सम्पादकीय

वजूद के संकट से जूझती कांग्रेस, नेहरू-गांधी परिवार के पास नहीं बची कोई जादुई छड़ी

Tara Tandi
29 Sep 2021 3:43 AM GMT
वजूद के संकट से जूझती कांग्रेस, नेहरू-गांधी परिवार के पास नहीं बची कोई जादुई छड़ी
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पंजाब में लगातार बदलता घटनाक्रम और राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में आकार ले रहे

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| तिलकराज। पंजाब में लगातार बदलता घटनाक्रम और राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में आकार ले रहे राजनीतिक तूफान यही संकेत करते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के नियंत्रण में कांग्रेस की जड़ें कमजोर होने के साथ ही उसका प्रभाव भी घट रहा है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को फिलहाल आंतरिक विरोध का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में पार्टी का आलाकमान इन दिनों खासा सक्रिय है। इस आलाकमान में सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी वाड्रा शामिल हैं। हाल में उन्होंने कांग्रेस के क्षत्रप अमरिंदर सिंह को ऐसी परिस्थितियों में अपमानित किया, जिसका पार्टी को राजनीतिक रूप से खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। अमरिंदर का अपना राजनीतिक वजूद है और मतदाताओं को लुभाने के लिए वह नेहरू-गांधी परिवार के मोहताज नहीं। छत्तीसगढ़ में आलाकमान का ऐसा ही दखल राज्य में पार्टी की स्थिति को डांवाडोल कर सकता है। राजस्थान में नेहरू-गांधी परिवार सचिन पायलट की नेतृत्व क्षमता को भांपने में नाकाम रहा। वह इसे लेकर भी असहज है कि पायलट को जीतने के लिए उसके सहारे की जरूरत नहीं। यह तय है कि भविष्य में कांग्रेस को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

कैप्टन अमरिंदर सिंह राजीव गांधी के सहपाठी रहे और नेहरू-गांधी परिवार से उनका वर्षों पुराना नाता है। वह नेताओं की उस पुरानी पीढ़ी से ताल्लुक रखते हैं, जिनके लिए आत्मसम्मान और गरिमा बहुत मायने रखती है। वह खुशामद करने वाले नेता नहीं। कांग्रेस में इंदिरा गांधी के जमाने से शुरू हुआ चापलूसी का चलन राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी के समय में भी कायम है। कांग्रेस फिलहाल साढ़े-तीन लोगों की एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है, जिसमें सोनिया, राहुल और प्रियंका के साथ आधे हिस्सेदार राबर्ट वाड्रा भी हैं। इसमें दरबारियों का बोलबाला है। अमरिंदर जैसे कद्दावर नेता को पार्टी के प्रथम परिवार के समक्ष ही सत्ता गंवानी पड़ी।

अपने क्षत्रपों को अपमानित करने का कांग्रेस का पुराना इतिहास रहा है। दो उदाहरण तत्काल जेहन में आते हैं। जब राजीव गांधी पार्टी महासचिव थे तो उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे टी अंजैया को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया। फिर प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष के रूप में उन्होंने यही सुलूक कर्नाटक के मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को हटाकर किया। अंजैया प्रकरण ने आंध्र के लोगों के आत्मगौरव पर आघात किया। इससे कांग्रेस का पराभव होता गया। परिणामस्वरूप 1982 में तेलुगु देसम पार्टी अस्तित्व में आई। तबसे राज्य में कांग्रेस अस्तित्व के संकट से जूझती आई है। वीरेंद्र पाटिल मामले ने न केवल पार्टी की छवि पर प्रहार किया, बल्कि इससे कर्नाटक के प्रभावी लिंगायत समुदाय में भी उसका जनाधार खिसक गया। कर्नाटक में वह आज तक उस राजनीतिक झटके से उबर नहीं पाई है। हालांकि, आंध्र और तेलंगाना की तुलना में कर्नाटक में उसकी स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है। पार्टी की इस दुर्गति के लिए परिवारवाद सबसे ज्यादा जिम्मेदार है, जो आंतरिक विमर्श से लेकर राजनीतिक संकटों का परिपक्वता से सामना करने की क्षमताएं विकसित करने की राह में अड़ंगा लगाता है।

नेहरूकालीन कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र संस्थागत रूप में विद्यमान था। कांग्रेस कार्यसमिति, संसदीय बोर्ड और संसदीय दल जैसी इकाइयों में व्यापक विचार-विमर्श की परंपरा थी। चुने हुए प्रतिनिधि ही इनका हिस्सा बनते थे। उनका मनोनयन नहीं होता था, जैसा कि बाद में पार्टी अध्यक्ष द्वारा किया जाने लगा। तब विभिन्न मुद्दों पर तीखी बहस होती थी। अधिकांश बड़े राजनीतिक फैसले पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच विचार-विमर्श के बाद होते थे। फिर चाहे राज्य में मुख्यमंत्री बदलने का ही फैसला क्यों न हो। ऐसे फैसले किसी व्यक्ति विशेष की इच्छा पर नहीं होते थे। निर्णय हमेशा सामूहिक होता था। शासन के संबंध में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती। पंचवर्षीय योजना, कृषि नीति या औद्योगिक नीति जैसा कोई और मसला हो, सभी पर गहन मंथन के बाद ही नीतियां बनतीं। तब ऐसा खुलापन था कि संविधान के प्रथम संशोधन संबंधी नेहरू के प्रस्ताव का 70 कांग्रेसी सांसदों ने विरोध किया और उनकी इच्छा के अनुसार ही वह संशोधन आकार ले सका। ये सब अतीत की बातें हैं।

सरकार और पार्टी पर इंदिरा गांधी की पकड़ के बाद स्थितियां बदलने लगीं। राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव वाले नेताओं को मजबूरी में ही सही सरकार का हिस्सा बनाया जाता। हालांकि, उनसे हमेशा परामर्श नहीं किया जाता। वहीं राजनीतिक रूप से रीढ़विहीन चाटुकारों को आगे बढ़ाया जाता, क्योंकि परिवार के प्रति वफादारी सबसे अधिक मायने रखती। समस्या यह भी रही कि पार्टी वोट जुटाने के लिए पूरी तरह परिवार पर निर्भर हो गई थी। यही कारण रहा कि राजनीतिक रसूख वाले कांग्रेस नेताओं ने या तो अपनी पार्टी बना ली या फिर उन दलों में शामिल हो गए जहां उन्हें बेहतर संभावनाएं दिखीं।

ऐसे नेताओं की सूची बहुत लंबी है, जिन्होंने अपना राजनीतिक सफर तो कांग्रेस से शुरू किया, लेकिन बाद में अपने रास्ते अलग कर लिए। इनमें एचडी देवगौड़ा, रामकृष्ण हेगड़े, चंद्रबाबू नायडू, वीपी सिंह और ममता बनर्जी से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे तमाम नाम शामिल हैं। कांग्रेस से इन नेताओं के पलायन और चुनाव में उसके लगातार मानमर्दन में सीधा संबंध दिखता है। नेहरू और इंदिरा गांधी के दौर में पार्टी लोकसभा चुनावों में 42 से 45 प्रतिशत वोटों के साथ करीब 65 प्रतिशत सीटें जीतती थी। 1957 के चुनाव में 47.8 प्रतिशत मतों के साथ उसने सबसे बेहतरीन प्रदर्शन किया, जो रिकार्ड इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए चुनाव में 48.1 प्रतिशत मतों के साथ टूटा। ये सब इतिहास है। वर्ष 2000 से 2010 के बीच कांग्रेस का मत प्रतिशत 25 से 28 प्रतिशत के दायरे में झूलता रहा, जो पिछले लोकसभा चुनाव में 19.7 प्रतिशत पर आकर ठिठक गया।

कुल मिलाकर कांग्रेस वजूद के संकट से जूझ रही है। जब तक अमरिंदर और पायलट जैसे जनाधार वाले नेताओं को शीर्ष पर लाकर सामूहिक नेतृत्व वाली परंपरा बहाल नहीं की जाती, तब तक कांग्रेस का भला नहीं होने वाला।

नेहरू-गांधी परिवार के पास मतदाताओं को लुभाने और पार्टी का कायाकल्प करने के लिए कोई जादुई छड़ी शेष नहीं बची। जब तक अमरिंदर और पायलट जैसे जनाधार वाले नेताओं को शीर्ष पर लाकर सामूहिक नेतृत्व वाली परंपरा बहाल नहीं की जाती, तब तक कांग्रेस का भला नहीं होने वाला।


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