सम्पादकीय

चिंता टीकों की

Subhi
24 May 2021 2:06 AM GMT
चिंता टीकों की
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टीकाकरण की धीमी रफ्तार गंभीर चिंता की बात है। महामारी पर काबू पाने के लिए जांच, इलाज और संपर्कों का पता लगाने से भी ज्यादा टीकाकरण को सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय माना गया।

टीकाकरण की धीमी रफ्तार गंभीर चिंता की बात है। महामारी पर काबू पाने के लिए जांच, इलाज और संपर्कों का पता लगाने से भी ज्यादा टीकाकरण को सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय माना गया। लेकिन इस काम में ही सबसे ज्यादा मुश्किलें आ रही हैं। समय से टीकों की आपूर्ति नहीं होने से कई राज्यों को अपने यहां टीकाकरण केंद्र बंद करने को मजबूर होना पड़ रहा है। कई राज्यों के स्वास्थ्य मंत्री टीकों के लिए गुहार लगा रहे हैं। यह बिल्कुल वैसी स्थिति बन गई है जैसे पिछले दिनों ऑक्सीजन संकट के दौरान देखने को मिली थी। गौरतलब है कि महामारी जिस प्रकृति की है, उसे देखते हुए जल्द से जल्द सबको टीके चाहिए। हालांकि केंद्र सरकार के दावों में कहीं कोई कमी नहीं है। सरकार लगातार कह रही है कि टीके पर्याप्त हैं, राज्यों को पर्याप्त आपूर्ति हो रही है और इसी साल के अंत तक देश की बड़ी आबादी का टीकाकरण कर दिया जाएगा। अगर ऐसा है तो फिर क्यों राज्यों को टीकाकरण केंद्र बंद करने पड़ रहे हैं? अगर राज्यों के पास टीका ही नहीं होगा और सिर्फ दो-तीन दिन के भंडार पर यह अभियान चलेगा तो कैसे टीकाकरण का लक्ष्य पूरा होगा, यह समझ से परे है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि टीकाकरण अभियान को लेकर कई संकटों से दो-चार होना पड़ रहा है। इसके लिए पूरे तौर पर केंद्र सरकार ही जिम्मेदार दिखती है। देश में टीकाकरण की नीति और उस पर अमल तक के मामले में आए दिन जिस तरह के फैसले देखने को मिल रहे हैं, उससे लगता है कि इस मिशन की तैयारियों में भारी खामियां रहीं। टीका निर्माता कंपनियों की कमी, उनका रुख, उत्पादन क्षमता, कीमत को लेकर मोलभाव के हालात जैसे तमाम कारण हैं जो इस अभियान में बाधा बने। टीकों की खरीद और मोलभाव को लेकर राज्यों को अलग जूझना पड़ रहा है। जबकि पिछले एक साल से सरकार को यह पता था कि आने वाले वक्त देश में बड़ा टीका अभियान चलाना पड़ेगा। लेकिन टीका आ जाने के बाद भी सरकार देश की जरूरत के मुताबिक इनका उत्पादन सुनिश्चित नहीं कर पाई।
देश सिर्फ दो टीका निर्माता कंपनियों सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटैक पर ही निर्भर बना रहा। जबकि होना यह चाहिए था कि महामारी की दस्तक के बाद ही सरकार और कंपनियों को टीके तैयार करने की मुहिम में लगाती। भले इनमें कितना ही निवेश या खर्च क्यों न आता। फिर सीरम जैसी कंपनियों ने दूसरे देशों के साथ जो व्यापारिक अनुबंध पहले ही कर लिए थे, उससे उसे रोका जाना था और देश की जरूरत पहले पूरी की जानी थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। टीके निर्यात होते रहे। इसकी कीमत आज देश की जनता चुका रही है

अब आनन-फानन में विदेशी टीकों को मंजूरी देनी पड़ रही है। लेकिन इन टीकों को भी आने में अभी वक्त लगेगा। देशी कंपनियों का उत्पादन बढ़ने में भी दो-तीन महीने लग जाएंगे। लेकिन तब तक क्या होगा? इधर, अठारह से चवालीस साल के वयस्कों के लिए भी मांग अचानक बढ़ गई। इसका नतीजा यह हुआ कि अब न तो वयस्कों को ही टीके लग पा रहे हैं और न ही चवालीस साल से ऊपर वालों के टीकाकरण का काम तरीके से चल रहा है। लोग रोजाना कतारों में धक्के खा रहे हैं। जिसे टीके की पहली खुराक लग गई है, उसे दूसरी के लिए चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। यह स्थिति एक लचर और लापरवाह व्यवस्था का परिचायक है। जाहिर है, आकलन के हर स्तर पर हम कमजोर रहे। क्या ऐसे में साल के अंत तक टीकाकरण का लक्ष्य हासिल हो पाएगा?

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