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- बिहार के उलझे गठबन्धन
बेशक पिछले 2015 के चुनावों में राज्य की 243 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को बामुश्किल पचास से ऊपर सीटें ही मिल पाई थी मगर शिखर राजनीति में जोड़-तोड़ से वह केवल साल भर सत्ता से बाहर रहने के बाद पुनः नीतीश बाबू के साथ सत्तारूढ़ हो गई। इस दृष्टि से देखा जाये तो भाजपा के लिए खोने को बहुत ज्यादा नहीं है जबकि पाने को बहुत कुछ है। अतः यह विपक्ष ही है जिसका सब-कुछ दांव पर लगा हुआ है। इन चुनावों में देखने वाली बात यह होगी कि दोनों पक्षों में से कौन सा पक्ष चुनावों का एजेंडा तय करने में सक्षम हो पाता है। अभी तक बिहार चुनावों का कोई एेसा एजेंडा तय नहीं हो पाया है जो आम मतदाताओं को आन्दोलित कर सके परन्तु इस सबसे ऊपर इन चुनावों में एक एेसे नेता का भाग्य दांव पर लगा हुआ है जिसे एक जमाने में विपक्ष की ओर से प्रधानमन्त्री पद तक का योग्य उम्मीदवार माना गया था। निश्चित रूप से वह नेता माननीय नीतीश कुमार ही हैं मगर चुनावों से पहले ही उनका कद इतना छंट चुका है कि उनके मुकाबले विपक्ष के महागठबन्धन ने अपना नेता श्री लालू प्रसाद यादव के सुपुत्र तेजस्वी यादव को चुना है लेकिन चुनावों में यही तथ्य नीतीश बाबू के पक्ष में भी जा रहा है क्योंकि उनके अनुभव और प्रशासनिक क्षमता के आगे तेजस्वी यादव कहीं ठहर नहीं पाते हैं, परन्तु वह बिहार राज्य है जहां बड़े-बड़े महारथियों का कद छांटने में यहां की जनता संकोच नहीं करती है। 2009 के चुनावों में उसी हाजीपुर ने स्व. राम विलास पासवान को लाखों मतों से हरा दिया था जहां से 1977 में उन्होंने जीत कर सबसे ज्यादा वोटों से जीतने का रिकार्ड बनाया था। इसी वजह से भाजपा ने नीतीश बाबू को इन चुनावों में अपने कन्धे पर बिठा कर चुनावी नैया पार लगाने का फैसला किया है और भाजपा-जद (यू) की संयुक्त रैलियां एनडीए के छाते के नीचे करने का फैसला किया है।
गौर करने वाला तथ्य यह है कि नीतीश बाबू ही एनडीए के मुख्यमन्त्री पद के दावेदार होंगे मगर वह भाजपा के साये में चुनाव लड़ेंगे। इसका आशय यही निकलता है कि उनकी पार्टी जद(यू) की ताकत राज्य में भाजपा के सहारे ही बची रह सकती है। बिहार की राजनीति की यह हकीकत है जो चुनावी गठबन्धनों से उभरी है। इसमें स्व. पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान ने जिस प्रकार का भ्रम पैदा किया है उससे बिहारी मतदाता को ही मदद मिल रही है। चिराग कह रहे हैं कि वह एनडीए का हिस्सा हैं मगर नीतीश कुमार के खिलाफ हैं और भाजपा व प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के प्रखर समर्थक हैं।
चिराग बाबू अभी राजनीति में कच्चे खिलाड़ी हैं, उन्हें यह मालूम नहीं है कि उनके यह कहने भर से ही बिहारी मतदाता के दिमाग की बत्ती जल सकती है और वह सोच सकता है कि जो पार्टी चुनावों से पहले ही एनडीए के भीतर भी है और बाहर भी है वह चुनावों के बाद क्या रंग दिखायेगी। यह बिहार है न कि दक्षिण भारत का कोई राज्य अथवा प. बंगाल जहां वाजपेयी शासन के दौरान तमिलनाडु की क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए का भाग होते हुए भी राज्य के चुनावों में भाजपा विरोधी दलों से हाथ मिला कर चुनाव लड़ लेती थी और चुनाव खत्म हो जाने के बाद पुनः केन्द्र में आकर अपने प्रतिनिधि को मन्त्री बना देती थीं। 2002 में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने भी ऐसा ही किया था जब उन्होंने भाजपा विरोधी कांग्रेस पार्टी के साथ राज्य चुनावों में 'महाजोट' बनाई थी।
पटना के दिल्ली से तार इस तरह जुड़े हुए हैं कि राजधानी दिल्ली की सरकार भी पूर्वांचल के नागरिकों के वोट के बिना नहीं बन सकती। इस हकीकत को चिराग पासवान समय के साथ परिपक्व होते हुए ही समझ पायेंगे। जहां तक फिलहाल बिहार की जमीनी हकीकत का सवाल है तो विपक्षी कांग्रेस- राजद-कम्युनिस्ट गठबन्धन भी बिहार की जातिवादी परक राजनीति का मोहभंग करने का सामान अभी तक तैयार नहीं कर पाया है मगर जमीन पर मतदाताओं में हलचल बाकायदा जारी है। गठबन्धनों के बारे में ग्रामीण राजनीति के पुरोधा पूर्व प्रधानमन्त्री स्व.चौधरी चरण सिंह ने 1984 में हुए लोकसभा चुनावों की जनसभाओं में कहा था कि ' 'सियासी पार्टियों को यह गलतफहमी रहती है कि उन्होंने गठबन्धन करके अपने वोट बढ़ा लिये हैं मगर असली गठबन्धन मतदाता करते हैं और वे राजनीतिज्ञों को पाठ सिखाते हैं कि तुम्हारे इकट्ठा होने से देश की तकदीर नहीं बदलेगी बल्कि हमारे इकट्ठा होने से मुल्क का भाग्य बदलेगा''। अतः बिहार का भाग्य बिहारी मतदाता ही तय करेंगे।बिहार के उलझे गठबन्धन