सम्पादकीय

उत्तर और दक्षिण का संगम : भारतीय संस्कृति और सभ्यता के साथ एकता के अटूट सूत्र में जुड़ जाने के मायने

Neha Dani
25 Nov 2022 2:52 AM GMT
उत्तर और दक्षिण का संगम : भारतीय संस्कृति और सभ्यता के साथ एकता के अटूट सूत्र में जुड़ जाने के मायने
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जीवन की आवश्यकताओं और व्यावसायिक संबंधों को भी सुदृढ़ करने की कोशिश है।
उत्तर एवं दक्षिण, विशेषकर तमिलनाडु को संपूर्ण भारतीय संस्कृति और सभ्यता के साथ एकता के सूत्र में जोड़ने का जो कार्य पहले होना चाहिए था, वह अब हो रहा है। मानव समाज के बीच भौगोलिक दूरियां चाहे जितनी बड़ी हों, संस्कृति, सभ्यता और धर्म जुड़े हों, तो उनमें परस्पर एकता का भाव अटूट रहता है। हाल ही में वाराणसी में संपन्न हुए काशी तमिल संगमम को इसी उद्देश्य का आयोजन कहा जा सकता है।
तमिलनाडु का एक वर्ग स्वयं को आम भारतीय से अलग द्रविड़ संस्कृति का भाग मानता है। अंग्रेजों ने आर्य-द्रविड़ खाई पैदा की और उसे कमजोर करने के बजाय देश के इतिहासकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और नेताओं द्वारा ज्यादा गहरी की गई। ऐसा कोई प्रामाणिक ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथ्य नहीं जिनके आधार पर मान लिया जाए कि आर्य और द्रविड़ संस्कृतियां अलग-अलग थीं और इनमें संघर्ष था। आर्य और द्रविड़, दोनों जातिसूचक शब्द नहीं थे, लेकिन बना दिए गए। इसके विपरीत दक्षिण और उत्तर के देवस्थानों को जोड़ने के अनेक कर्मकांड और तथ्य मौजूद हैं। उन तथ्यों को सामने लाना तथा लोगों के बीच इसके आधार पर समागम कराने से बड़ा प्रयास एकता की दृष्टि से कुछ हो नहीं सकता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एमपीथिएटर ग्राउंड पर संगमम का उद्घाटन करते हुए ठीक ही कहा कि हमें आजादी के बाद हजारों वर्षों की परंपरा और इस विरासत को मजबूत करना था, इस देश का एकता का सूत्र बनाना था, लेकिन दुर्भाग्य से इसके लिए बहुत प्रयास नहीं किए गए। हमें आजादी के बाद हजारों वर्षों की परंपरा विरासत को मजबूत करना है और संगमम इस संकल्प को ऊर्जा देगा।
प्रधानमंत्री मोदी ने धर्म-संस्कृति और सभ्यता से जुड़े एकता के उन सूत्रों का उल्लेख भी किया, जो आज भी साकार रूप में हैं। मसलन, जीवन के हर क्षेत्र में दोनों के बीच संबंध के प्रमाण के रूप में तमिल विवाह परंपरा में काशी यात्रा की एक महत्वपूर्ण रस्म है। दूसरा, प्राचीन काल से अब तक तमिलनाडु की अनेक विभूतियों ने काशी में जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा बिताया है।
तीसरा, काशी में बाबा विश्वनाथ और तमिल में रामेश्वरम है। यानी एक ही चेतना अलग-अलग रूपों में देखने को मिलती है। काशी और तमिलनाडु, दोनों ही शिवमय हैं, शक्तिमय हैं। चौथे, मोक्षदायी नगरों में काशी के साथ कांची का भी वर्णन है। काशी और कांची, दोनों में आचार्यों की लंबी परंपरा है और इनमें एक जैसी ऊर्जा और दर्शन है।
ये सारी बातें आज सामने आई हैं, ऐसा नहीं है। इनके रहते हुए आर्य-द्रविड़ मतभेद की बातें पाठ्यपुस्तकों से लेकर आम जन जीवन में इतनी बार गुंजित की गई कि वही सच दिखने लगा। हिंदी के विरुद्ध सबसे उग्र और हिंसक आंदोलन तमिलनाडु में ही हुआ, क्योंकि इसे आर्यों की भाषा बताया गया। हालांकि संस्कृत के ग्रंथों का सम्मान और उन पर अध्ययन की बड़ी परंपरा तमिलनाडु में है। पहले भी इस दूरी को पाटने की कोशिश हुई।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी को संपूर्ण भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान चलाया। उन्होंने रामायण और महाभारत लिखकर उत्तर और दक्षिण को जोड़ने का काम किया। किंतु यह आगे नहीं बढ़ पाया। काशी से इसे आगे बढ़ाने की पहल स्वाभाविक है। वैदिक विद्वान राजेश्वर शास्त्री तमिलनाडु से थे, परंतु काशी में रहते थे। काशी के हनुमान घाट पर रहने वाले पट्टाभिराम शास्त्री भी वहीं के थे।
तमिल मंदिर काशी कामकोटेश्वर पंचायतन मंदिर हरिश्चंद्र घाट के किनारे है, और केदार घाट पर दो सौ साल पुराना कुमारस्वामी मठ और मार्कंडे आश्रम है। आज भी तमिलनाडु के लोग केदार घाट और हनुमान घाट के किनारे रह रहे हैं। ध्यान रखिए कि संगमम में व्यवसायों के भी संगम का कार्यक्रम है। यानी दोनों क्षेत्र के लोगों के बीच संस्कृति, धर्म, परंपरा पर आधारित भावनात्मक संबंधों के साथ जीवन की आवश्यकताओं और व्यावसायिक संबंधों को भी सुदृढ़ करने की कोशिश है।

सोर्स: अमर उजाला

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