सम्पादकीय

कांग्रेस-भाजपा, दोनों ही जातियों के भरोसे; दोनों दल स्थानीय स्तर पर खुद को मजबूत करने के प्रयास कर रहे हैं

Rani Sahu
22 Sep 2021 9:10 AM GMT
कांग्रेस-भाजपा, दोनों ही जातियों के भरोसे; दोनों दल स्थानीय स्तर पर खुद को मजबूत करने के प्रयास कर रहे हैं
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पंजाब में चरणजीतसिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस समझ रही है

डॉ. वेदप्रताप वैदिक पंजाब में चरणजीतसिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस समझ रही है कि उसने तुरूप का पत्ता चल दिया है। पंजाब में पहली बार कोई दलित मुख्यमंत्री बना है, यह बात क्या पंजाब के 32% दलित वोटों को एकजुट नहीं कर देगी? क्या सभी दलितों के थोक वोट अब कांग्रेस की झोली में नहीं आ गिरेंगे? पंजाब के जाट सिखों और हिंदुओं के वोट खींचने के लिए उन समुदाय के दो उप-मुख्यमंत्री भी बना दिए गए हैं।

कांग्रेस की इस चाल पर भाजपा, अकाली दल, आप पार्टी और बसपा के नेता भन्नाए हुए हैं। उन्हें कल्पना ही नहीं थी कि कांग्रेस इतना जबर्दस्त पैंतरा मार देगी। यदि अमरिंदर सिंह की जगह पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोतसिंह सिद्धू को मुख्यमंत्री बना दिया जाता तो विरोधी दलों का बोझ हल्का हो जाता। वे दोनों एक-दूसरे को निपटाने में जुट जाते। लेकिन तीन बार विधानसभा सदस्य रहे और मंत्रिपद का भी जिन्हें अनुभव रहा, ऐसे दलित को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने विपक्ष को हतप्रभ कर दिया है।
विपक्ष की रणनीति को वास्तव में कांग्रेस ले उड़ी है। पंजाब के सभी विपक्षी दल इस बार किसी न किसी दलित नेता के नाम पर थोक वोट जुटाने पर आमादा थे लेकिन अब वे कांग्रेस की पहल पर खिसिया गए हैं। वे कह रहे हैं कि यह दलित मुख्यमंत्री 'रात के चौकीदार' की तरह हैं। रात खत्म हुई नहीं कि उसकी नौकरी खत्म हो जाएगी। यह रात सिर्फ चुनाव के 4 महीने की है। चुनाव के बाद फिर कोई नया मुख्यमंत्री ऊपर से थोप दिया जाएगा।
दलित को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने एक राजनीतिक दांव तो खेला है लेकिन दलित भी कई जातियों में बंटे हुए हैं और उनमें भी ऊंच-नीच के कई स्तर बने हुए हैं। चन्नी रामदासिया संप्रदाय के दलित हैं लेकिन दलितों में रविदासिया, वाल्मीकि, मजहबी सिख, अदधर्मी आदि कई संप्रदाय हैं। इन संप्रदायों के दलित पंजाब की सभी प्रमुख पार्टियों में फैले हुए हैं।
सभी पार्टियां, खासतौर से आप पार्टी, दलितों को आकर्षित करने की कोशिश कई वर्षों से कर रही हैं तो ऐसी स्थिति में कांग्रेस दलितों के 32% वोटों पर एकाधिकार कर लेगी, यह मान लेना कठिन है। उप्र, कर्नाटक, आंध्र और तमिलनाडु में कई दलित पार्टियां आपस में ही भिड़ी रहती हैं। इसके अलावा पंजाब कांग्रेस में चल रही गुटबाजी से भी चन्नी को निपटना होगा।
पंजाब में हुआ नेतृत्व-परिवर्तन अपने आप में अकेली घटना नहीं है। पिछले कुछ माह में पंजाब के अलावा गुजरात, उत्तराखंड और कर्नाटक में भाजपा के भी मुख्यमंत्री बदल दिए गए हैं। ये मुख्यमंत्री इसलिए नहीं बदले गए हैं कि उनमें किसी ने अपने केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया था या ये बिल्कुल नाकारा साबित हो रहे थे। ये सारे मुख्यमंत्री ठीक-ठाक काम कर रहे थे लेकिन कांग्रेस और भाजपा, दोनों के केंद्रीय नेतृत्व को लगा कि यदि उन्हें अगले प्रांतीय चुनाव जीतने हों तो उन्हें ऐसे नए चेहरे सामने लाने होंगे, जो थोक वोट दिलवा सकें।
इस समय प्रांतों में थोक वोट पाने के लिए पुराने नारे काम के नहीं रह गए हैं। गरीबी हटाओ, इंडिया शाइनिंग आदि नारे पुराने पड़ गए हैं। अब तो सबसे सरल और प्रभावी नारा बस एक ही है- जातिवाद! जातिवाद एकमात्र आधार बचा है, जिसके बल पर चुनाव जीतने की उम्मीद लगाई जा रही है। गुजरात में भाजपा की नजर पटेल वोटों पर है तो कांग्रेस पंजाब में दलित वोटों को हासिल करना चाहती है।
भाजपा और कांग्रेस दोनों अखिल भारतीय पार्टियां हैं लेकिन ये दोनों राष्ट्रीय या स्थानीय मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ेंगी। इसीलिए जातीयता की नाव पर सवार होना दोनों की मजबूरी बन गई है। भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है और कांग्रेस दुनिया की सबसे पुरानी पार्टियों में से है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की ये सबसे बड़ी पार्टियां हैं।
यह चिंता का विषय है कि दोनों पार्टियां अपने मतदाताओं से यह आशा नहीं करती है कि वे अपना वोट देते वक्त उम्मीदवार और उसकी पार्टी के गुण-दोषों के बारे में विचार करंे। बस जाति के नाम पर आंख मींचकर वोट डाल दे। गुण-दोष की उपेक्षा और थोक-वोट की अपेक्षा, यह किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
कांग्रेस और भाजपा, दोनों के शीर्ष नेतृत्व शायद मानने लगे हैं कि प्रांतीय चुनावों को सिर्फ उनके दम पर जीतना आसान नहीं होगा। इसीलिए जनता में ढीली हो रही अपनी पकड़ के जवाब में उन्हें पार्टी में अपनी जकड़ को मजबूत करना पड़ रहा है।
जनता पर ढीली होती पकड़
कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व आम जनता की दृष्टि में प्रभाहीन हो गया है जबकि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को अभी तक कोई चुनौती नहीं है। फिर भी वे दोनों शायद मानने लगे हैं कि प्रांतीय चुनावों को सिर्फ उनके दम पर जीतना आसान नहीं होगा। इसीलिए जनता में ढीली हो रही अपनी पकड़ के जवाब में उन्हें पार्टी में अपनी जकड़ को मजबूत करना पड़ रहा है।


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