सम्पादकीय

मजबूरी बनाम जिम्मेदारी

Subhi
17 Feb 2023 5:24 AM GMT
मजबूरी बनाम जिम्मेदारी
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यह कल्पना भी दुख से भर देती है कि किसी मां को मजबूरी के इस स्तर का सामना करना पड़ा, जिसमें उसके सामने कुछ पैसों के बदले अपनी ही एक साल की बच्ची को किसी को सौंपने की नौबत आ गई। निश्चित रूप से बेटी के बदले पैसे लेना गलत है, मगर सवाल है कि अगर नैतिकता को सामाजिक संदर्भों में परिभाषित किया गया है तो उस महिला की लाचारगी से उपजी त्रासदी को कम करने में क्या समाज की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए?

आखिर अपने जीवन के झंझावात के बीच किसी मां के सामने वह कैसी मजबूरी पैदा हुई कि उसे इस स्थिति का सामना करना पड़ा? गौरतलब है कि महाराष्ट्र में एक साल की बच्ची को बेचे जाने के इस मामले में बंबई हाई कोर्ट ने एक भावुक टिप्पणी की कि इक्कीसवीं सदी में भी लड़कियों को वस्तु समझा जाता है और उन्हें वित्तीय लाभ के माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन साथ ही अदालत की यह बात भी बेहद अहम है कि जीवन की कठिन सच्चाई यह है कि बच्ची की मां ने उसे जरूरत के कारण किसी को पैसे के बदले दिया था और ऐसे में उसकी स्थिति का भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

हालांकि हाई कोर्ट ने परिस्थितियों के मद्देनजर पैसा देकर बच्ची को रखने की आरोपी महिला को जमानत दे दी, मगर यह भी कहा कि उसने ऐसा करके मानवता को शर्मसार करने का काम किया। दरअसल, पीड़ित महिला ने जब बाद में पैसा चुका दिया, तब भी आरोपी दंपति ने उसकी बेटी को वापस करने से इनकार कर दिया था।

गनीमत है कि देश के कानून के तहत बच्ची को खरीदना अपराध है और इसलिए आरोपी महिला के खिलाफ कार्रवाई हुई। इस समूचे मामले में कानूनी कसौटियों से इतर सामाजिक नैतिकता और मानवाधिकार के प्रश्न भी आमने-सामने खड़े होते हैं। सवाल है कि जिन लोगों ने बच्ची के एवज में महिला को पैसा दिया, उनके लिए नैतिकता की कौन-सी कसौटी तय की गई है? जिस महिला और उसके पति ने महज साल भर की बच्ची को अपने पास रख कर उसकी जरूरतमंद मां को कुछ पैसे दिए, क्या वे उसे कर्ज या मदद के रूप में वही रकम नहीं दे सकते थे?

आरोपी दंपति भी क्या उसी समाज का हिस्सा नहीं हैं, जो नैतिकताओं और नियमों को परिभाषित करता है और इसी के तहत किसी बच्चे के बदले पैसा लेने को गलत मानता है? समाज के बाकी हिस्से से लेकर सरकारी तंत्र की क्या जिम्मेदारी क्या थी? आखिर परस्पर सामाजिक सहयोग के सिद्धांत की क्या अहमियत है और वह कब काम करता है?

जीवन की कसौटियों और महज जिंदा रहने के जद्दोजहद से गुजरते व्यक्ति के सामने कई बार ऐसे हालात खड़े हो जा सकते हैं कि उसके लिए सामाजिक नैतिकता जैसे सवालों पर विचार करना मुश्किल हो जाए। ऐसे में कई बार वह ऐसे फैसले ले लेता है, जो समाज और कानून के लिहाज से गलत होता है, मगर सामने खड़ी लाचारी के बीच उचित-अनुचित के चुनाव पर तात्कालिक अनिवार्यता भारी पड़ जाती है।

सही है कि पैसे के बदले बच्ची किसी अन्य को सौंपने को हर लिहाज से अनुचित ही कहा जाएगा, मगर इसी समाज में ऐसे लोग भी हैं जो कई बार मजबूरी का फायदा उठा कर या बरगला कर किसी बच्ची या महिला को मानव तस्करी के व्यापक संजाल में झोंक देते हैं, जहां उसकी जिंदगी एक अंतहीन त्रासदी का शिकार हो जाती है। यह मामला औचित्य की कसौटी पर विचार के साथ-साथ बेहद कमजोर तबकों और लोगों के प्रति समाज और सरकार की भूमिका और जिम्मेदारी पर विचार की जरूरत को भी रेखांकित करता है।




क्रेडिट : jansatta.com


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