सम्पादकीय

शिकायत को कान चाहिए

Rani Sahu
23 Nov 2021 7:00 PM GMT
शिकायत को कान चाहिए
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शिकायतों को ढोते जनमंच के आंगन में कुछ इरादे, कुछ वादे, कुछ आफत, कुछ शामत रही

शिकायतों को ढोते जनमंच के आंगन में कुछ इरादे, कुछ वादे, कुछ आफत, कुछ शामत रही। दस जिलों में 1056 शिकायतों में आफत का पुलिंदा देखा गया, तो इन्हीं के बीच फटकार, पुरस्कार व नागरिक अधिकार भी देखे गए। मंत्रियों के कोट के बटन उनके व्यक्तित्व को इतना सख्त कर गए कि बेचारे अधिकारी कोप भाजक बन गए। नागरिक इतने तन गए कि प्रशासन की कलई खोलते उनके माइक तक को बहरा बना दिया गया, फिर भी दाद देनी होगी कि जनमंच की प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए सरकारी फाइलों की लेटलतीफी काम कर रही है। सरकारी कार्यसंस्कृति की खाद जहां-जहां नजर आई वहां सुशासन की उत्पादकता में हरियाली गायब रही। बेशक जनमंच को चमत्कारी अदा में प्रस्तुत करने में सरकार सफल रही, लेकिन शिकायतों के पिटारे में सिसकियां अपना हाल बताती हैं। प्रदेश को मालूम हो गया कि सरकार के फैसलों का कार्यान्वयन क्यों नहीं होता या क्यों कई अधिकारी यूं ही मजे के लिए गुलकंद खा रहे हैं। जनमंच किसे कह रहा, किसे सुना रहे, यह जनता को खबर होगी या यह खबर भी होगी कि शिकायतकर्ताओं के लिए बस एक कान चाहिए।

जनमंच आयोजन के साथ चिकित्सा जांच व वैक्सीनेशन की परिपाटी का कुछ तो असर हुआ। कम से कम पारदर्शिता से चिकित्सा विभाग ने अपना दायित्व निभाया। इसी तरह के प्रमाण पत्रों की आशा में एकत्रित धूल भी कहीं-कहीं छटी, तो सरकार की चिट्ठी पत्री के शब्द घूमते हुए देखे गए। जनमंच का आइडिया, शिकायतों के निपटारे से पूरा होता है, तो इसके माध्यम से राजनीतिक असर व सत्ता का बसर भी सामने आ जाता है। जनमंच के भीतर एक विरोधी पक्ष रहता है या नागरिक अपेक्षाओं का सबब रहता है। सुशासन की दृष्टि से देखें, तो कड़े संज्ञान लेने के अलावा आगे के लिए नीतियों, कार्यक्रमों व इनके कार्यान्वयन के लिए सूत्रधार देखे जा सकते हैं। दस जनमंच अपने एक आयोजन के भीतर न तो दस जिलों की नुमाइंदगी कर सकते हैं और न ही हर फाइल, हर सवाल या हर शिकायत का जवाब दे सकते हैं। क्या सरकारी कामकाज की परिपाटियों का किसी एक जनमंच में फर्राटेदार भाषा में जवाब मिल सकता है। यकीनन नहीं, लेकिन हर जनमंच की अदायगी में बेहतरी ढूंढी जा सकती है। अब तक के जनमंचों के माध्यम से आई शिकायतों का विश्लेषण बता सकता है कि किस विभाग की चूलें ढीली हैं या कहां नीतियों, कार्यक्रमों की प्रक्रिया दोषपूर्ण है। किसी एक जनमंच से इज्जत बचाने की कोशिश में फटकार लगाने से क्या पूरी व्यवस्था बदल सकती है या किसी एक गांव में मंच सजाने से हिमाचल के समस्त गांवों की शिकायतें खत्म हो सकती हैं। कमोबेश हर जनमंच से आग्रह-विनती करती एक जैसी ही शिकायतें आती हैं, तो अरदास करती जनता भी एक सरीखी होती है। कहीं कोई बूढ़ा-बुजुर्ग हिम्मत करके सरकारी पक्ष के कानों में पड़ी रूई हटाने की कोशिश करता भी है, तो माइक ही बंद कर दिया जाता है।
कहीं कोई पीडि़त अपने आसपास या घर-परिवार की बात करता है, तो उसे समझा दिया जाता है कि उसकी जिंदगी का प्रकोप मिट जाएगा। आखिर हर बार वहीं राजस्व विभाग क्यों बार-बार कठघरे में खड़ा होता है, जिसके आसरे किसी का घर, किसी का खेत, किसी की दुकान या किसी का कारोबार सलामत रहेगा। जनमंच केवल शिकायतें सुन रहा है या नागरिकों के दैनिक जीवन की मुश्किलें हल कर रहा है। आम नागरिक शिकायत लेकर तो जनमंच तक आ सकता है, लेकिन इससे व्यवस्था की खामियां दूर नहीं हो रही हैं। आज जनमंच के संबोधन से एक सीमित मदद मिल सकती है, लेकिन सुशासन को कारगर बनाने के लिए किसी मंच की चहल-पहल के बजाय इरादों की पहल चाहिए। जो विभाग आजतक के जनमंचों में मुजरिम बने या जिनके अधिकारियों को मंत्रियों ने फटकार लगाई, क्या वे सुधर गए। क्या फटकार लगाते मंत्री यह सुनिश्चित कर पाए कि उनका विभागीय कौशल परवान चढ़ जाए। जनमंच का फीडबैक अगर असरदार भूमिका में कार्यान्वित हो तो सरकारी कार्यालयों की प्रणाली भी सुधर जाएगी। जनमंच केवल शिकायतों को ही संबोधित करेगा या किसी दिन ऐसे मंचों पर जनता के विचार, नागरिक अनुभूतियों और सुझावों को सुनते सत्ता के ओहदेदार और प्रशासनिक अधिकारी देखें जाएंगे ताकि ऐसे संकल्प से सुशासन का रास्ता निखर जाए।

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