सम्पादकीय

बीजिंग की स्वीकारोक्ति

Triveni
20 Feb 2021 12:47 AM GMT
बीजिंग की स्वीकारोक्ति
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पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग झील क्षेत्र से सैनिकों के पीछे हटने का काम पूरा हो गया है और अगले कुछ घंटों के भीतर ही शेष मुद्दों पर भारतीय और चीनी सैन्य-कमांडरों की वार्ता होने वाली है।

जनता से रिश्ता वेबडेसक | पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग झील क्षेत्र से सैनिकों के पीछे हटने का काम पूरा हो गया है और अगले कुछ घंटों के भीतर ही शेष मुद्दों पर भारतीय और चीनी सैन्य-कमांडरों की वार्ता होने वाली है। यकीनन, यह सुकूनदेह बात है कि महीनों के गतिरोध और अनावश्यक तनाव के बाद सुलह की कोई सूरत बनती दिख रही है। दरअसल, दिसंबर-जनवरी की जानलेवा सर्दी में भारतीय जांबाजों की दिलेरी और बहुत आर्थिक भार सहते हुए भी नई दिल्ली की दृढ़ता देखकर चीनी नेतृत्व को एहसास हो गया होगा कि भारत अब अपने हितों को लेकर कोई नरमी नहीं बरतने वाला, इसलिए खुद को और ज्यादा भुलावे में रखने से बेहतर है कि हालात सुधारने की ओर बढ़ा जाए। फिर जैसी कि रिपोर्टें हैं, बड़ी संख्या में तैनात चीनी सैनिकों के लिए भयानक सर्दी में पहाड़ों पर लंबे समय तक बने रहना भी मुश्किल हो रहा था। बीजिंग के व्यावहारिक रुख अपनाने के पीछे यह भी एक बड़ी वजह होगी। चीन को लेकर कोई भी धारणा बनाना या उसकी बातों पर यकीन करना क्यों मुश्किल है, इसकी तस्दीक इस बात से भी की जा सकती है कि पिछले साल जून में गलवान घाटी की झड़प में उसके भी सैनिक शहीद हुए थे, इस बात को कुबूलने में उसे आठ महीने लग गए। कल उसने पहली बार आधिकारिक तौर पर माना कि उस संघर्ष में उसके भी चार अफसर-सैनिक शहीद हुए थे। पीएलए डेली के हवाले से ग्लोबल टाइम्स ने इस खबर की पुष्टि की है। जो मुल्क इतना हृदयहीन हो कि अपने शहीदों को सम्मान देने में उसे इतना वक्त लग जाए, उसके इस आंकडे़ की विश्वसनीयता भी संदिग्ध ही मानी जाएगी। तब तो और, जब एक रूसी न्यूज एजेंसी ने चंद रोज पहले ही यह खुलासा किया है कि उस संघर्ष में चीन के 45 जवान शहीद हुए थे। चीन का प्रशासनिक ढांचा अमानवीयता की हद तक गोपनीयता बरतता है। बीते दशकों की बात छोड़ दीजिए, हाल-फिलहाल के ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं, जब सच बोलने वाले नागरिकों को वहां बर्बर दंड भोगना पड़ा। इसमें कोई दोराय नहीं कि सरहद पर शांति किसी भी देश की तरक्की के लिए बहुत जरूरी होती है। भारत के साथ टकराव बढ़ाकर इस उप-महाद्वीप की आर्थिक प्रगति को बाधित करने की किसी भी कोशिश का खामियाजा बीजिंग को खुद भुगतना पड़ेगा। इसलिए यह तो तय है कि एक सीमा के बाद वह तनाव को आगे नहीं ले जा सकता। उसकी यह रणनीति न तो भारतीय नीति-निर्धारकों से छिपी है और न अब दुनिया ही इससे गाफिल है। फिर भी, उसके दुस्साहस के आगे आक्रामक रुख अपनाने की जो रणनीति हमने इस बार अपनाई है, उसे ठोस रूप देने की जरूरत है। विदेश मंत्री संकेत कर चुके हैं, बीजिंग के साथ संबंधों की बेहतरी सीमा की गतिविधियों से हमेशा जुड़ी रहेगी। निस्संदेह, यह विवाद दोनों देशों के रिश्तों में एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हो सकता है। बीजिंग को समझना ही होगा कि सीमा-विवाद को अंतिम रूप से सुलझाने का वक्त अब आ गया है। दो कदम आगे बढ़, एक कदम पीछे हटने की उसकी कोई चाल भारत को स्वीकार्य नहीं है। जिस तरह, गलवान की एक सच्चाई को आठ महीने बाद ही सही, दुनिया के सामने कुबूल करने को वह बाध्य हुआ है, उम्मीद है कि बाकी भारतीय दावों की हकीकत को भी वह तस्लीम करेगा।


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