सम्पादकीय

कांग्रेस : अध्यक्ष बदलने से कुछ नहीं बदलेगा, चौबीस साल में पड़ी दरारों को पाटने की बड़ी चुनौती

Neha Dani
19 Oct 2022 1:44 AM GMT
कांग्रेस : अध्यक्ष बदलने से कुछ नहीं बदलेगा, चौबीस साल में पड़ी दरारों को पाटने की बड़ी चुनौती
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इस स्थिति को बदलने का कोई उपक्रम राजनीतिक पार्टियों में दूर-दूर तक नहीं दिखता है।
आज कांग्रेस को गांधी परिवार से बाहर का एक नया अध्यक्ष मिल जाएगा। चौबीस वर्षों के बाद हुए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर दो ही उम्मीदवार थे। हालांकि मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना तय ही माना जा रहा है। नया अध्यक्ष मिल जाने के बाद कांग्रेस नेतृत्व और उसकी रीति-नीति में किसी खास बदलाव की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गांधी को कांग्रेस के नेता के रूप में स्थापित कर दिया है। निकट भविष्य में उन्हें कोई प्रभावी चुनौती मिलने की संभावना नहीं है।
इतिहास गवाह है कि कांग्रेस में अध्यक्ष आते-जाते रहे हैं, पर पार्टी अपने नेता के पीछे खड़ी रहती आई है। पिछले सौ साल में ऐसे मौके कम आए हैं, जब अध्यक्ष का कद पार्टी के नेता से बड़ा दिखाई दिया हो। याद करें कि 1920 में बाल गंगाधर तिलक के निधन के बाद मोहनदास करमचंद गांधी कांग्रेस के नेता के रूप में उभरे थे। तब उन्हें दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के सिर्फ पांच साल हुए थे और वह कांग्रेस के अध्यक्ष भी नहीं बने थे। गांधी केवल एक कार्यकाल के लिए 1924 में कांग्रेस अध्यक्ष बने, लेकिन लगभग 27 साल तक कांग्रेस उनके पीछे खड़ी रही।
1939 में गांधी की मर्जी के खिलाफ अध्यक्ष चुने गए सुभाषचंद्र बोस को पार्टी कार्यसमिति का जरा भी सहयोग नहीं मिला। नतीजतन सुभाष बाबू को कांग्रेस छोड़कर फॉरवर्ड ब्लाक नामक अलग पार्टी बनानी पड़ी। शुरू के दो-तीन वर्षों को छोड़ दें (जब तक पटेल जीवित थे), तो प्रधानमंत्री बनने के बाद से अपनी मृत्यु यानी लगभग डेढ़ दशक तक नेहरू ही कांग्रेस के नेता रहे। इस दौरान आधा दर्जन लोग पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठे जरूर, पर उनमें से कोई भी नेहरू के लिए चुनौती नहीं बना।
1962 में चीनी हमले के बाद नेहरू की नेतृत्व क्षमता को लेकर कांग्रेस में सीमित स्तर पर सुगबुगाहट जरूर हुई, लेकिन उन्हें खुली चुनौती कभी नहीं मिली। नेहरू की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री बने लालबहादुर शास्त्री का पार्टी संगठन में कोई ठोस आधार नहीं था। वह स्वाभाविक नेता भी नहीं थे। उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी भी नहीं जताई थी। वह संगठन में पकड़ रखने वाले कांग्रेस नेताओं की आम सहमति से शीर्ष पद पर पहुंचे थे। तब के. कामराज कांग्रेस अध्यक्ष थे।
वह सरकार की नकेल संगठन के हाथों में रखना चाहते थे। उन्होंने शास्त्री को प्रधानमंत्री बनने में मदद भी इसी इरादे से की थी। लेकिन नियति ने कुछ और सोच रखा था। छोटी कद-काठी के शास्त्री ने 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में असाधारण नेतृत्व क्षमता दिखाकर खुद को कद्दावर बना लिया। यदि वह असमय रहस्यमय मौत के शिकार नहीं बनते, तो उनके नेतृत्व को शायद ही कोई चुनौती मिली होती। शास्त्री के निधन के बाद मोरारजी देसाई ने एक बार फिर प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी ठोकी, लेकिन कांग्रेस संगठन पर पकड़ रखनेवाले नेताओं ने इंदिरा गांधी को तरजीह दी। कांग्रेस संसदीय दल के नेता के चुनाव में देसाई को हार का सामना करना पड़ा।
'गूंगी गुड़िया' ने कुछ ही समय में अपने नेतृत्व कौशल से क्षत्रपों को हाशिये पर धकेल दिया। 1969 के राष्ट्रपति चुनाव के समय इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ वीवी गिरि को समर्थन देकर पार्टी को दो-फाड़ करने तक का जोखिम लिया। इस चुनाव में गिरि की जीत के साथ इंदिरा गांधी कांग्रेस की निर्विवाद नेता बन गईं। इंदिरा गांधी के समय जगजीवन राम, शंकर दयाल शर्मा और देवकांत बरुआ भी कांग्रेस अध्यक्ष बने, पर क्या मजाल कि इंदिरा गांधी की मर्जी के बगैर पत्ता भी खड़के।
1969 से 1984 यानी करीब डेढ़ दशक तक कांग्रेस और इंदिरा गांधी एक-दूसरे के पर्याय रहे। हालांकि इसी दौर में इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी समाधान शक्ति केंद्र बन गए थे। बेमन से राजनीति में आए राजीव गांधी को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद आनन-फानन में प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। राजीव प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष, दोनों ही पदों पर रहे। इसलिए उनके समय दो सत्ता केंद्र होने की नौबत ही नहीं आई। लगभग यही स्थिति पीवी नरसिंह राव की भी रही।
उन्होंने पांच साल तक प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष का पद एक साथ संभाला। बहुत छोटे से अंतराल को छोड़कर रिकॉर्ड 24 साल तक कांग्रेस अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी न तो स्वाभाविक नेता थीं और न ही उन्होंने ऐसा दिखने की कोई कोशिश ही की। उन्होंने पूरे समय पार्टी सलाहकारों के भरोसे चलाई। उनके ज्यादातर सलाहकार जनाधारविहीन थे, लेकिन बंद कमरों की राजनीति में दक्ष थे। सोनिया गांधी के खाते में 2003 और 2008 के लोकसभा चुनाव जीतने की उपलब्धि दर्ज की जाएगी, तो पार्टी को घोर रसातल में पहुंचाने का ठीकरा भी फोड़ा जाएगा।
इसके बावजूद मानना होगा कि सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री न बनकर मनमोहन सिंह को यह जिम्मेदारी सौंपकर दरियादिली भी दिखाई और दूरदर्शिता भी। नए अध्यक्ष को अब सब कुछ छोड़कर राहुल गांधी के लिए रास्ता बनाना होगा। राहुल की सफलता-विफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि कांग्रेसजनों की नई पीढ़ी के जोश और होश में वह कितना संतुलन बनाए रख पाते हैं। देश की सबसे बड़ी और केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और उसके पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ की स्थिति भी कांग्रेस से अलग नहीं है।
संस्थापक अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के अलावा जनसंघ के अधिकतर पूर्व अध्यक्षों के नाम कभी-कभार ही सुनने को मिलते हैं। 1969 में अटल बिहारी वाजपेयी के अध्यक्ष बनने और 1980 में भाजपा के रूप में नया अवतार लेने वाली यह पार्टी 2014 यानी करीब साढ़े चार दशक तक अटल-आडवाणी की पार्टी के रूप में पहचानी जाती रही। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी सभी दूसरे नेताओ को हाशिये पर धकेलकर सर्वशक्तिमान नेता के रूप में स्थापित हो गए। भाजपा में उनके नेतृत्व को दूर-दूर तक किसी तरह की चुनौती मिलती नहीं दिखती है। कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ दें, तो देश की ज्यादातर पार्टियों का हाल और भी बुरा है। विडंबना है कि इस स्थिति को बदलने का कोई उपक्रम राजनीतिक पार्टियों में दूर-दूर तक नहीं दिखता है।

सोर्स: अमर उजाला

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