचिव प्रियंका गांधी ने कमान संभाली हुई थी. राहुल गांधी ने उन्हें इस उम्मीद के साथ उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी थी कि वो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता की दहलीज़ पर लाकर खड़ा करेंगी. लेकिन प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस बमुश्किल तमाम विधानसभा में अपना खाता भर खोल पाई है. लाख कोशिशों के बावजूद कांग्रेस पंजाब की अपनी सरकार नहीं बचा पाई. न ही उत्तराखंड में सत्ता में वापसी कर सकी.
2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी जोड़-तोड़ से गोवा और मणिपुर में सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी. इस बार उम्मीद थी कि कांग्रेस कम से कम ये दोनों राज्य बीजेपी से छीन लेगी. लेकिन दोनों ही राज्यों में वो बीजेपी के मुकाबले कहीं टिक नहीं पाई.
हार पर अंदरूनी रार
पांच राज्यों में शर्मनाक हार पर कांग्रेस के भीतर जबरदस्त उठापटक चल रही है. चुनावी नतीजे आने के बाद हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने साथ-साथ राहुल और प्रियंका के इस्तीफे तक की पेशकश कर दी. लेकिन कार्यसमिति ने इस्तीफे की पेशकश ठुकरा दी और सोनिया गांधी से ही पार्टी की कमान संभालने रहने का आग्रह किया. ये ड्रामेबाजी कांग्रेस में 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही लगातार चल रही है. हालांकि कार्यसमिति की बैठक के बाद सोनिया गांधी ने पांचों राज्यों के अध्यक्षों से इस्तीफे लकर हार का ठीकरा उनके सिर फोड़ दिया. लेकिन पांचों राज्यों में बुरी तरह हार के लिए राज्यों के प्रभारी महासचिवों खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई. शायद इसलिए कि उनमें से एक उनकी बेटी प्रियंका गांधी वाड्रा हैं. हालांकि इससे पहले राज्यों में हार की जिम्मेदारी प्रदेश अध्यक्ष और महासचिव दोनों की हुआ करती थी. कांग्रेस में यह सवाल उठ रहे हैं कि सोनिया गांधी ने पुत्र और पुत्री मुंह में कांग्रेस की पुरानी परंपरा को भी ताक पर रख दिया है.
सुलग रही है बग़ावत की आग
कांग्रेस में करीब 2 साल से बग़ावत की आग सुलग रही है. अगस्त 2020 में कांग्रेस के 23 नेताओं ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर पार्टी के एक 'पूर्णकालिक और सक्रिय नेतृत्व' देने की मांग की थी. इस पर पार्टी में खूब बवाल मचा था. चिट्ठी लिखने वाले नेताओं के समूह को कांग्रेस ने जी-23 के नाम से जाना जाता है. हालांकि अब इनकी संख्या कम हो गई है. कई नेता पार्टी छोड़ चुके हैं. पांच राज्यों में हार के बाद इन नेताओं ने एक बार फिर कांग्रेस आलाकमान यानी गांधी नेहरू परिवार के खिलाफ ब़ग़ावत का झंडा बुलंद कर दिया है. इन नेताओं की कई बैठकें कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा में पार्टी के नेता रहे गुलाम नबी आजाद के घर पर हुईं. कई बैठकों के बाद भी ये नेता यह फैसला नहीं कर सके की कांग्रेस में ज़रूरी सुधार के लिए सोनिया गांधी पर कितना और दबाव बनाना है या फिर कोई अलग रास्ता अख़्तियार करना है? असंतुष्ट नेताओं के इस रवैया से अब लगने लगा है कि कांग्रेस में बग़ावत भी महज़ एक ढोंग बनकर रह गई है.
कब लगेगा चिंतन शिविर?
पांच राज्यों में हार के कारणों की कारणों पर चर्चा के लिए हुई कार्य कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में संसद के बजट सत्र के फौरन बाद चिंतन शिविर लगाने की बात कही गई थी. लेकिन अभी तक इसकी तारीख़ और जगह का ऐलान नहीं किया गया है. दिसंबर 2020 में हुई इसी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद भी जल्द ही चिंतन शिविर बुलाने का वादा किया गया था. लेकिन अभी तक नहीं बुलाया गया. दरअसल कांग्रेस में शुरुआत से ही समय-समय पर पार्टी की नीतियों और कार्यक्रम में बदलाव के लिए चिंतन शिविर लगाने की परंपरा रही है. इस तरह के चिंतन शिविर में पार्टी बदलते वक्त के हिसाब से पार्टी की नीतियां बदलने पर खुले दिलो-दिमाग़ से विचार करके किसी नतीजे पर पहुंचती है. लेकिन पिछले करीब 20 साल से कांग्रेस में कोई चिंतन शिविर नहीं लगाया गया है. कांग्रेस में आख़िरी चिंतन शिविर जुलाई 2003 में शिमला में लगा था. 2019 में लोकसभा चुनाव शर्मनाक तरीक़े से हारने के बाद से ही कांग्रेस में चिंतन शिविर की मांग उठती रही है. लेकिन कांग्रेस आलाकमान इसे नज़रअंदाज करता रहा है.
शिमला चिंतन शिविर से बदली थी तक़दीर
ग़ौरतलब है कि पच्चीस साल पहले 1997 में कांग्रेस का चिंतन शिविर मध्यप्रदेश के पचमढ़ी में लगाया गया था. अब पचमढ़ी छत्तीसगढ़ में है. कई दिन चले विचार मंथन के बाद पार्टी ने लोकसभा का चुनाव तो अकेले लड़ने का फैसला किया था. लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में विधानसभा में पार्टी की हालत सुधारने के लिए क्षेत्रीय दलों के साथ सम्मानजनक गठबंधन करने का प्रस्ताव पास किया था. उसके बाद 2003 में शिमला में हुए चिंतन शिविर में कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में गठबंधन करने का प्रस्ताव पास किया था. शिमला चिंतन शिविर में गठबंधन की नीति अपनाने के बाद ही कांग्रेस ने पहली बार विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ा था और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को धराशाई कर दिया था. उसके बाद से प्रभावी रूप से कांग्रेस का कोई चिंतन शिविर नहीं हुआ है. कहने को 2013 में जयपुर में चिंतन शिविर लगा ज़रूर था लेकिन उसमें किसी नीति में बदलाव या चुनावी रणनीति पर चर्चा करने के बजाय सिर्फ़ राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाने का फ़ैसला हुआ था.
राहुल की कभी हां कभी ना से बढ़ी दुविधा
ग़ौरतलब है कि 2019 में राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी शिकस्त मिली थी. चुनावी नतीजों के फ़ौरन बाद हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में हार की जिम्मेदारी देते हुए राहुल राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. तब उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि वो दोबारा अध्यक्ष नहीं बनेंगे और न ही उनके परिवार से कोई और अध्यक्ष बनेगा. पार्टी परिवार के बाहर किसी और को अध्यक्ष चुन ले. तमाम मान मनौव्वल के बाद भी राहुल गांधी अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए थे. हार कर अगस्त 2019 में सोनिया गांधी ने बतौर अंतरिम अध्यक्ष कांग्रेस की बागडोर संभाली थी और 6 महीने के अंदर चुनाव कराने का वादा किया था. लेकिन किसी न किसी वजह से लगातार कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव टाला जाता रहा है. दिसंबर 2020 में हुई कार्यसमिति की बैठक में 2021 में होने वाले पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव के बाद चुनाव कराने का फैसला हुआ था. बाद में उसे इस साल के विधानसभा चुनावों के बाद तक टाल दिया गया. अब सितंबर में चुनाव कराने की बात कही जा रही है.
पर्दे के पीछे से राहुल चला रहे हैं पार्टी
हालांकि पर्दे के पीछे से राहुल गांधी ही पार्टी चला रहे हैं. पार्टी में सभी बड़े और अहम फैसल राहुल गांधी ही लेते हैं. जब कोई बड़ा चेहरा पार्टी में शामिल होता है तो तो इसका फैसला राहुल से उसकी मुलाक़ात के बाद ही किया जाता है. हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में सारे फैसले राहुल गांधी ने ही लिए. पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने से लेकर मुख्यमंत्री पद से कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने और चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने तक सारे फैसले राहुल गांधी ने ही किए. यहां तक कि चुनावों के बीच चन्नी के ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होने का ऐलान भी राहुल गांधी ने ही किया था. पार्टी के तमाम बड़े नेता कहते हैं कि जब पार्टी राहुल गांधी को ही चलानी है तो बाक़ायदा अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी संभाले. लेकिन राहुल पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं. अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालने को लेकर राहुल गांधी की कभी हां कभी ना की स्थिति से पार्टी की दुविधा लगातार बढ़ती जा रही है.
घट सकती है केंद्रीय राजनीति में भूमिका
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस साल और अगले साल कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. खास बात यह है कि इन सभी राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी की सीधी टक्कर है. कांग्रेस और राहुल गांधी की असली अग्निपरीक्षा इन्हीं विधानसभा चुनाव में होनी है. इसी साल दिसंबर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने हैं. पार्टी में इन चुनावों की कोई खास तैयारी नहीं दिखती है. अगले साल मई के महीने में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने हैं तो नवंबर में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होंगे. पिछले साल पांच राज्यों पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव हुए थे. तभी कांग्रेस कोई कमाल नहीं कर पाई थी तब कांग्रेस ने पुडुचेरी की अपनी एकमात्र सरकार गंवा दी थी. केरल में वह वामपंथियों से नहीं जीत पाई तो असम में बीजेपी से नहीं छीन पाई. ले देकर तमिलनाडु में कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनी लेकिन इसमें कांग्रेस की भूमिका बहुत छोटी है. अगर कांग्रेस इस साल और अगले साल विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी भूमिका बहुत छोटी हो जाएगी.
ऐसे में साफ़ है कि कांग्रेस के सामने चुनौतियां तो पहाड़ जैसी है लेकिन इनसे निपटने के लिए कांग्रेस के पास अभी कोई न कोई ठोस नीति नज़र आ रही है और न ही रणनीति बनती हुई दिख रही है. ऐसे में यह सवाल बहुत अहम हो जाता है कि आख़िर हार की हताशा और निराशा से कांग्रेस कब और कैसे बाहर निकलेगी?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं.)
tv9 के सौजन्य से सम्पादकीय
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