सम्पादकीय

समझौतापरस्ती, बस तेरा ही आसरा

Rani Sahu
15 Dec 2021 6:47 PM GMT
समझौतापरस्ती, बस तेरा ही आसरा
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नई सदी आई, लोगों की समझ बदल गई

नई सदी आई, लोगों की समझ बदल गई। बात का लहज़ा बदल गया। जीने का तौर-तरीका बदल गया। आज वही कामयाब है जो मौका देख कर केंचुल बदल जाए। अभी कुछ चुनाव संपन्न हुए। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है अपना देश। मतदान की बड़ी शक्ति बताई जाती है। कहते हैं यहां सत्ता परिवर्तन बुलेट अर्थात बंदूक की गोली से नहीं, बैलेट यानी वोट से होता है। इसके बाद नतीजा निकलता है। जो चुनाव संघर्ष में एक-दूसरे के साथ कीचड़ की होली खेल रहे थे, आरोपों और लांछनों की कथनी अतिकथनी के दांव चल रहे थे, वही चुनाव परिणाम के दिन पांसा पलटता देख एक-दूसरे के गले लगते देर नहीं लगाते। समझौतापरस्ती हवाओं में तैरने लगती है। जनता और उसके लिए क्रांति कर देने की घोषणा गई तेल लेने। गरीब का हित साधने की बात तो ऐसा टकसाली सिक्का है जो हर पैंतरा बदलता बैसाखी के रूप में अपनाता है। फिर सरकार का दायित्व, प्रशासन में असमंजस को खत्म करना और क्रांति के लिए देर आयद दुरुस्त आयद की नई शब्दावली सामने आ जाती है। भक्तजनों के झांझ मंजीरों के स्वर तेज़ हो जाते हैं। नायक पूजा का सुर बदल जाता है।

वंश पूजा के रास्ते ही जनपूजा का रास्ता बताया जाता है। हर बार ऐसा होता है। जो क्रांति धर्मी नेता सरकार विरोधी लहर का परचम लहरा रहे थे, ने चुनाव परिणाम देख कर अपने धुर विरोधी को विजेता बनते देख उसका तंवर झूलने लगते हैं। इतिहास के नए पन्ने खुल जाते हैं। बताया जाता है कि बाप-दादा के ज़माने से ही वे लोग एक साथ चलने का इतिहास जी चुके हैं। सवाल अब साहिब नया इतिहास बनाने का है, जो विजेता है, वही त्रेता है। हम तो अपने भले के लिए ही उनके हाथ बिक गए। वायदा करते हैं कि हम रंग बदलने के बाद भी रियाया का ध्यान रखेंगे। जनाब अकबर इलाहाबादी भी फरमा गये हैं, 'हाकम को बहुत फिक्र है रियाया की, लेकिन अपना डिनर खाने के बाद।' लीजिए, गद्दियों पर चेहरे बदल गए। कल जो चुनावी भाषणों में एक-दूसरे की सात पुश्तें उधेड़ रहे थे, आज भय्या-भय्या कह कर एक-दूसरे को गले लगा रहे हैं। नेतागिरी का शब्दकोष समृद्ध है। जनहितैषी पुरानी घोषणाओं के मृत होते ही नई घोषणाएं जन्म ले लेती हैं। 'आया राम गया राम' का चलन पुराना हो गया।
अब उसको नया शीर्षक मिल गया, 'गठजोड़ की राजनीति'। समझौता परस्ती सुविधाजनक ही नहीं, सम्मानजनक बन गई। दावों और घोषणाओं का क्या है? फैशन बदल जाने के साथ जैसे पुराने कोट उतर जाते हैं और नए परिधान उनका स्थान ले लेते हैं, इसी तरह नए दावे और नई घोषणाएं हवा में तैरने लगती हैं। सब में किसान, मजदूर और आम आदमी के जीवन के कायाकल्प की बातें हैं। महंगाई नियंत्रण के वायदे हैं। भ्रष्टाचार उन्मूलन की कसमें हैं। और आजकल सर्वोपरि हो गया राष्ट्र धर्म, मेरा देश महान और झंडा ऊंचा रहे हमारा। कोई नहीं पूछता कि साब कल तो आप यही नारे कोई और झंडा उठा कर लगा रहे थे। परिणाम आते ही झंडे का रंग बदल गया। समझते नहीं आप, नाम में क्या रखा है? झंडे का रंग बदल गया तो क्या, इसमें सत्ता की तासीर तो है। जो हमारी ही नहीं, आपकी सेहत के लिए भी माफिक है। अब सबके छोटे-बड़े काम आसानी से हो जाएंगे। आपके भी और हमारे भी। जनता जय-जय चिल्लाती है। जीते हुए की विजय यात्रा में शरीक हो जाती है। कल जो उनके विरुद्ध भाषण करते थकते नहीं थे, आज उनके गले का हार हो गए। पूछो, यह गिरगिटिया अंदाज़ क्यों अपनाया? तो कह देंगे, आपको त्रिशंकु विधानसभा से बचाया। यह गरीब देश बार-बार चुनावों का बोझ नहीं सह सकता। लेकिन केवल राजनीति ही रंग नहीं बदलती। आज वायु प्रदूषण इतना नहीं बढ़ा जितना फि़ज़ाओं में समझौता परस्ती बढ़ गई है।
सुरेश सेठ
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