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- लाशें छोड़ने की...
आदित्य चोपड़ा। कोरोना के कहर ने किस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है हिन्दोस्तान को कि मुर्दा आदमियों के लिए अंत्येष्टि तक का इन्तजाम नहीं हो पा रहा है। पूरा मुल्क पूछ रहा है कि हजारों लोगों की लाशें गंगा नदी के रेत में दबी मिल रही हैं और सैंकड़ों लोगों की लाशें इसके पवित्र जल में तैरती मिल रही हैं उनकी गिनती किस खाते में की जायेगी? उत्तर प्रदेश की 22 करोड़ आबादी इस सूरत से हैरान है, केवल इतना नहीं है बल्कि लोग यह भी पूछ रहे हैं कि राज्य के प्रतिष्ठित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 18 विद्वान प्रोफेसर केवल एक सप्ताह के भीतर ही कोरोना का निवाला बन गये और जिला प्रशासन आक्सीजन गैस के सिलेंडरों का प्रबन्ध ही करने में लगा रहा। मगर बड़ा सवाल यह है कि पूरे देश में कोरोना से मरने वालों की जो संख्या बताई जा रही है या गिनाई जा रही है उसकी हकीकत क्या है? गंगा के तट पर अपने परिजनों के शवों को छोड़ने वाले लोगों की मजबूरी क्या थी? जो रिपोर्टें विभिन्न माध्यमों से कच्चे-पक्के तरीके से आ रही हैं उनके अनुसार ये शव ऐसे गरीब तबके के लोगों के हैं जिनके पास अन्तिम संस्कार के लिए लकड़ी तक खरीदने के पैसे नहीं थे। यदि इन रिपोर्टों में सच्चाई है तो इसकी जवाबदेही सीधे प्रशासन पर जाती है और मामला जवाबदेही से बचने का बनता है। इस जवाबदेही को हम समाज के मत्थे नहीं मढ़ सकते हैं क्योंकि लोकतन्त्र में लोगों की ही सरकार होती है।