सम्पादकीय

Congress Chintan Shivir : अंदर से बदलने की इच्छाशक्ति के अभाव में कांग्रेस चिंतन शिविर व्यर्थ है

Gulabi Jagat
14 May 2022 6:41 AM GMT
Congress Chintan Shivir : अंदर से बदलने की इच्छाशक्ति के अभाव में कांग्रेस चिंतन शिविर व्यर्थ है
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इस आत्मनिरीक्षण में वे इस बात पर चिंतन मनन कर सकते थे कि आखिर क्या गलत हो रहा है
आशीष मेहता |
2014 और 2019 की चुनावी हार कांग्रेस (Congress) के शीर्ष नेतृत्व को कुछ दिनों के लिए अलग बैठने और आत्मनिरीक्षण करने के लिए मजबूर न कर सकी. इस आत्मनिरीक्षण में वे इस बात पर चिंतन मनन कर सकते थे कि आखिर क्या गलत हो रहा है जिसकी वजह से वे लगातार हार रहे हैं. उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में ताजा हार और कुछ राज्यों जहां वो सत्ता में थी उनमें से एक पंजाब की हार भी उन्हें जगाने में विफल रही. पिछले आठ वर्षों की तरह विधानसभा चुनाव (Assembly Election) के नतीजों के बाद के दो महीनों में जिस तरह पार्टी के शीर्षस्थ नेता अवकाश पर चले जाते हैं उससे कैडरों को निराशाजनक संकेत ही मिलते हैं. यदि ऊपर के शीर्षस्थ नेताओं में गंभीर इरादे का अभाव रहेगा तो चिंतन शिविर से किसी तरह के नतीजे के आने की संभावना नहीं है.
बहरहाल, अगर इरादा गंभीर है तो तीन दिनों तक कैम्प आयोजित करने की आवश्यकता नहीं है. यह कोई रहस्य नहीं है कि आज के दौर में पार्टी को क्या करना चाहिए? यह ऐसा भी रहस्य नहीं है जिसके लिए इन-डेप्थ प्रेजेन्टेशन पर व्यापक और सावधानीपूर्वक संरचित बहस सत्रों की जरूरत थी. सोनिया गांधी और राहुल गांधी जैसे शीर्ष नेतृत्व को अपनी भूमिका को एक दिन की नौकरी और सालाना अवकाश के साथ नहीं मानना चाहिए. उन्हें अपने प्रतिद्वंदियों की तरह खुद को पूर्णकालिक दिखाना चाहिए. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर वे स्वास्थ्य या व्यक्तिगत पसंद के कारणों से ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं, तो यह उचित समय है कि वे अधिक सक्षम नेताओं के लिए जगह खाली कर दें.
कांग्रेस अपने गौरवशाली अतीत को भूल गई है
मां-बेटे की जोड़ी और वरिष्ठ नेताओं को रियलिटी चेक करना चाहिए. यदि बीजेपी भारतीय राजनीति के व्यापक विमर्श को नियंत्रित करने के लिए आई है तो तमाम विफलताओं के बावजूद यह मतदाताओं का समर्थन कैसे जुटा पा रही है? इसे सांप्रदायिकता या बहुसंख्यकवाद कह कर इसका वर्णन किया जाता है. कांग्रेस 'राष्ट्रवाद' के विमर्श का मुकाबला नहीं कर पा रही है क्योंकि वह अपने गौरवशाली अतीत को भूल गई है और खुद को एक पारिवारिक उद्यम तक सीमित कर चुकी है. एक नेता या एक पार्टी जो बेहद लोकप्रिय है वो आंतरिक आलोचना को नज़रअंदाज कर सकती है.
लेकिन अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही पार्टी ऐसा नहीं कर सकती है. शिविर का केवल एक सूत्री एजेंडा होना चाहिए था: आंतरिक आलोचकों को बोलने दें. अगस्त 2020 में कुछ बहादुर नेताओं ने ऐसा ही करने की कोशिश की थी. 23 नेताओं के समूह 'जी 23' ने सोनिया को पत्र लिखकर संगठनात्मक बदलाव की मांग की. लेकिन पार्टी ने उन्हें नज़रअंदाज कर दिया. जब सोनिया गांधी ने इस सप्ताह कहा कि शिविर बतौर एक रस्म समाप्त नहीं होना चाहिए तो उनका स्पष्ट संकेत था कि इसमें रचनात्मक चर्चा होनी चाहिए.
सोनिया गांधी साफ तौर से उस व्यापक उम्मीद को स्वीकार कर रही थीं कि यह शिविर कैसे आगे बढ़ेगा. कांग्रेस (या फिर भारत के किसी भी अन्य राजनीतिक दल) ने स्वतंत्र बहस की संस्कृति को पार्टी के अंदर विकसित नहीं होने दिया है. पर्दे के पीछे बहुत तीखी नोकझोंक हो सकती है, लेकिन औपचारिक मुलाकातों के दौरान सभ्य लोग मामूली बातों का भी आदान-प्रदान करते हैं और प्रस्तावों का समर्थन करते हैं जिसे बुद्धिमान लोगों द्वारा गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए. यदि पार्टी पहले आंतरिक लोकतंत्र को अमली जामा नहीं पहनाती है तो भारत के लोकतंत्र को मजबूत करने का आह्वान महज खोखला ही साबित होगा.
बीजेपी अपराजेय बनी हुई है
भारत का राजनीतिक परिदृश्य आज एकतरफा दिखता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी ने दूसरे कार्यकाल में भी मतदाताओं के साथ अपना विश्वास बनाए रखा है. करीबन चार दशकों के बाद कोई नेता या पार्टी इस तरह हावी हो सकी है. वैसे मुख्य विपक्षी दल के लिए कम उंचाई पर लटके हुए कई फल अर्थात अवसर रहे हैं. बीजेपी पूर्व और दक्षिण के विशाल क्षेत्रों में पैठ नहीं बना पाई है. उत्तर में भी बीजेपी दो अहम राज्यों दिल्ली और पंजाब में कमजोर है. लेकिन बीजेपी की इस कमजोरी का फायदा आप और तृणमूल जैसे क्षेत्रीय खिलाड़ी उठा रहे हैं. कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर खुद एक विपक्ष के रूप में सिमट कर रह गई है. वहीं बीजेपी अपराजेय बनी हुई है. कांग्रेस उन कुछ राज्यों पर ध्यान केंद्रित करके शुरुआत कर सकती है जहां उसका संगठन अपेक्षाकृत बेहतर है और वो कड़ा चुनौती देने की स्थिति में है.
आसान से आसान काम जो शीर्ष नेतृत्व कर सकती है वो है राज्य के नेताओं के साथ जुड़ना और ब्रेन ड्रेन को रोकना. हिमंत बिस्वा सरमा से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक बड़ी संख्या में दिग्गज नेता बीजेपी की ओर रुख कर रहे हैं. बीजेपी जाने वाले लोगों की सूची में अमरिंदर सिंह अंतिम नहीं होंगे. सत्ताधारी दल की ओर राजनेताओं का रुख करना एक स्वाभाविक घटना है. लेकिन कुछ लोग तो राहुल गांधी के ढुलमुल रवैये की वजह से पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर हुए. मतदाताओं की उम्मीदों पर ध्यान देने से पहले कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अपने महत्वपूर्ण राज्य के नेताओं की अपेक्षाओं को तवज्जोह देना होगा.
कई और विचार और सुझाव हैं. जो कॉमनसेन्स पर आधारित हैं और आज सबकी जानकारी में है, जैसे कि प्रशांत किशोर की गोपनीय प्रस्तुति में शामिल थे. पार्टी को अब और विचार की आवश्यकता नहीं है. लेकिन उन विचारों में से कुछ को क्रियान्वित करने की इच्छा का संकेत तो पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को देना ही होगा. प्रशांत किशोर को ऐन मौके पर पता चल गया था कि शायद इसी इच्छा शक्ति का अभाव है. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक पदाधिकारियों की आयु सीमा और इसी तरह के अन्य परिवर्तनों के साथ छेड़छाड़ करने का इरादा पार्टी अपने तीन दिनों के चिंतन शिविर में कर सकती है. बहरहाल, इस तरह की कवायद से यही संदेश जाएगा कि मां और बेटा चुनौती का सामना करने को तैयार नहीं हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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