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मोहन वर्मा: हमारा समाज अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील लोगों का समाज है। व्यवस्थागत असमानता और अमीरी-गरीबी की खाई के बावजूद अच्छे लोगों की कमी नहीं है। देश में लोग और संगठन न केवल वक्त आने पर मानवता के आधार पर जरूरतमंदों की सहायता के लिए सामने आकर अपना कर्तव्य निभाते हैं, बल्कि लगातार सेवा कामों मे जुटे रहते हैं। प्राकृतिक आपदा और संकट की घड़ी में तो ये जज्बा मिसाल की तरह सामने आता है। समाज के जरूरतमंदों की सेवा में जुटी कई संस्थाएं तो ऐसे समाजसेवियों द्वारा संचालित की जाती हैं, जिनके लिए दूसरों की और जरूरतमंदों की सेवा एक जुनून होती है। इनमें कई पैसे वाले होते हैं तो कई ऐसे निर्धन कि जिनके लिए खुद का जीवनयापन मुश्किल होता है, मगर किसी जरूरतमंद के लिए सहायता करना उनकी प्राथमिकता में होता है।
अपने आसपास नजर दौड़ाएंगे तो कोई मरीजों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराता नजर आता है तो कोई भूखों को भोजन उपलब्ध कराने में जुटा नजर आता है। कोई शारीरिक रूप से अशक्तों की सेवा कर रहा होता है तो कोई बेसहारा लोगों का सहारा बना दिखता है। कोई धूप में नंगे पैरों को चप्पल पहना रहा है तो कोई नंगे बदन को ढकने के लिए कपड़ों की व्यवस्था में जुटा नजर आता है। कितने ही लोग लावारिस शवों के अंतिम संस्कार के काम को गुपचुप तरीके से बरसों से कर रहे हैं। सुखद आश्चर्य की बात यह कि कई लोग ये सेवा का काम इतने गुपचुप तरीके से करते हैं कि उनके कामों की किसी को खबर भी नहीं होती।
वे अपने समय के बड़े दानदाता कवि रहीम के आदर्शों को सामने रखकर अपना काम करते हैं। कहते हैं, कवि और दानी रहीम जब किसी को दान देते थे, तो अपनी आंखें नीची कर लेते थे। किसी ने जब रहीम से इसका कारण पूछा कि 'देनी ऐसी देन की कित सीखे हो सेन/ ज्यों ज्यों कर ऊंचे करो त्यों त्यों नीचे नैन', तब रहीम का जवाब था- 'देनहार कोई है, भेजत जो दिन रैन/ लोग भरम हम पर करें, तासो नीचे नैन।' ये लोग मानते हैं। देने वाले हम नहीं, कोई और है तो फिर कैसा दिखावा?
मगर इन दिनों निजी स्वार्थ, अहंकार और दिखावे के इस समय में ढेर सारे लोग और संस्थाएं काम कम और दिखावा ज्यादा करते नजर आते हैं। आए दिन बड़ी-बड़ी संस्थाओं के चमकदार चेहरे गरीबों को चारों तरफ से घेरकर छोटी-मोटी सहायता देते हुए ऐसे फोटो खिंचवाते हैं, मानो उस पर अहसान कर रहे हों। आए दिन अखबारों में गरीबों को कपड़े, फल बांटते समाजसेवियों की तस्वीरें देखने मे आती हैं।
समाजसेवा का छद्म आवरण ओढ़े कथित समाज सेवियों और संस्थाओं का लक्ष्य कई बार आर्थिक लाभ कमाना, पद पर लगातार बने रहना और येनकेन प्रकारेण सेवा के नाम पर चेहरा चमकाना ज्यादा होता है। जरूरतमंदों के नाम पर मिलने वाली मलाई पर उनकी नजर होती है। ऐसी फर्जी संस्थाओं और इनके फर्जीवाड़े के कारण वास्तविक काम करने वाले सच्चे समाजसेवियों को भी कई बार शंका की नजर से देखा जाता है।
दूसरी ओर, आज नकली समाजसेवियों की तरह नकली जरूरतमंद भी सामने आ रहे हैं। दिया गया राशन, कपड़े बेचकर नगद करते और उस नगदी से नशा करने वाले लोग भी सामने आ रहे हैं, जो सच्चे जरूरतमंदों और मददगारों, दोनों को बदनाम करते हैं। देने वालों की कमी नहीं है, मगर लेने वाले सही पात्र ढूंढ़ना भी एक मुश्किल काम लगता है। आए दिन देखा जाता है कि मंदिरों के बाहर, तीर्थस्थलों पर कई नकली असहाय जनता और महिलाओं के इर्दगिर्द कुछ भिक्षा मांगने के लिए जिस तरह घूमते हैं, वह दुखद है।
कई बार कुछ लोगों को शारीरिक रूप से सक्षम होते हुए भी बिना मेहनत किए लोगों की भावनाओं से खेलकर कमाया पैसा नशाखोरी में उपयोग करते भी देखा गया है। कई बार जरूरतमंदों की मदद के लिए निकलने पर सुपात्र को खोजना भी एक मुश्किल काम नजर आता है, जहां वाकई जरूरतमंदों की जगह ऐसे लोग जबरदस्ती भोजन और सामान पर टूट पड़ते है, जो कहीं से भी निरीह, असहाय और जरूरतमंद नहीं थे।
आज जरूरतमंद की सहायता करने वालों में कई बार दिखावे की प्रवृत्ति नजर आती है। सच्ची सेवा में गुपचुप तरीके से लगे समाजसेवियों की बनिस्बत व्यक्ति के अहंकार और खुद को समर्थ व श्रेष्ठ जताने की कोशिश ज्यादा होती है। सच्ची मदद कम होती है। ऐसे लोग और संस्थाएं आज बहुतायत में नजर आती हैं जो अपने स्वार्थ के लिए और सेवा के नाम पर मेवा पाने का लक्ष्य लेकर चल रहे है। ऐसी संस्थाएं, ऐसे लोग फोटो, प्रेस नोट के माध्यम से खुद को प्रचारित करने को प्राथमिकता मानकर चलते हैं। मोहल्ला स्तर से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय होने का दिखावा करने वाली संस्थाएं और समाजसेवा का नकली चेहरा लगाए लोग सिर्फ चांदी काटते हैं। किसी जरूरतमंद की मदद करते समय ऐसे लोगों को और सुपात्र को पहचानना जरूरी है।