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- ट्राइब्यूनल पर टकराव
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सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न ट्राइब्यूनल में खाली पड़े पदों को भरने में हो रही देरी को लेकर असाधारण सख्ती दिखाई है। उसने कहा है कि लगता है जैसे सरकार के मन में इस कोर्ट के लिए कोई सम्मान नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न ट्राइब्यूनल में खाली पड़े पदों को भरने में हो रही देरी को लेकर असाधारण सख्ती दिखाई है। उसने कहा है कि लगता है जैसे सरकार के मन में इस कोर्ट के लिए कोई सम्मान नहीं है। वह हमारे धैर्य की परीक्षा ले रही है। केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक सप्ताह के अंदर नियुक्तियां करने को कहा। अदालत को हैरानी इस बात पर थी कि बार-बार कहने और मौजूदा कानूनों के तमाम प्रावधानों का पालन करते हुए नाम भेजे जाने के बावजूद नियुक्तियां नहीं की जा रही हैं। सरकार की ओर से इसका कोई ढंग का स्पष्टीकरण भी पेश नहीं किया जा सका कि आखिर नियुक्तियां न किए जाने की क्या वजह रही। लेकिन मामला सिर्फ नियुक्तियों तक सीमित नहीं।
अदालत की नाराजगी सरकार की ओर से पिछले महीने लाए गए ट्राइब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट को लेकर भी है। इससे मिलते-जुलते प्रावधानों वाले पिछले कानून को सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुका है। इसके बावजूद वैसे ही प्रावधान नए कानून की शक्ल में लाए गए। शीर्ष अदालत ने इस पर तीखी आपत्ति करते हुए कहा कि हम किसी कानून के खिलाफ फैसला देते हैं, आप कुछ दिनों बाद वैसा ही नया कानून ले आते हैं। यह एक पैटर्न सा बनता जा रहा है। निश्चित रूप से यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इससे ऐसा संदेश जा सकता है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की परवाह नहीं करती।
अदालत ने जिम्मेदारी और अधिकारों की बारीक सीमा को रेखांकित करते हुए स्पष्ट किया कि सरकार फैसले का मुख्य संदेश ग्रहण करते हुए उसके अनुरूप नया कानून बना सकती है, वह किसी फैसले के आधार को भी बदल सकती है, लेकिन फैसले की मुखालफत करते हुए कोई नया कानून नहीं बना सकती। फैसले का आधार बदलने और मुखालफत करने के बीच सुप्रीम कोर्ट द्वारा बताए गए अंतर पर थोड़ा गौर किया जाए तो साफ होता है कि सरकार किसी खास कानून में संशोधन करके कोर्ट द्वारा की गई उसकी पिछली व्याख्या के आधार को और विस्तृत कर सकती है, जिससे हो सकता है अगली बार कानून की वह व्याख्या बदल जाए।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट कानून के जिस प्रावधान को खारिज करे, वही प्रावधान फिर से लाए जाएं तो यह कोर्ट के फैसले का उल्लंघन हो जाता है। इसे ठीक नहीं माना जा सकता। वैसे यह भी सच है कि अभी इस मामले की सुनवाई चल ही रही है और केंद्र सरकार द्वारा अपना पक्ष रखा जाना बाकी है। अभी यह मानना मुनासिब होगा कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की गंभीरता को समझती है। लेकिन किसी भी वजह से अगर सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि किसी मामले में उसके आदेशों की अनदेखी हुई है तो सरकार को इस मामले की तह तक जाते हुए उसके कारणों का पता लगाना चाहिए और उन्हें अविलंब दूर करना चाहिए।
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